Monday 21 November 2016

दुबिधा !!!

दोपहर के समय ऐसे ही फेसबुक चेक कर रही थी ,तभी देखा "हिमांशु जी" ने एक भोजपुरी फिल्म को लाइक किया था।कुछ करने को था नही ,नींद भी आ रही थी, पर पता नही कैसे ऊंगलिया मूवी के लिंक तक गई और फिल्म चल पड़ी।सोचा जब चल ही गई है तो थोड़ा देखती हूँ ,अच्छा नही लगा तो सो जाऊँगी।अमूमन आजकल की भोजपुरी फिल्मे ऐसी ही होती है कि,नींद आ जाये।फिल्म का नाम "नया पता" फिल्म में थोड़ी देर के बाद ही जब "याद पिया की आये" गाना बजता है ,मैं उठ के बैठ जाती हूँ।नींद आँखों से गायब।मै सोच में पड़ गई ,भोजपुरी फिल्म और क्लासिकल सॉन्ग व्हाट अ सरप्राइज।अब तो पूरी मूवी देखनी पड़ेगी।सच मानिये इस मूवी का एक बेस्ट पार्ट इसका संगीत भी है।चाहे कबीर जी की "माया महा ठगनी "हो या भिखारी ठाकुर जी की "रे सजनी रे सजनी " आह !सच में अद्भुत।यूँ तो फिल्म बिहार की सबसे प्रमुख समस्या "पलायन " पर आधारित है ,पर मुझे इसमें कई और समस्याओं का ताना -बाना दिखा।मसलन कैसे कोई परदेसी बन जाता है ,गाँव लौटने के बाद भी परदेसी ही रहता है ,गाँव में कुछ अच्छा करने का लोग कुछ और ही मतलब निकालने लगते है और सबसे बड़ी बात आज भी शिक्षा का स्तर बिहार में एक "खिचड़ी "से ज्यादा कुछ नही।सँयोग देखिये आज ही हमलोग का ग्रीनकार्ड अप्लाई हुआ और आज ही फिल्म देख कर गाँव वापस जाने की ईक्षा प्रबल हो गई।पता नही ये सिलसिला कब तक चलता रहेगा ? फिल्म देखा गाँव जाना है ,सारदा सिन्हा जी के छठ के गीतों को सुनकर गाँव जाना है, किसी का शादी -ब्याह है गाँव जाना है ,पर हाय रे गाँव तुमने कही का नही छोड़ा।ना तो अपने पास बुलाने की ईतनी हिम्मत देते हो कि ,सब छोड़ के आ जाए ना ही हमारे ख्यालों से जाते हो जो हम चैन से रह सके।वैसे क्या रखा है तुम्हारे पास ? ना तो अब पुराने संगी -साथी रहे ना नाते -रिस्तेदार।ना ही वो हरियाली ना ही रोजगार।महँगाई के साथ हमारी जरूरते भी तो बढ़ी है ,पर तुम हो कि वही अटके पड़े हो।परदेसी ना बने तो क्या करे ? अच्छी शिक्षा ,अच्छी नौकरी और अच्छे जीवन की तलाश में हम इस शहर से उस शहर भटक रहे है।कोई पूछे तो अपना पता बिहार बताते है ,पर जब वही बिहार आते है तो, सब पूछते है वापस कब जाना है ? कितने  दिनों के लिए आई हो ? ऐसा मालूम होता है मेरा असली पता कभी ,पटना , कभी दिल्ली या कभी अमेरिका हो जाता है।शादी के बाद तो और दुर्गति है।ना घर के ना घाट के वाली हालत।मायके वाले ये कहते है कि ससुराल ही तुम्हारा घर है ,ससुराल वापस आओ तो ये पूछा जाता है -घरे से कब आयलु ह? खैर हद तो तब होती है जब मेरा संबोधन अमेरिका वाली पतोह कह कर होता है।मेरी सासु माँ को मालूम है ,ये शब्द मुझे बिल्कुल नही पसंद इसलिए जैसे कोई कहता है-इहे हई अमेरिका वाली तो वो तुरंत कहती है -इहे हई हमार तपस्या।कई बार ऐसा लगता है छोड़ो माया- मोह इंडिया वापस चलते है ,फिर दिल को झूठी तसल्ली देते है -वहाँ जाके भी तो दिल्ली ,पुणे या बैंगलोर रहो तो बात वही हुई यहाँ रहो या वहाँ।ऐसा लगता है धीरे -धीरे सुबिधाओं के गुलाम बनते जा रहे है।हाँ हमारा दुःख दिहाड़ी मजदुर से थोड़ा कम है।पर है तो हम भी "मजदुर"।हमारे दुःख की आँच थोड़ा कम होती है- हम ऐसी की हवा खाते है ,पति -पत्नी साथ रहते है ,घूमना -फिरना ,दोस्त -पार्टी सब चलते रहता है।साथ ही अब तो वीडियो कॉल जब से होने लगा है ,घरवालों को हम और हमें वो थोड़ा कम याद आते है।हम भी अपने स्थाई पता की तलाश में भटक रहे है।जहाँ ना गाँव की याद हो ना शहर का शोर।जाने कहाँ मिलेगी ? जाने कहाँ होगा मेरा पता ?

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