Wednesday, 28 September 2016

यदि देश की सुरक्षा यही होती है
कि बिना जमीर होना ज़िन्दगी के लिए शर्त बन जाए
आँख की पुतली में हाँ के सिवाय कोई भी शब्द
अश्लील हो
और मन बदकार पलों के सामने दण्डवत झुका रहे
तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है ।

हम तो देश को समझे थे घर-जैसी पवित्र चीज़
जिसमें उमस नहीं होती
आदमी बरसते मेंह की गूँज की तरह गलियों में बहता है
गेहूँ की बालियों की तरह खेतों में झूमता है
और आसमान की विशालता को अर्थ देता है

हम तो देश को समझे थे आलिंगन-जैसे एक एहसास का नाम
हम तो देश को समझते थे काम-जैसा कोई नशा
हम तो देश को समझते थे कुरबानी-सी वफ़ा
लेकिन गर देश
आत्मा की बेगार का कोई कारख़ाना है
गर देश उल्लू बनने की प्रयोगशाला है
तो हमें उससे ख़तरा है

गर देश का अमन ऐसा होता है
कि कर्ज़ के पहाड़ों से फिसलते पत्थरों की तरह
टूटता रहे अस्तित्व हमारा
और तनख़्वाहों के मुँह पर थूकती रहे
क़ीमतों की बेशर्म हँसी
कि अपने रक्त में नहाना ही तीर्थ का पुण्य हो
तो हमें अमन से ख़तरा है

गर देश की सुरक्षा को कुचल कर अमन को रंग चढ़ेगा
कि वीरता बस सरहदों पर मर कर परवान चढ़ेगी
कला का फूल बस राजा की खिड़की में ही खिलेगा
अक़्ल, हुक्म के कुएँ पर रहट की तरह ही धरती सींचेगी
तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है।
"पाश " की लिखी ये कविता आज के समय में कितनी सच्ची लगती है ना।चारो तरफ हो -हंगामा है ,सुरक्षा को लेकर।चाहे भारत हो या अमेरिका हर जगह एक ही शोर ,पर हमें खतरा किससे है ?अपने से या अपनों से ? खुद से या खुद के डर से ? भारत -पाक -अमेरिका -चीन सुन -सुन कर दिमाग में केमिकल लोच होने लगा है।समझ नही आता किसे मारे के,कहाँ मरे कहाँ माफ़ करे ?खैर पाश ! चाहे आपकी कविता ,"अब विदा लेता हूँ "हो या "मैंने एक कविता लिखनी चाही "हो या फिर "*सबसे खतरनाक होता है सपनो का मर जाना" ,सबने मुझे सोचने पर ,रोने पर विवश किया। अवतार सिंह संधू यानि हमारे पाश का जन्म पंजाब के जालंधर में 9 सितम्बर 1950 को हुआ था। आपके नाम का "संधू" हटा कर अगर "साधु"कर दिया जाय तो ,इसमें कोई आश्चर्य नही होगा।साधु कहने से मेरा मतलब किसी धर्म से नही इसकी प्रकृति से है।जैसे एक साधु हर बंधन से मुक्त होता है ,आपके विचार भी वैसे ही भय मुक्त ,बंधन मुक्त है।पाश की नक्सलवादी राजनीती से सहानुभूति थी।इन्होंने पंजाबी में कविताये लिखी ,कुछ पत्रिका का संपादन भी किया।कुछ पंजाबी में लिखी होने से पढ़ नही पाई ,पर इनकी कविताये जब भी पढ़ो प्रभावित करती है।39 साल की उम्र में ही आपकी हत्या कर दी गई।हत्या मनुष्य की होती है पाश , विचारो की नही।जीवन के बारे में लिखी आपकी इस कविता के साथ विदा लेती हूँ। 

Thursday, 15 September 2016

युगन युगन हम योगी !!!!

कबीर को पढ़ना और समझना दोनों ही असीम अनुभूति है।कबीर को थोड़ी और गहराई से समझने का सौभाग्य मुझे मिला।बहुत- बहुत धन्यवाद "दीपक" कबीर रूपी खजाना मुझे भेजने के लिए।किताब पढ़ते समय मुझे "कुमार गंधर्व जी" की याद आई।आह ! कबीर का चिंतन और "पंडित कुमार गंधर्व जी" की गंभीर आवाज ,सच में एक अलग ही आध्यात्म की अनुभूति,जहाँ से आप वापस आना ना चाहो।एक तरफ जहाँ कबीर एक स्वतंत्र चिंतक, दूसरी तरफ पंडित जी बिना किसी घराने के बंधक।सच में अलौकिक मिलाप।कबीर के बारे में आप सब जानते ही होंगे।पंडित कुमार गंधर्व के बारे में भी बहुत लोग जानते होंगे।आज कुमार जी के बारे में कुछ लिख रही हूँ।मैंने पंडित जी का सिर्फ नाम सुना था 6 /7 साल पहले।तब मेरा भाई सरोद सीख (वाद्य यंत्र )सीख रहा था।कभी पंडित जी को सुना नही।भाई ने एक- आध बार इनके बारे में बताया और सुनने को कहा।पर उस वक़्त मैं किसी और दुनिया में मशगूल थी।मेरे कहने का मतलब इस तरह की संगीत की ना तो समझ थी ना ही सुनने की ईक्षा।भाई को भी कभी चिढ़ाती तो कभी लड़ती क्या ये दिन भर आ -आ बजाते रहते हो ?धीरे -धीरे चिढ़ते -चिड़ाते मुझे भी मालूम नही कब "हिंदुस्तानी क्लासिकल "अच्छा लगने लगा।हालाँकि अभी भी इसमें मेरा ज्ञान काफी कम है ,पर मैं इसे अब घंटों सुन सकती हूँ।वो क्या है ना ,दावा कड़वी होती है पर असर तो जरूर करती है।यही हाल है हिंदुस्तानी क्लासिकल का।दिमाग और मन का टॉनिक है ये।हाँ तो बात कुमार जी की,-कुमार जी का असली नाम " शिवपुत्रा सिद्दरामैया कोमकलीमठ" था।इनका जन्म 8 अप्रैल 1924 को कर्नाटक के बेलगाम डिस्ट्रिक में हुआ।गाँव का नाम सुलेभावी। 5 साल की उम्र से ही इन्होंने संगीत की शिक्षा शुरू की। 10साल  की उम्र में इन्होंने पहला स्टेज परफॉर्मेन्स दिया।कहते है इनकी गायकी से प्रभावित होकर इनको "गंधर्व "की उपाधी दी गई।तभी से इनको "पंडित कुमार गंधर्व "कहा जाने लगा।सन 1947 में इनको टीवी (क्षय ) का रोग हो गया।डॉक्टर ने इनको गाने की मनाही कर दी।लगभग 6 साल की बीमारी में ,बिस्तर पर पड़े- पड़े ,इन्होंने हर तरह के संगीत को महसूस किया।चाहे वो चिड़ियाँ की चहक की हो ,हवा के झोंके हो या गली में यूँही गाते फकीरो के गीत या फिर लोक गीतों की धुन।सबको सुनते और गुनगुनाते रहते।डॉक्टर की दावा और पहली पत्नी "भानुमति" की सेवा से कुमार जी ठीक तो हो गए ,पर उनका एक फेफड़ा खराब हो गया था।अपनी इस कमजोरी को उन्होंने बेहतरीन गायन शैली के ईज़ाद से एक ताकत का रूप दिया।इसी क्रम में वो "निर्गुण भजन" की तरफ झुके।कबीर को उन्होंने अपनी बुलंद और अनोखी शैली से एक आद्यात्मिक संगीत का रूप दिया।मुझे तो अब इनकी गाई सारे निर्गुण ,लोकगीत अच्छे लगते है।चाहे वो" सुनता है गुरु ज्ञानी ,गगन में आवाज़ हो रही है हो" ,या" फिर उड़ जायेगा हंस अकेला" हो।इनसब में प्रिय मुझे " झीनी -झीनी- झीनी  बीनी चादरिया ,काहे का ताना काहे की बरनी "और "युगन -युगन हम योगी" है।युगन -युगन की कुछ लाइनें -
युगन  युगन हम योगी
अवधूता युगन युगन हम योगी
आवे ना जाये ,मिटे ना कबहूं
सब्द अनाहत योगी ,अवधूता युगन युगन हम योगी।
सब ही ठौर जमात हमारी ,सब ही ठौर पर मेला
हम सब मांय ,सब है हम माय
हम है बहुरी अकेला ,अवधूता युगन युगन हम योगी।
मतलब - हे !अवधूत (अदृश्य परमात्मा ,ओमकार ,योगी ) हम तो युगों -युगों से योगी है। ना मै आया हूँ ना मै मिटा (नष्ट )हुआ हूँ ,मै कभी ना खत्म होने वाले ध्वनि या संगीत का आनंद ले रहा हूँ ,मै तो सदा से योगी हूँ। हर तरफ मेरे ही समुदाय के मेरे ही लोग है ,मै सबसे मिलता हूँ ,मै सबमे हूँ और सब मुझमे ,फिर भी मै अकेला हूँ।हे ! अजान्य शक्ति मै तो युगों -युगों से योगी हूँ।
   

युगन युगन हम योगी !!!!

कबीर को पढ़ना और समझना दोनों ही असीम अनुभूति है।कबीर को थोड़ी और गहराई से समझने का सौभाग्य मुझे मिला।बहुत- बहुत धन्यवाद "दीपक" कबीर रूपी खजाना मुझे भेजने के लिए।किताब पढ़ते समय मुझे "कुमार गंधर्व जी" की याद आई।आह ! कबीर का चिंतन और "पंडित कुमार गंधर्व जी" की गंभीर आवाज ,सच में एक अलग ही आध्यात्म की अनुभूति,जहाँ से आप वापस आना ना चाहो।एक तरफ जहाँ कबीर एक स्वतंत्र चिंतक, दूसरी तरफ पंडित जी बिना किसी घराने के बंधक।सच में अलौकिक मिलाप।कबीर के बारे में आप सब जानते ही होंगे।पंडित कुमार गंधर्व के बारे में भी बहुत लोग जानते होंगे।आज कुमार जी के बारे में कुछ लिख रही हूँ।मैंने पंडित जी का सिर्फ नाम सुना था 6 /7 साल पहले।तब मेरा भाई सरोद सीख (वाद्य यंत्र )सीख रहा था।कभी पंडित जी को सुना नही।भाई ने एक- आध बार इनके बारे में बताया और सुनने को कहा।पर उस वक़्त मैं किसी और दुनिया में मशगूल थी।मेरे कहने का मतलब इस तरह की संगीत की ना तो समझ थी ना ही सुनने की ईक्षा।भाई को भी कभी चिढ़ाती तो कभी लड़ती क्या ये दिन भर आ -आ बजाते रहते हो ?धीरे -धीरे चिढ़ते -चिड़ाते मुझे भी मालूम नही कब "हिंदुस्तानी क्लासिकल "अच्छा लगने लगा।हालाँकि अभी भी इसमें मेरा ज्ञान काफी कम है ,पर मैं इसे अब घंटों सुन सकती हूँ।वो क्या है ना ,दावा कड़वी होती है पर असर तो जरूर करती है।यही हाल है हिंदुस्तानी क्लासिकल का।दिमाग और मन का टॉनिक है ये।हाँ तो बात कुमार जी की,-कुमार जी का असली नाम " शिवपुत्रा सिद्दरामैया कोमकलीमठ" था।इनका जन्म 8 अप्रैल 1924 को कर्नाटक के बेलगाम डिस्ट्रिक में हुआ।गाँव का नाम सुलेभावी। 5 साल की उम्र से ही इन्होंने संगीत की शिक्षा शुरू की। 10साल  की उम्र में इन्होंने पहला स्टेज परफॉर्मेन्स दिया।कहते है इनकी गायकी से प्रभावित होकर इनको "गंधर्व "की उपाधी दी गई।तभी से इनको "पंडित कुमार गंधर्व "कहा जाने लगा।सन 1947 में इनको टीवी (क्षय ) का रोग हो गया।डॉक्टर ने इनको गाने की मनाही कर दी।लगभग 6 साल की बीमारी में ,बिस्तर पर पड़े- पड़े ,इन्होंने हर तरह के संगीत को महसूस किया।चाहे वो चिड़ियाँ की चहक की हो ,हवा के झोंके हो या गली में यूँही गाते फकीरो के गीत या फिर लोक गीतों की धुन।सबको सुनते और गुनगुनाते रहते।डॉक्टर की दावा और पहली पत्नी "भानुमति" की सेवा से कुमार जी ठीक तो हो गए ,पर उनका एक फेफड़ा खराब हो गया था।अपनी इस कमजोरी को उन्होंने बेहतरीन गायन शैली के ईज़ाद से एक ताकत का रूप दिया।इसी क्रम में वो "निर्गुण भजन" की तरफ झुके।कबीर को उन्होंने अपनी बुलंद और अनोखी शैली से एक आद्यात्मिक संगीत का रूप दिया।मुझे तो अब इनकी गाई सारे निर्गुण ,लोकगीत अच्छे लगते है।चाहे वो" सुनता है गुरु ज्ञानी ,गगन में आवाज़ हो रही है हो" ,या" फिर उड़ जायेगा हंस अकेला" हो।इनसब में प्रिय मुझे " झीनी -झीनी- झीनी  बीनी चादरिया ,काहे का ताना काहे की बरनी "और "युगन -युगन हम योगी" है।युगन -युगन की कुछ लाइनें -
युगन  युगन हम योगी
अवधूता युगन युगन हम योगी
आवे ना जाये ,मिटे ना कबहूं
सब्द अनाहत योगी ,अवधूता युगन युगन हम योगी।
सब ही ठौर जमात हमारी ,सब ही ठौर पर मेला
हम सब मांय ,सब है हम माय
हम है बहुरी अकेला ,अवधूता युगन युगन हम योगी।
मतलब - हे !अवधूत (अदृश्य परमात्मा ,ओमकार ,योगी ) हम तो युगों -युगों से योगी है। ना मै आया हूँ ना मै मिटा (नष्ट )हुआ हूँ ,मै कभी ना खत्म होने वाले ध्वनि या संगीत का आनंद ले रहा हूँ ,मै तो सदा से योगी हूँ। हर तरफ मेरे ही समुदाय के मेरे ही लोग है ,मै सबसे मिलता हूँ ,मै सबमे हूँ और सब मुझमे ,फिर भी मै अकेला हूँ।हे ! अजान्य शक्ति मै तो युगों -युगों से योगी हूँ।