हृषिकेश मुखर्जी ने 1960 में “अनुराधा” बनाई। सोफी बार्ट ने 2015 में “मैडम वोभरी” और शकुन बत्रा 2022 में गहराइयाँ ले कर आए हैं। इन तीनों फ़िल्मों का काल अलग-अलग है पर कहानी मुझे कही-कही एक सी उलझी लगी।
तीनों ही फ़िल्में अलग-अलग समय में एक स्त्री के अकेलापन, महत्वकांक्षा, भावनात्मक बिखराव, भटकाव और आत्मग्लानि के साथ डिप्रेशन को बखूबी दिखाती है।
हिंदी फ़िल्मों में फूहड़ आईटम सोंग देखे सकते है। बच्चे उसकी नक़ल कर सकते है पर 18 साल के ऊपर के बच्चे ऐसी फ़िल्म देख कर बिगड़ जाएँगे… हाय रे सभ्यता का चोला। क्या इस मोबाइल- इंटरनेट के युग में आज का युवा इन सब बातों से अनभिज्ञ है ?
ख़ैर, कहते है सिनेमा समाज का आईना होती है। ऐसे में आज के परिवेश में ठीक ही तो दिखाया गया है। अब एक-दो बार की मुलाक़ातों वालों प्यार में आप क्या उम्मीद करते है ? वह तो अट्रैक्शन और किसी दबी भावना का उफान ही होगा ना। रही बात कपड़ों की तो जिस देश में हिजाब पर बवाल चल रहा हो वहाँ दीपिका या अनन्या की कपड़ों की क्या ही बात पचती ? जबकि महानगरों में तो क्या, छोटे शहरों में भी हम कम ज़्यादा ऐसे ड्रेस सेंस देख ही रहे हैं।
पता नही आपने गौर किया या नही, फ़िल्म के निर्देश-राइटर ने इसका क्लाइमेक्स जाने क्या सोच कर ऐसा लिखा - फ़िल्म का नायक अपनी मंगेतर को एक बार बोट से धक्का देने और आगे बढ़ जाने का सोचता है। ठीक उसी तरह की घटना उनके साथ घटती है।
शायद उनके दिमाग़ में कर्म का सिद्धांत घुम रहा होगा।
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