बहस बहस बहस !
पर जूते और कमीज की तरह
तू अपना बदन भी उतार दे
उधर मूढ़े पर रख दे
कोई खास बात नहीं
हर जगह,हर बार बस बहस ही बहस।कभी देश की सुरक्षा के नाम पर ,कभी पॉलिटिक्स को लेकर ,कभी फिल्मों को लेकर,कभी बुर्खा तो कभी तलाक के नाम पर।हँसी तो मुझे राम मंदिर की जगह राम म्यूजियम बनने की बात पर आई।वो दिन दूर नही भईया जब लोग चिड़ियाघर और गाँधी म्यूज़ियम की जगह ,राम जी या अल्लाह मियाँ के चिड़ियाघर या म्यूज़ियम जायेंगे।भाई राम जी के चिड़ियाघर से मेरा तात्पर्य बिल्कुल हनुमान जी से नही था।वो तो मेरे फेवरेट भगवान् है।हाँ बाली -सुग्रीव ,जटायु आदि के बारे में कुछ कह नही सकती।बुरा ना मानो दिवाली है :) अमृता प्रीतम जी की एक कविता आज के हालातों के नाम।
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है
सड़कें - बेतुकी दलीलों सी…
और गलियां इस तरह
जैसे एक बात को कोई इधर घसीटता
कोई उधर
और गलियां इस तरह
जैसे एक बात को कोई इधर घसीटता
कोई उधर
हर मकान एक मुट्ठी सा भिंचा हुआ
दीवारें-किचकिचाती सी
और नालियां, ज्यों मूंह से झाग बहती है
यह बहस जाने सूरज से शुरू हुई थी
जो उसे देख कर यह और गरमाती
और हर द्वार के मूंह से
फिर साईकिलों और स्कूटरों के पहिये
गालियों की तरह निकलते
और घंटियां हार्न एक दूसरे पर झपटते
जो उसे देख कर यह और गरमाती
और हर द्वार के मूंह से
फिर साईकिलों और स्कूटरों के पहिये
गालियों की तरह निकलते
और घंटियां हार्न एक दूसरे पर झपटते
जो भी बच्चा इस शहर में जनमता
पूछता कि किस बात पर यह बहस हो रही?
फिर उसका प्रश्न ही एक बहस बनता
बहस से निकलता, बहस में मिलता…
पूछता कि किस बात पर यह बहस हो रही?
फिर उसका प्रश्न ही एक बहस बनता
बहस से निकलता, बहस में मिलता…
शंख घंटों के सांस सूखते
रात आती, फिर टपकती और चली जाती
रात आती, फिर टपकती और चली जाती
पर नींद में भी बहस खतम न होती
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है….
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है….
अब बात अमृता जी की।कई बार अमृता जी के बारे में लिखने का सोचा ,पर हर बार ही रह जाता था ।मुझे अमृता जी की जीवनी काफी दिलचस्प लगती है।एक महिला जिसकी प्रेम कहानी को समझ पाना ,जैसे इंद्रधनुष को देखना।अलग -अलग रंग ,पर आपकी पहुँच और समझ से परे।अमृता जी का जन्म पंजाब के गुजरांवाला में हुआ था।बटवारे के बाद वो लाहौर से भारत आ गई थी।16 साल की उम्र में अमृता जी की शादी प्रीतम सिंह से हुई ,और वही से अमृता कौर "अमृता प्रीतम" बन गई।कुछ बरसो के बाद अमृता अपने पति से अलग हो गई।इन्होंने ने कभी अपने पति से तलाक नही ली।हो सकता हो तलाक या शादी इनके लिए किसी सर्टिफिकेट से ज्यादा कुछ मायने ना रखते हो।कुछ समय बाद इनकी प्रेम कहानी गीतकार "साहिर लुधियानवी" जी के साथ शुरू हुई।प्रेम का आलम ये कि ,इनकी कविताओं में साहिर तो वही साहिर के गीतों में अमृता।प्रेम के बावजूद कही विश्वास की कमी की वजह से ये दोनों एक नही हो पाए।फिर अमृता जी के जीवन में ईमरोज का आना ,मानो इनके जीवन में रंगों का भर जाना।ईमरोज एक पेंटर है और वो अमृता जी कविताओ के लिए स्केच बनाया करते थे।अमृता और ईमरोज को साथ रहने के लिए शादी की मुहर की जरुरत नही थी।वे दोनों साथ रहे पर कभी शादी नही की।ईमरोज अमृता के साथ अंत तक रहे।अमृता 31 ऑक्टबर 2005 को हमें अपनी कविताओं के साथ छोड़ गई। कभी -कभी मैं सोचती हूँ ,क्या अमृता को भी समाज का डर लगा होगा ? क्या उनको भी चरितहीन का दर्जा दिया गया होगा ?बावजूद इसके उन्होंने अपने जीवन को प्रेम से सींचा ,प्रेम किया और प्रेम पाया।विचार स्वछन्द ,जीवन स्वछन्द ,शरीर स्वछन्द ,लेखनी स्वछन्द।सच में अमृता आपकी लेखनी के साथ आपका जीवन भी साहस का परिचय देता है।क्या खूब लिखा है आपने - "परछाई पकड़ने वालो ,छाती में जलती आग की कोई परछाई नही होती "आपकी कई कविताये पसंद है मुझे ,उनमे से कुछ -
*मेरी सेज हाजिर है पर जूते और कमीज की तरह
तू अपना बदन भी उतार दे
उधर मूढ़े पर रख दे
कोई खास बात नहीं
बस अपने अपने देश का रिवाज है……
* मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
शायद तेरे कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे केनवास पर उतरुँगी
या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
या सूरज की लौ बन कर
तेरे रंगो में घुलती रहूँगी
या रंगो की बाँहों में बैठ कर
तेरे केनवास पर बिछ जाऊँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रुर मिलूँगी
या फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें
तेरे बदन पर मलूँगी
और एक शीतल अहसास बन कर
तेरे सीने से लगूँगी
मैं और तो कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म ख़त्म होता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है
पर यादों के धागे
कायनात के लम्हें की तरह होते हैं
मैं उन लम्हों को चुनूँगी
उन धागों को समेट लूंगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
मैं तुझे फिर मिलूँगी!!
कहाँ कैसे पता नहीं
शायद तेरे कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे केनवास पर उतरुँगी
या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
या सूरज की लौ बन कर
तेरे रंगो में घुलती रहूँगी
या रंगो की बाँहों में बैठ कर
तेरे केनवास पर बिछ जाऊँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रुर मिलूँगी
या फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें
तेरे बदन पर मलूँगी
और एक शीतल अहसास बन कर
तेरे सीने से लगूँगी
मैं और तो कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म ख़त्म होता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है
पर यादों के धागे
कायनात के लम्हें की तरह होते हैं
मैं उन लम्हों को चुनूँगी
उन धागों को समेट लूंगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
मैं तुझे फिर मिलूँगी!!
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