Tuesday 8 September 2015

Land of MISTAKE or MYSTIC BANARAS !!!!

बनारस  हमेशा से आकर्षण केंद्र रहा है।चाहे मोक्ष की चाह में हो या पर्यटन की लालसा में।फिल्म वालो की भी खासा रूचि रही है ,इसकी पृष्ठभूमी को लेकर।ऐसे में एक ही साल में बनारस की चाल -ढाल दिखाता नया सिनेमा ,दो जबरदस्त फिल्म बनाता है।एक तो "मसान" दूसरा "मोहल्ला अस्सी" मोदी जी क्या जीते यहाँ से बनारस की काया ही पलट गई।कुछ तो बदला होगा या है ,पर क्या मालूम नही।कुछ नही सही पर कम से कम फिल्मकारों ने ही बनारस को समझा तो।फिल्मो में बनारस तो बहुत पहले से है।पर समय के साथ बनारस की जगह इंग्लैण्ड ,पेरिस ,स्विटरजरलैंड ,अमेरिका या दुबई ने ले ली।मैं भी उसी बदलते समाज का एक हिस्सा हूँ।अपनी संस्कृति से दूर डॉलर के लालच में फसी एक अनजान संस्कृति को अपनाती।फिल्म में सच कहा गया है ,पैसा सब कुछ खरीद सकता है।पर जब शांति ,ख़ुशी की बात आती है तो एक मौन।खैर बनारस से पास होते हुए भी मैं कभी बनारस नही जा पाई।कारण जो भी हो पर बहाने के तौर पर बाबा विश्वनाथ का बुलवा नही था।इस बार बाबा की कृपा हो तो जरूर जाउंगी।फिलहाल चले पन्ने और आपके मन को रंगने।मसान पर पहले लिख चुकी हूँ ,तो आज की कलम डायरेक्टर " चन्द्र प्रकाश दिवेदी"की फिल्म "मोहल्ला अस्सी" के नाम।फिल्म शुरू होती है बनारस घाट से ,जहाँ आरती हो रही है।बैकग्राउंड में "पंडित छन्नुलाल लाल मिश्रा जी" की आवाज में भगवान शिव का गीत डिमिक -डिमिक डमरू कर बाजे चल रहा है।आह पंडित जी की आवाज और बनारस की आरती ,पहला सीन ही मन को सम्पूर्णता से भर देता है।फिल्म में सनी देओल एक परंपरागत पंडा (पंडित ) बने हुए है।जिन्हे अपने संस्कृती ,सभ्यता और रिवाजो को बचाने का भूत चढ़ा होता है।उनकी पत्नी (साक्षी तंवर )दुसरो की तुलना करती हुई पंडित जी को समझाती है ,की आमदनी बढ़ाये। अब संस्कारो और सच्चाई पर चलने वाले ढीठ पंडित का क्या हो सकता है ,परिवार जैसे -तैसे दक्षिणा पर पेट भर रहा है।हालत से तंग आकर आखिर पंडित को भी अपने आदर्शों को ताक पर रखना पड़ता है।दूसरी ओर एक टूरिस्ट गाईड (रवि किशन ) बनारस आने वाले विदेशियो को बनारस दर्शन के साथ किराये का मकान दिलवाता रहता है।कमरा के लिए विदेशियो की पहली पसंद अस्सी घाट है।कारण यहां से गंगा पास और हर घर की खिड़की गंगा की तरफ खुलती है।अस्सी घाट पर ज्यादतर ब्राहम्ण ,ठाकुर ,और मल्लाह के घर है।पैसे की लालच में ठाकुर और मल्लाह घर किराये पर दे देते है।पर ब्राहम्ण गरीबी के बावजूद रिवाजो का ढोंग कर जी रहे है।वही एक भांग वाले की दुकान पर कुछ मिले -जुले बुद्धि जीवियो का सम्मेलन होते रहता है।राजनीती से लेकर ,सम्प्रायवाद ,आयोध्या मंदिर निर्माण ,विदेशियो को गाली ,बनारस की सभ्यता पर बहस होती रहती है।जैसे -हर छोटे -बड़े शहर में चाय की दुकान पर होती है।फिल्म में लगभग हर लफ्ज़ गाली से शुरू होता है।इसके बावजूद फिल्म बहुत ही अच्छी और मजाकिया तौर पर बनाई गई है।इतने जटिल समस्याओं को बहुत ही हल्के -फुल्के अंदाज में दिखाए गया है।ताकि आप हँस -हँस के रोये।यही है एक नेशनल फिल्म अवॉर्ड विनर ( फिल्म ,पिंजर ) डायरेक्टर की खूबी है।फिल्म में बैकग्राऊंड में कही कजरी गीत तो कही कबीर के भजन चार -चाँद लगा देते है।एक से बढ़ कर एक डायलॉग है जैसे -एक मुसल्मान कहता है ,वोट उसी को दूँगा ,जिसे पूरा मुहल्ला देगा।लेकिन वोट मैं दे भी दूँ तो कोई विश्वास नही करेगा।दुःख इसी बात का है।एक पंडा एक छोटी जात वाले व्यक्ति को कहता है,जा अगले जन्म में ब्राहम्ण ,भूमिहार या ठाकुर के घर पैदा होना।जब नौकरी के लिए गिड़गिड़ाओ तब पता चलेगा।एक दूसरा व्यक्ति हँस के पूछता है ,ये आशीर्वाद था या श्राप।यहाँ तो आशीर्वाद भी बिना गाली के पूरी नही होती।वही एक हजाम (नाई )एक विदेशी महिला के साथ भाग कर योगा गुरु बन जाता है।बार्बर बाबा कहता है ,जैसे ऐक्टर तेल -साबुन , क्रिकटेर गाड़ी ,घर, मोबाइल  ,नेता देश बेचते है।वैसे मैं योग बेचता हूँ !!दुनियाँ एक बाजार है।"पहले समाज में एक बाजार हुआ करता था।अब बाजार में एक समाज साँस ले रहा है"।सारे गुण पैसे से खरीदे जा सकते है।जो निर्धन है ,वो समाज का कचरा है।वही राम जन्मभूमि पर भी कुछ बेहतरीन संवाद है।जैसे राम को लगता है आजीवन बनवास ही रहना होगा।पहले 14 साल का वनवास ,फिर सीता की परीक्षा अब जन्मभूमि का प्रमाण।किसे पता राम का घर ? वही भांग को शिव प्रसाद बताना इसका मन से सम्बन्ध ,मानव अस्तित्व से संबंध बताना आपको हसने पर मजबूर कर देगी।वही विदेशियो की भी पीड़ा को अच्छी तरह समझाया गया है।कैसे भारत उनके लिए पर्यटन केंद्र नही चंद डॉलर में सुबिधापूर्ण जीवन यापन का साधन है।कैंसे संस्कृत पढ़ाने वाले शिक्षक को इंग्लिश आना जरुरी हो गया है।एक साधु कहता है ,आने वाले समय में भारत एक बाजार होगा।ये करेगा या सुनेगा कम ,बोलेगा ज्यादा।जो आज के समय में बिलकुल सच लगता है।वही एक विदेशी कैथरीन कहती है ,बनारस अब मर रहा है।जिसे सुनकर एक बुद्धिजीवी तिलमिला जाते है।कैथरीन कहती है ,मुझे मालूम है बनारस में गाली देना और सुनना संस्कृति है।अब तुम्हे क्या बताये कैथरीन बहन सिर्फ बनारस ही ,नही पूरा भारत यहां तक समस्त विश्व मर रहा है।कहाँ गरीबी को सर पर बिठाया जाता है ,कहाँ ढोंग नही ,कहाँ नशा नही, कहाँ गाली नही? आधुनिक बनने के लिए कुछ तो कुर्बानी देनी होगी।गाली हिंदी में दो या इंग्लिश में है तो गाली ही।गरीब भारतीय हो या विश्व के किसी दूसरे कोने से है तो गरीब ही।आह समाज का कचरा!!बहुत कुछ है इसपर लिखने या समझने को।बस कबीर के भजन के साथ विराम  ,
झीनी -झीनी बीनी चदरिया।।
काहे कै ताना काहे कै भरनी
 कौन तार से बीनी चदरिया
झीनी -झीनी बीनी चदरिया।। 

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