Monday, 18 June 2018

चम्पारण भितिहारवा आश्रम!!!!

आज आपसबको चम्पारण लेकर चलती हूँ।
आज की यात्रा शुरू करें, इससे पहले कुछ ऐसी बातें जो हमारी आज़ादी से जुड़ी है।

आज़ादी की चाह किसे नही होती ? एक सोने के पिंजड़े में क़ैद पक्षी भी आज़ाद होना चाहता है, जबकि उसे उस पिंजरे के अंदर सब कुछ मिल रहा होता है। फिर हमारे पूर्वज तो इंसान ठहरे भला। भले शारीरिक-आर्थिक कमज़ोर ही सही पर उनकी चेतना तो काम कर रही थी।
ऐसे में अंग्रेजों के ज़ुल्म  कोई कब तक सहता? क्रांति की शुरुआत तो बहुत पहले 1857 में हीं हो गई थी, पर इसके बाद अबतक कोई ऐसा बड़ा आंदोलन नही हुआ था जिससे गोरों की नीव हिल जाए। लोगों में ये विश्वाश आ पाए कि हम मुक्त हो सकतें है।

साल 1894,”मोहन दास करमचंद गांधी “ अफ़्रीका में रंगभेद मिटाने में लगे हुए थे। वहाँ सफलता मिलने के बाद उन्हें अफ़्रीका छोड़ना पड़ा। वे भारत वापस आ गए।

इधर भारत का एक राज्य, ख़ासकर उस राज्य का एक भाग “चंपारण “ अंगरेजो के ज़ुल्म से कंकाल हुआ जा रहा था।चंपारण की ज़मीन पर किसान लाल रक्त से नीला फल उगा रहे थे ।
तीनकाठिया प्रथा के तहत “नील की खेती” ज़बरन किसानो पर थोप दी गई थी। साथ ही पचासन तरह के टैक्स देना उनकी मजबूरी हो गई थी। ऐसे में नील का नीला ज़हर पीना ही उनका जीवन बन गया था। श्याद यही से ज़हर को नीला रंग मिला होगा ।

ख़ैर, ऐसे में चंपारण की धरती को एक चाणक्य मिला। वैसे तो इनका नाम इतिहास के पन्नो में बस आ भर जाता है ,लेकिन अगर ये ना होते तो गांधी को शायद महात्मा बनने के लिए और भटकना होता ।
राजेंद्र प्रसाद , मौलाना मझरुल हक़, बृजकिशोर प्रसाद को एक ऐसे आंदोलन से जुड़ने का मौक़ा नही मिलता  जिसमें पहली बार अहिंसा हथियार बनने जा रही थी।

ये चाणक्य थे “राजकुमार शुक्ल” मैंने इन्हें चाणक्य इसलिए कहा क्योंकि ये चाणक्य की तरह ही तो थे। भले स्वभाव से भोले पर एक बार सपथ ले ली कि, अंगरेजो से अपने फ़सल का, अपने जले हुए घर का , अपने लोगों का , अपनी मिट्टी का बदला लूँगा तो लूँगा। चाहे उसके लिए जो करना पड़े।

राजकुमार शुक्ल, गांधी के पीछे लग कर उन्हें चंपराण बुला ही लाए। यहाँ के लोगों पर ज़ुल्म देख कर गांधी यही रुकने का फ़ैसला कर बैठे।
गांधी ने पश्चमी चंपारण के  “भितिहारवा “  में अपना आश्रम बनाया। कस्तूरबा को भी कुछ दिनो बाद यहाँ बुला लिया।जब तक चंपरण से नील की खेती बंद नही हुई , गांधी यहीं रहे और आज ये जगह “सत्याग्रह की जन्मभूमि” बनी ।
गांधी के आश्रम का नाम “भितिहारवा आश्रम” पड़ गया।

तो अब इतिहास से निकल कर वर्तमान में आती हूँ। आज इसी भितिहारवा आश्रम आपलोगो को लेकर चलती हूँ। सरकार द्वारा आश्रम की रोगनपट्टी हुई है। देखरेख को कुछ कर्मचारी भी है। हाँ , लोगों तक इसकी पहुँच आज भी कम हीं है तभी तो पर्यटन के नाम पर सिर्फ़ हमलोग और एक और परिवार पहुँचा था यहाँ।

कैसे पहुँचे :- भितिहारवा गांधी आश्रम बेतिया से कुछ 50/55 किलोमीटर तथा नरकटियागंज से 15/16 किलोमीटर की दूरी पर है। यहाँ आप अपनी सवारी या नरकटियागंज से ऑटो से पहुँच सकते है। वन वे रोड है जो लगभग ठीकठाक हालत में है।
आश्रम से थोड़ी दूर पर चाय -पानी की एक छोटी सी गुमटी है। भोजन वैगरा की कोई व्यवस्था नही है और ना हीं रहने की कोई व्यवस्था है।

तो हमेशा की तरह  मेरी वहीं पुरानी लाइन , अगर कोई मित्र चंपरण भ्रमण की इक्षा रखता हो। यहाँ  जाना चाहते हों तो मेरे घर पर रुक सकते है। बाक़ी घूमना -फिरना आपकी अपनी ज़िम्मेदारी।

देखने योग्य :- इतिहास महसूस कीजिए फिर सब कुछ हीं सुंदर और देखने योग्य लगेगा ।

मेरे साथ सबसे अच्छी बात ये हुई ,मैंने तभी पुष्पमित्र जी की किताब जब “नील का दाग़ मिटा “पढ़ी थी ।इस किताब की वजह से ये आश्रम लगा कल की ही तो बात है ।
किताब बहुत ही सरल भाषा में लिखी गई है ।एतिहासिक होने के बावजूद आप कहीं ऊब महसूस नही करतें ।हाँ कुछ जगह लगता है कि एक हीं बात बार -बार कही जा रही हो पर शायद यही लेखक की मंशा हो कि पाठक श्याद पुरानी बात भूल ना जा रहें हो आगे बढ़ने के क्रम में ।इतिहास जो है ।

नोट:-सोमवार को आश्रम बंद रहता है ।

Wednesday, 6 June 2018

संवेदनाओं का मरना !!!

कभी -कभी उदासी बिना वजह आपको उदास कर जाती है।जैसा की आज मुझे कर रही है।आज फिर मेरे एक दोस्त के माता -पिता यहॉं आए और मेरी जलन मेरी उदासी का कारण बन रही है।जलन का अब क्या कर सकतें है। नाम तपस्या होने से धीर नहीं आ जाता।

कैसी विडंबना है हम ग्रामीण परिवेश के लोगों की ,खास कर बिहार से आने वालों युवाओं की ,जो हमारे  माता -पिता हमारे लिए ऊँचा  आसमान देखते है और खुद धरती का साथ नहीं छोड़ते।
बचपन से हमें डॉक्टर, इंजीनियर ,सरकारी अफसर बनाने का ख़्वाब देखते है ।अपने उन्ही ख़्वाबों  के बीज हमारे अंदर बोने लगते है ।इस ख़्वाब में हमने उन्हें कई बार जलते देखा है।उनकी वो जलन हमें आज तक जलाती है ।
ओह ! मेरी वजह से माँ ने तकलीफ सही ।पापा ने अपना सारा जीवन झोक दिया।
फिर उनके जलन को राहत कैसे मिले ,इसमें हम जलने लगे।उनके सपने पूरी करने लगे।
ना उन्हें मालूम था ना हमें की इन सपनो की कीमत क्या होगी ? उनके  सपने ने वो सब कुछ दिया जो वो मेरे लिए चाहते थे  ,पर कीमत क्या थी ?
दुरी  विछोह …

कई बार कुछ ज्ञानी दोस्त ज्ञान देतें है ,अरे भाई कोई बिज़नेस कर लो ,।मुर्गीफार्म खोल लो , खेती करो ।रेस्टॉरेंट चलाने के बारे में सोचो ।ब्यूटी पार्लर ,कोचिंग सेंटर फ़लाना ढामकान नए स्टारअप अपने शहर में रह कर कर सकते हो ।पैसा कमा सकते हो ।माँ -बाप भी साथ रह सकतें है ,तुम भी ख़ुश माँ -बाप भी ।
भाक साला यहाँ मेरे माँ -बाप ने इतना त्याग मुर्गीफारम के लिए किया है क्या ? ज्ञानी बनते हो कि खेती में काफी संभावना है ।मेरे माँ -बाप ने कभी खेत में ठीक से काम करवाया मुझसे ? क्या अब वो देख पायेंगे मुझे खेतों में झुलसते ?और हमसे होगा क्या ?
 गिन कर तो हम तीन बार भवें बनवाए ,पार्लर क्या ख़ाक खोलेंगे ?
और रही बात कोचिंग की तो कभी बिहार आओ ,आँखे फट जायेंगी तुम्हारी ।ज्ञान देते हो ।

हमें भी ज्ञान आता है पर …
सब छोड़ कर वापस वहां तक जाना उफ्फ्फ ,फिर से अपने बच्चे को इस सपने के जाल में झोकना है
हम जहाँ से है वहॉं इंजीनियर तो बहुत हैं पर ,ढंग की कोई कम्पनी नहीं ।अब ऐसे में वो जो सपने कभी माँ बाप से होते हुए मेरे हो गए उन्हें छोड़ कर कहाँ जाऊँ ?

लोग कहते है कि हमारी सवेंदना मर रही है ।हम निर्मोही हो रहे है ।
पर ,क्या सिर्फ हम ही सवेंदनहीन हो रहे है ?
क्या आप (माँ -बाप ,सगे सम्बंधी )मोह में हैं ?

हाँ आप तो हैं मोह में ,अपनी धरती से ,अपने गांव से ,हमारे घर से ।
हमें उड़ने का ख्वाब दिखा कर ,हमें निर्मोही बना कर आप कहते हैं कि ,सिर्फ हमारी संवेदनाये मर रही है ।
क्या आप कभी ये नहीं सोचते कि जो बीज हमने अपने बच्चे में बोया उसको पेड़ बनाने में ,उसपर फल लाने में कितने उसके अपने दूर हो गए ,कितने उसके सपने मर गए ।
क्या आपको नहीं लगता कभी हमको भी अपना कम्फर्ट ज़ोन छोड़ कर उड़ना चाहिए ।अपने बच्चों के पास होना चाहिए ।

संवेदनाए दोनों की मर रही है इंतज़ार में ……