कबीर को पढ़ना और समझना दोनों ही असीम अनुभूति है।कबीर को थोड़ी और गहराई से समझने का सौभाग्य मुझे मिला।बहुत- बहुत धन्यवाद "दीपक" कबीर रूपी खजाना मुझे भेजने के लिए।किताब पढ़ते समय मुझे "कुमार गंधर्व जी" की याद आई।आह ! कबीर का चिंतन और "पंडित कुमार गंधर्व जी" की गंभीर आवाज ,सच में एक अलग ही आध्यात्म की अनुभूति,जहाँ से आप वापस आना ना चाहो।एक तरफ जहाँ कबीर एक स्वतंत्र चिंतक, दूसरी तरफ पंडित जी बिना किसी घराने के बंधक।सच में अलौकिक मिलाप।कबीर के बारे में आप सब जानते ही होंगे।पंडित कुमार गंधर्व के बारे में भी बहुत लोग जानते होंगे।आज कुमार जी के बारे में कुछ लिख रही हूँ।मैंने पंडित जी का सिर्फ नाम सुना था 6 /7 साल पहले।तब मेरा भाई सरोद सीख (वाद्य यंत्र )सीख रहा था।कभी पंडित जी को सुना नही।भाई ने एक- आध बार इनके बारे में बताया और सुनने को कहा।पर उस वक़्त मैं किसी और दुनिया में मशगूल थी।मेरे कहने का मतलब इस तरह की संगीत की ना तो समझ थी ना ही सुनने की ईक्षा।भाई को भी कभी चिढ़ाती तो कभी लड़ती क्या ये दिन भर आ -आ बजाते रहते हो ?धीरे -धीरे चिढ़ते -चिड़ाते मुझे भी मालूम नही कब "हिंदुस्तानी क्लासिकल "अच्छा लगने लगा।हालाँकि अभी भी इसमें मेरा ज्ञान काफी कम है ,पर मैं इसे अब घंटों सुन सकती हूँ।वो क्या है ना ,दावा कड़वी होती है पर असर तो जरूर करती है।यही हाल है हिंदुस्तानी क्लासिकल का।दिमाग और मन का टॉनिक है ये।हाँ तो बात कुमार जी की,-कुमार जी का असली नाम " शिवपुत्रा सिद्दरामैया कोमकलीमठ" था।इनका जन्म 8 अप्रैल 1924 को कर्नाटक के बेलगाम डिस्ट्रिक में हुआ।गाँव का नाम सुलेभावी। 5 साल की उम्र से ही इन्होंने संगीत की शिक्षा शुरू की। 10साल की उम्र में इन्होंने पहला स्टेज परफॉर्मेन्स दिया।कहते है इनकी गायकी से प्रभावित होकर इनको "गंधर्व "की उपाधी दी गई।तभी से इनको "पंडित कुमार गंधर्व "कहा जाने लगा।सन 1947 में इनको टीवी (क्षय ) का रोग हो गया।डॉक्टर ने इनको गाने की मनाही कर दी।लगभग 6 साल की बीमारी में ,बिस्तर पर पड़े- पड़े ,इन्होंने हर तरह के संगीत को महसूस किया।चाहे वो चिड़ियाँ की चहक की हो ,हवा के झोंके हो या गली में यूँही गाते फकीरो के गीत या फिर लोक गीतों की धुन।सबको सुनते और गुनगुनाते रहते।डॉक्टर की दावा और पहली पत्नी "भानुमति" की सेवा से कुमार जी ठीक तो हो गए ,पर उनका एक फेफड़ा खराब हो गया था।अपनी इस कमजोरी को उन्होंने बेहतरीन गायन शैली के ईज़ाद से एक ताकत का रूप दिया।इसी क्रम में वो "निर्गुण भजन" की तरफ झुके।कबीर को उन्होंने अपनी बुलंद और अनोखी शैली से एक आद्यात्मिक संगीत का रूप दिया।मुझे तो अब इनकी गाई सारे निर्गुण ,लोकगीत अच्छे लगते है।चाहे वो" सुनता है गुरु ज्ञानी ,गगन में आवाज़ हो रही है हो" ,या" फिर उड़ जायेगा हंस अकेला" हो।इनसब में प्रिय मुझे " झीनी -झीनी- झीनी बीनी चादरिया ,काहे का ताना काहे की बरनी "और "युगन -युगन हम योगी" है।युगन -युगन की कुछ लाइनें -
युगन युगन हम योगी
अवधूता युगन युगन हम योगी
आवे ना जाये ,मिटे ना कबहूं
सब्द अनाहत योगी ,अवधूता युगन युगन हम योगी।
सब ही ठौर जमात हमारी ,सब ही ठौर पर मेला
हम सब मांय ,सब है हम माय
हम है बहुरी अकेला ,अवधूता युगन युगन हम योगी।
मतलब - हे !अवधूत (अदृश्य परमात्मा ,ओमकार ,योगी ) हम तो युगों -युगों से योगी है। ना मै आया हूँ ना मै मिटा (नष्ट )हुआ हूँ ,मै कभी ना खत्म होने वाले ध्वनि या संगीत का आनंद ले रहा हूँ ,मै तो सदा से योगी हूँ। हर तरफ मेरे ही समुदाय के मेरे ही लोग है ,मै सबसे मिलता हूँ ,मै सबमे हूँ और सब मुझमे ,फिर भी मै अकेला हूँ।हे ! अजान्य शक्ति मै तो युगों -युगों से योगी हूँ।
युगन युगन हम योगी
अवधूता युगन युगन हम योगी
आवे ना जाये ,मिटे ना कबहूं
सब्द अनाहत योगी ,अवधूता युगन युगन हम योगी।
सब ही ठौर जमात हमारी ,सब ही ठौर पर मेला
हम सब मांय ,सब है हम माय
हम है बहुरी अकेला ,अवधूता युगन युगन हम योगी।
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