Sunday 12 February 2017

चिरकुट प्रेम !!!

रोज़ डे के गुजरने के बाद मुझे गुलाबों की एक कहानी याद आई।बात तब की है जब मैं दसवीं पास करने के बाद पटना पढ़ने गई थी। हुआ यूँ कि कॉलेज के हॉस्टल में जगह ना मिलने के कारण, मुझे मेरी माँ के एक ऑफिस स्टाफ के यहाँ रहना पड़ा।वैसे तो बाहर कई प्राइवेट हॉस्टल थे ,पर मैं और माँ दोनों ही डर रहे थे। मैं पहली बार घर से दूर अकेली रहने आई थी। उस वक़्त मेरे घर पर फ़ोन भी नही था। माँ को लगा मेरा हाल -चाल उसे अंकल द्वारा मिलते रहेगा साथ ही ,मेरा उनके परिवार के साथ मन भी लग जायेगा।प्लस पॉइंट ये की गार्जियन के साथ मुझे घर का बना खाना भी मिल जायेगा।तो तय हुआ हर महीने माँ उनको मेरे खर्च के अलावा एक्स्ट्रा पैसे भेजेगी।रहने खाने के तौर पर।माने एक तरह से पी जी कह ले।अंकल - ऑन्टी तो मना कर रहे थे ,पर माँ नही मानी।आखिर कर उनलोगों को माँ की बात माननी पड़ी।वैसे उस परिवार से मुझे घर जैसा ही प्रेम मिला। उन अंकल की बेटियां मेरी दोस्त बन गई।आंटी दिन भर अपने बच्चों के साथ मेरे पीछे भी लगी रहती ,पढ़ लो पढ़ लो कहती हुई।उनकी दो बेटी है। बड़ी बेटी मेरे क्लास में ही थी।लम्बाई में थोड़ी बड़ी दिखने की वजह से मैं उन्हें दीदी कहती थी। उनके कुछ दोस्त उसी मोहल्ले के थे ,जो मुझसे बात करना चाहते।पर मैं शुरू से थोड़ी अजीब रही हूँ।मुझे ये सब थोड़ा लेट समझ आता।आप सब समझ रहे है ना -माने प्यार ,मोहब्बत,टाइम पास। अब तो खैर मैं एक्सपर्ट हो गई हूँ।बाकि प्रेम की देवी की मुझ पर असीम कृपा रही है।मज़ाल है कि ,जिसपे भी मेरा क्रश -क्रूस हुआ हो ,वो मुझे पसंद ना करे।पर सच कहूँ दोस्तों ,वैलेंटाइन देवता की कसम कभी इस बात का घमंड नही किया मैंने। खैर विषय से ना भटकते हुए मुद्दे पर आती हूँ।दीदी का एक दोस्त रोज मुझे आते -जाते दिख जाता।बात करने की कोशिस करता ,पर मेरा धांसू आटिट्यूड आड़े आ जाता।फिर उसने दीदी से बात की।दीदी ने मुझसे कहा कितनी बार कह चुकी हूँ तपस्या ,वो तुमको पसंद करता है। एक बार मिल कर बात कर लोगी तो क्या होगा ?मिल कर मना कर देना। अब मैं ठहरी बसंतपुर की लड़की।ये सब हमलोगों के लिए पाप था ,बुरा काम था तब। फिर भी बार -बार कहने पर एक दिन मैंने मिलने के लिए हाँ कह दिया।मैंने दीदी को कहा मैं कही जाऊंगी नही।बोलो कॉलेज के बाहर ही मिल ले।अगले दिन कॉलेज से बाहर जैसे मैं आई वो लड़का बाहर खड़ा था।मैं सोच रही थी कि ,बात करू या ना इतने में वो पास आ गया। हाल -चाल के बाद उसने एक प्लास्टिक का गुलाब साथ में आर्चीज़ का कार्ड दिखाया। फिर हँसते हुए बोला -प्लास्टिक का रोज़ इसलिए कि तुम फेको तो टूटे ना या फिर रखो तो हमेशा तुम्हारे साथ रहे।मुझे मालूम है फूल तुम्हे बहुत पसंद है।मैं उन चीज़ों को लिए बिना सोच रही थी कि ,क्या बोलू ? तभी उसने कोई शेर बोलना शरू किया।भगवान ये लड़को को इतने डायलॉग ,शेरो -शायरी कहाँ से आती है ? उन दिनों तो मेरा शेरो -शायरी से दूर -दूर तक कोई लेना -देना नही था। मैं ईधर -उधर देख रही थी की ,साइकिल पर एक क्लास का लड़का आता दिखाई दिया।उसका घर पर भी आना -जाना था।उसे देख कर मुझे कुछ समझ में नही आया।मुझे लगा इसे मालूम हुआ तो बड़ी बदनामी होगी।साला नाम कभी हुआ नही ,बदनामी की चिंता ज्यादा रहती है।खैर वो शेर पढ़ने में मशगूल रहा।मैंने फाटक से फ्रैक्शन ऑफ़ मिनट में फ्लावर और कार्ड उसके हाथ से लगभग छीनते हुए ,अपने प्लास्टिक की प्रक्टिकल फाइल में रख लिया। वो कुछ समझता ,तबतक वो साइकिल वाला लड़का आके मुझसे पूछता है -तपस्या क्या कर रही हो? ये कौन है ?उसको लगा ये लड़का मुझे छेड़ रहा है। मैंने कहा ये दीदी का दोस्त है।साइकिल वाला लड़का मुझे घर जाने को बोल कर निकल गया।मैं भी बिना कुछ बोले घर की और चल पड़ी।पीछे से शायर लड़का दौड़ता हुआ आया ,बोला फिर कब मिलोगी तपस्या ? मैंने कहा कभी नही।घर आकर मैंने दीदी को सारी बात बताई।वो हँस रही थी।तबतक साइकिल वाले लड़के ने घर तक ख़बर पहुँचा दी थी।आज तो वो बड़ा आदमी बन गया है ,पर तभी मैंने और दीदी ने उसे खूब गालियां दी थी।उसके बाद शायर लड़के के दीदी को बार -बार कहने पर भी ,दुबारा मैं उससे कभी नही मिली।दीदी ने भी कहना बंद कर दिया।वो मुझे देखता रहा और हर बार मुझे अपने फ्लावर और कार्ड छीनने पर शर्म आती रही।एक साल बाद फाइनल इम्तहान हुआ और मैं वापस बसंतपुर आ गई। अब तो सोच के हँसी आती है।उस वक़्त आर्चीज़ कार्ड पर प्रेम छोटे -छोटे बच्चो के रूप में दिखाया जाता था।जैसे पुराने फिल्मो में फूलों का टकराना प्रेम होता हा-हा -हा। सच में ऐसा ही होता है चिरकुट प्रेम !

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