एक किताब जिसे सालों पहले पढ़ी तो असमंजस में रही कि यह कैसा नायक है? यह कैसा प्रेम है? कैसी कहानी है यह…यह तो देह के ज़रिए देह को संतुष्टि करने वाली बात है। यहाँ मन की तो बात ही नही।
उस वक्त किताब के कुछ हिस्से ठीक नही लगे थे। ऐसे में उन दिनों किताब पर जो राय दी थी, उसमें नायक के प्रति रोष ज़्यादा था। प्रेम और दया कम महसूस हुई थी। इन दिनों मेमोरी में इसे देख फिर से इसके कुछ पन्ने पलटने का मन हुआ।
किताब है, “लव इन द टाइम ऑफ कॉलरा”
इस किताब का नायक शारीरिक रूप से कुरूप और स्टोकर लगता है। उसके जीवन में प्यार कुछ ऐसे आता है कि बस वह प्रेम ही हो जाता है। वह पूरी तरह प्रेम में डूबा होता है कि एक दिन जबाब पाता है, “उसकी प्रेमिका के मन में अब उसके लिए प्रेम नही बचा।” उसकी हालत कॉलरा के मरीज़ों जैसी हो जाती और फिर शुरू होता है इंतज़ार का एक अजीब तरीक़ा।
अपने लम्बे जीवन काल में वह 622 औरतों से सम्बंध बनता है। कई वन नाइट स्टैंड होते फिर भी उसके मन को सुकून नही मिलता। नायक के अनुसार यह देह को देह की ज़रूरत भर है। उसके मन का सम्बंध तो सिर्फ़ नायिका तक ही सिमटा है…वह अब भी उसके इंतज़ार में है। प्रेम में इंतज़ार ही प्रेमी का प्रेम है।
ख़ैर, सालों पहले भी मुझे इंतज़ार का यह तरीक़ा ना रुचा, ना अब। हाँ, इस बार यह ज़रूर हुआ कि मैं नायक से उस क़दर रोष नही कर पाई जैसी पहली बार हुआ था। शायद इस तरह के प्रेम को समझने की अब भी बुद्धि विकसित नही हुई या फिर इस किताब को एक बार फिर उम्र के किसी और पड़ाव में पढ़ना होगा।
किसी के इंतज़ार में इतना सिमट जाना कि देह, रोग और प्रेम में अंतर ही ना हो…क्या ऐसा इंतज़ार हो सकता है भला? क्या इतना इंतज़ार हो सकता है? क्या तब तक प्रेम बचा रह सकता है? क्या इंतज़ार प्रेम को धीरे-धीरे मार नही देता?
प्रेम को समझना आसान को जटिल बनाना है।
इस बार इसे पढ़ते हुए कई बार लगा कि लिखते वक्त लेखक ने इस उपन्यास में देह को प्रेम से अलग रखा है। तभी तो अविवाहित नायक सैकड़ों स्त्रियों से सम्बंध बनाने के बावजूद जीवन के 91वें वर्ष में जब नायिका से मिलता है तो खुद को वर्जिन कहता है। किताब पढ़ते हुए आप पाएँगे कि इन तमाम संबंधो के बीच भी नायक का मन हमेशा नायिका के लिए व्याकुल-एकनिष्ट रहा है।
इंतज़ार के इन पलों को काटने के लिए उसका तरीक़ा निर्मम और दैहिक ज़रूर रहा पर इन्हें पढ़ते वक्त मुझे, “अहमद फ़राज़” अचानक याद आए। वाक़या है, नायक ने पहली बार नायिका के “हाँ” कहने पर गुलाब की सैंकड़ों पंखुड़ियाँ खा ली थी। कहीं वहीं गुलाब विरह के दिनों में उसके शरीर रूपी किताब में सुख तो नही रहें थे…उसके सूखे नुकीले छोटे-छोटे काँटे जब-तब उसे चुभते रहते… उन पंखुड़ियों की लालिमा उसके खून के साथ हृदय तक दौड़ रही होंगी… मन में उम्मीद की सुगंध बिखेर रही होगी…51 वर्ष, 9 महीने और चार दिन के एकतरफ़ा प्रेम में गुलाब, पंखुड़ी दर पंखुड़ी अलग होती गई होगी कि, वह आएगी या नही…उम्र की आख़िरी पड़ाव और आख़िरी पंखुड़ी पर अटका मन, अहमद फ़राज़ से कह उठा होगा- तुम तो शायर हो फ़राज़, तुम्हीं लिख दो ना मेरे इंतज़ार के ये साल मेरे महबूब के नाम…कि उम्र के 91वें बरस, अब ना मिले तो शायद ख़्वाबों में मिलें…उसके प्रेम में खाए फूल मेरी कब्र की किताब पर मिले…कि,
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती
ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें
तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इंसाँ हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिले
और यह आख़िरी शेर तो जैसे फ़राज़ ने इनके अंतिम भेंट के लिए ही लिखी है कि, जब दो वृद्ध जवानी की उन्माद से इतर, झूर्रियों और झूलते-लटकते हाड़-मास के साथ आलिंगनवध थे…नदी, नाव और एक दूसरे में सिमटे दो लोग अपने पुराने दिनों को याद करते है…निर्वस्त्र नायिका अपने देह को ढाँपते हुए कहती है- मुझे मत देखो, अपनी आँखें बंद कर लो…
कभी उन्माद से भरा नायक आज संयम और धीरज के साथ कहता है- पर मेरा प्रेम ज़रा भी कम ना हुआ…
अब न वो मैं हूँ न तू है न वो माज़ी है "फ़राज़"
जैसे दो शख़्स तमन्ना के सराबों में मिलें