Thursday, 27 October 2016

KHATTI-MITHI: भक्ति -प्रेम का मिलन त्यौहार !!!

KHATTI-MITHI: भक्ति -प्रेम का मिलन त्यौहार !!!: हम जहाँ से है वहाँ दुर्गा पूजा ,दिवाली ,छठ पूजा और होली हमारा वैलेंटाइन डे होता है।माने वहाँ तब तो ऐसन कोई सुबिधा नही थी ,जहाँ प्रेमी युगल ...

भक्ति -प्रेम का मिलन त्यौहार !!!

हम जहाँ से है वहाँ दुर्गा पूजा ,दिवाली ,छठ पूजा और होली हमारा वैलेंटाइन डे होता है।माने वहाँ तब तो ऐसन कोई सुबिधा नही थी ,जहाँ प्रेमी युगल मिल के बतिया सके।चाय -कॉफी पी सके।बस दुरे से देख लिए ,मुस्कुरा लिए ,लड़की के घर के आस -पास साइकिल नाचा लिए हो गए खुश।इहाँ कहाँ कॉफी हॉउस चाहे पार्क।हाँ चाय की गुमटी कदम कदम पर मिल जाएगी।जहाँ दुनिया भर की पॉलिटिक्स होगी भाई।लेकिन का फायदा उ पॉलिटिक्स का जो ,नीतीशवा एगो पार्को ना बनवा पाया बसंतपुर में।अब ऐसे में माता रानी की ही कृपा होती थी/है।जैसे बड़े शहरों में वैलेंटाइन डे के पहले पचास गो डे होता है -चॉकलेट डे ,खेलवना दे (टेडी डे ),गुलाब दे (रोज़ डे ) औरि ये दे वो दे ,डे।वैसे ही दुर्गा पूजा के नाइन डे हमारे यहाँ।ना कुछ दे ना ले बस धार्मिक प्रेम होता।माने इंतज़ार होता, कब से नवरातन के दिया जरावे आहिहे हमार जान हो ? अच्छा ,अभी तक जान के मालूम भी नइखे कि उ केतना के जान हई।बस बेचारी जान ये शरीर से वो शरीर घूम रहल बारिन।माने कितनो की जान बनकर।जब लड़का सब में मार होता है ,तब मालूम होता है -अरे बाप रे ,पुजवा (पूजा )के चक्कर में केतना के माथा फुटल।खैर नवरातन के शुरआत से लडकियां मईया जी के मंदिर में दिया जलाने जाती है।ये कार्यक्रम 9 दिन चलता है।रोज शाम को सज-धज के ,हाथ में फूलडाली (जिसमे पूजा का सारा सामान रखा होता है )लेकर मंदिर की ओर रंगबिरंगी लड़कियों का झुण्ड चल पड़ता।उस वक़्त माहौल भक्ति- प्रेम का होता।कितना सरल और सस्ता प्रेम न कुछ दो ना लो।साला ये वैलेंटाइन डे -इसके चक्कर में हम गरीब प्रेमी कहाँ जाये ? एगो कार्डवो ख़रीदे तो दे नही पाते ,मन मसोस के रह जाते।कार्ड के आगे पीछे सारे दर्द भरे शायरी चिपका दिए ,पर का फायदा जो इ दरद पंहुचा ही नही पाया।दूना दुःख हुआ।पइसो बर्बाद और कार्ड देख के मन में औरि बौराने लगता।ना देम त वैलेंटाइन के का होई ? वो तो माता रानी की जय हो ,जो इनकी कृपा से अपनी रानी को 9 दिन देख पाते है।बिना किसी डर के,बिना रोक टोक के।एक दो बोल -बाल मार कर खुश हो लेते है।वैसे मेरे साथ भी इससे एक किस्सा जुड़ा हुआ है।मै भी मोहल्ले की लड़कियों के साथ दीया बारने जाने लगी।पहले जब छोटी थी ,तो ये सब बहुत अच्छा लगता था।बाजार की चमक धमक ,मंदिर में दीया जलना।पर जब से पटना पढ़ने गई ,तब से फूलडाली लेकर जाने में शर्म आने लगी।माँ से कहती की ईस बार रहने देते है।माँ मेरी अत्यधिक धर्मिक -कहती अरे देवी माँ के मंदिर में दीया नही जलेगा?जैसे मानो मेरे एक दीया नही जलाने से मंदिर अंधकारमय हो जायेगा।जाओ -रेखा ,पप्पी ,सीमा  इंतज़ार कर रही है।एक तो और समस्या थी मेरे साथ।गर्मी के दिन हो तो दो बार नाहा भी लो ,एक तो हल्की ठंढ  दूसरा शाम का वक़्त फिर से नहाओ, फिर जाओ उफ्फ! ऐसे में मेरा भाई हमेशा की तरह मेरा कवच,मेरा तारन हार बनके आया।बोला- माँ दीया जलाने जाना जरुरी है क्या ? माँ पूछी क्यों ? भाई बोला -वहाँ दुर्गा स्थान पर लफुए लड़को का झुण्ड घूमता रहता है।वहाँ पूजा थोड़े होता है।वैसे तो मेरा भाई बहुत शरीफ है ,पर क्या है ना ,है तो वो भी लड़का ही।घूम रहा होगा वो भी या देखा होगा कुछ ऐसा।अब तो बात श्रद्धा और इज़्ज़त पर आ गई।इज़्ज़त जीत गई और माँ ने कहा कोई बात नही ,मै किसी और को बोल दूँगी मेरे बदले दीया जला देगी।खैर तो इस तरह हमरा 9 दिन का आस्था पूर्वक वैलेंटाइन डे चलता रहता है।फिर बात आती है दिवाली की।दिवाली से घर की साफ़ -सफाई के साथ छठ पूजा की तैयारी शुरू हो जाती है।ईसी सिलसिले में लड़कियों को कई बार खरीदारी के लिए बाजार जाना होता है।बाजार में भी चहल -पहल हो जाती है ,और प्रेमियो की भी।अब तो कपडे खरीदे के लिये किसी विशेष दिन का इंतज़ार नही होता पर करीब 10 /15 साल पहले फिक्स होता।होली ,दुर्गा पूजा ,दिवाली या छठपूजा।हाँ स्कूल ड्रेस और जन्मदिन का कपड़ा अपवाद होता।सभी लड़के ,लड़कियाँ ,महिलायें त्योहारो पर खूब सजती।नए कपड़े पर इठलाती।उस वक़्त फेसबुक ,व्हाटअप तो था नही ,पर कपड़े तो दिखने थे ,मेकअप तो दिखाना था।बस फिर क्या ? एक घर से दूसरे घर घूमते रहो।सबसे मिलना भी हो जाता और खुद का प्रदर्शन भी।मेरे जैसी आलसी प्राणी के लिए तो फेसबुक ,इंस्टाग्राम वरदान साबित हुआ।अरे नही दो -चार बार इज़्ज़त मार भी साबित हुआ -जब ससुराल के कुछ अनजान देवर लोग ,मेरी सासु माँ को कहते -बड़की माई आज भाभी के फेसबुक पे देखनी ह।स्कर्ट पहिन के घुमत रहली ह।देखी ना फोटो भी लोड कर लेनी।अब क्या बोलू ? कमीनो तुमने देखा चलो ठीक।देख के डाउनलोड करके प्रचार करने में लग गए।वो तो भला हो सासू माँ का जो इन सब बातो पर ध्यान नही देती।बस मुझे प्यार से कहा तनी देख के फोटो लगावल करअ ।खैर कितना भोलापन होता था उस वक़्त।नए कपडे नही ,मानो नए "पर" होते।सब उड़ रहे होते प्रेम ,ख़ुशी ,उल्लास से।जिन भाभियो या चाचियों के पति परमेश्वर बाहर कमाने गए होते उनके लिए यही त्यौहार उनका तीज(करवा चौथ )होता।माँ लोगो के लिए यही त्यौहार उनका जितिया (बच्चे के लिए किया जाने वाला फास्टिंग )और बहनो के लिए राखी।वही छिटपुटिये या कभी -कभार सीरियस प्रेमी युगल का वैलेंटाइन।सभी प्रेम पूर्वक त्यौहार मानते।भगवान् से प्रार्थना है कि ,सबके दिलो में प्रेम के दीये जलते रहे ,माता रानी की कृपा बानी रहे ,छठी मईया अपनी ओर खिंचती रहे।घर वाले ये कहना कभी ना भूले की छठ बा "ऐसो त आ जा"।सबको "दिवाली" की "छठ पूजा" की भक्ति -प्रेम में डूबी शुभकामनाये !! 

Tuesday, 18 October 2016

KHATTI-MITHI: प्रेम और प्रीतम !!!!

KHATTI-MITHI: प्रेम और प्रीतम !!!!: बहस बहस बहस ! हर जगह,हर बार बस बहस ही बहस।कभी देश की सुरक्षा के नाम पर ,कभी पॉलिटिक्स को लेकर ,कभी फिल्मों को लेकर,कभी बुर्खा तो कभी तलाक...

प्रेम और प्रीतम !!!!

बहस बहस बहस !
हर जगह,हर बार बस बहस ही बहस।कभी देश की सुरक्षा के नाम पर ,कभी पॉलिटिक्स को लेकर ,कभी फिल्मों को लेकर,कभी बुर्खा तो कभी तलाक के नाम पर।हँसी तो मुझे राम मंदिर की जगह राम म्यूजियम बनने की बात पर आई।वो दिन दूर नही भईया जब लोग चिड़ियाघर और  गाँधी म्यूज़ियम की जगह ,राम जी या अल्लाह मियाँ  के चिड़ियाघर या म्यूज़ियम जायेंगे।भाई राम जी के चिड़ियाघर से मेरा तात्पर्य बिल्कुल हनुमान जी से नही था।वो तो मेरे फेवरेट भगवान् है।हाँ बाली -सुग्रीव ,जटायु आदि के बारे में कुछ कह नही सकती।बुरा ना मानो दिवाली है :) अमृता प्रीतम जी की एक कविता आज के हालातों के नाम। 
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है 
सड़कें - बेतुकी दलीलों सी…
और गलियां इस तरह
जैसे एक बात को कोई इधर घसीटता
कोई उधर
हर मकान एक मुट्ठी सा भिंचा हुआ 
दीवारें-किचकिचाती सी 
और नालियां, ज्यों मूंह से झाग बहती है
यह बहस जाने सूरज से शुरू हुई थी
जो उसे देख कर यह और गरमाती
और हर द्वार के मूंह से
फिर साईकिलों और स्कूटरों के पहिये
गालियों की तरह निकलते
और घंटियां हार्न एक दूसरे पर झपटते
जो भी बच्चा इस शहर में जनमता
पूछता कि किस बात पर यह बहस हो रही?
फिर उसका प्रश्न ही एक बहस बनता
बहस से निकलता, बहस में मिलता…
शंख घंटों के सांस सूखते
रात आती, फिर टपकती और चली जाती
पर नींद में भी बहस खतम न होती
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है….
अब बात अमृता जी की।कई बार अमृता जी के बारे में लिखने का सोचा ,पर हर बार ही रह जाता था ।मुझे अमृता जी की जीवनी काफी दिलचस्प लगती है।एक महिला जिसकी प्रेम कहानी को समझ पाना ,जैसे इंद्रधनुष को देखना।अलग -अलग रंग ,पर आपकी पहुँच और समझ से परे।अमृता जी का जन्म पंजाब के गुजरांवाला में हुआ था।बटवारे के बाद वो लाहौर से भारत आ गई थी।16 साल की उम्र में अमृता जी की शादी प्रीतम सिंह से हुई ,और वही से अमृता कौर "अमृता प्रीतम" बन गई।कुछ बरसो के बाद अमृता अपने पति से अलग हो गई।इन्होंने ने कभी अपने पति से तलाक नही ली।हो सकता हो तलाक या शादी  इनके लिए किसी सर्टिफिकेट से ज्यादा कुछ मायने ना रखते हो।कुछ  समय बाद इनकी प्रेम कहानी गीतकार "साहिर लुधियानवी"  जी के साथ शुरू हुई।प्रेम का आलम ये कि ,इनकी कविताओं में साहिर तो वही साहिर के गीतों में अमृता।प्रेम के बावजूद कही विश्वास की कमी की वजह से ये दोनों एक नही हो पाए।फिर अमृता जी के जीवन में ईमरोज का आना ,मानो इनके जीवन में रंगों का भर जाना।ईमरोज एक पेंटर है और वो अमृता जी कविताओ के लिए स्केच बनाया करते थे।अमृता और ईमरोज को साथ रहने के लिए  शादी की मुहर की जरुरत नही थी।वे दोनों साथ रहे पर कभी शादी नही की।ईमरोज अमृता के साथ अंत तक रहे।अमृता 31 ऑक्टबर 2005 को हमें अपनी कविताओं के साथ छोड़ गई। कभी -कभी मैं सोचती हूँ ,क्या अमृता को भी समाज का डर लगा होगा ? क्या उनको भी चरितहीन का दर्जा दिया गया होगा ?बावजूद इसके उन्होंने अपने जीवन को प्रेम से सींचा ,प्रेम किया और प्रेम पाया।विचार स्वछन्द ,जीवन स्वछन्द ,शरीर स्वछन्द ,लेखनी स्वछन्द।सच में अमृता आपकी लेखनी के साथ आपका जीवन भी साहस का परिचय देता है।क्या खूब लिखा है आपने - "परछाई पकड़ने वालो ,छाती में जलती आग की कोई परछाई नही होती "आपकी कई कविताये पसंद है मुझे ,उनमे से कुछ  -
*मेरी सेज हाजिर है 
पर जूते और कमीज की तरह 
तू अपना बदन भी उतार दे 
उधर मूढ़े पर रख दे 
कोई खास बात नहीं 
बस अपने अपने देश का रिवाज है……
* मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
शायद तेरे कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे केनवास पर उतरुँगी
या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं

या सूरज की लौ बन कर
तेरे रंगो में घुलती रहूँगी
या रंगो की बाँहों में बैठ कर
तेरे केनवास पर बिछ जाऊँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रुर मिलूँगी

या फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें
तेरे बदन पर मलूँगी
और एक शीतल अहसास बन कर
तेरे सीने से लगूँगी

मैं और तो कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म ख़त्म होता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है

पर यादों के धागे
कायनात के लम्हें की तरह होते हैं
मैं उन लम्हों को चुनूँगी
उन धागों को समेट लूंगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं

मैं तुझे फिर मिलूँगी!!