आज आपसबको चम्पारण लेकर चलती हूँ।
आज की यात्रा शुरू करें, इससे पहले कुछ ऐसी बातें जो हमारी आज़ादी से जुड़ी है।
आज़ादी की चाह किसे नही होती ? एक सोने के पिंजड़े में क़ैद पक्षी भी आज़ाद होना चाहता है, जबकि उसे उस पिंजरे के अंदर सब कुछ मिल रहा होता है। फिर हमारे पूर्वज तो इंसान ठहरे भला। भले शारीरिक-आर्थिक कमज़ोर ही सही पर उनकी चेतना तो काम कर रही थी।
ऐसे में अंग्रेजों के ज़ुल्म कोई कब तक सहता? क्रांति की शुरुआत तो बहुत पहले 1857 में हीं हो गई थी, पर इसके बाद अबतक कोई ऐसा बड़ा आंदोलन नही हुआ था जिससे गोरों की नीव हिल जाए। लोगों में ये विश्वाश आ पाए कि हम मुक्त हो सकतें है।
साल 1894,”मोहन दास करमचंद गांधी “ अफ़्रीका में रंगभेद मिटाने में लगे हुए थे। वहाँ सफलता मिलने के बाद उन्हें अफ़्रीका छोड़ना पड़ा। वे भारत वापस आ गए।
इधर भारत का एक राज्य, ख़ासकर उस राज्य का एक भाग “चंपारण “ अंगरेजो के ज़ुल्म से कंकाल हुआ जा रहा था।चंपारण की ज़मीन पर किसान लाल रक्त से नीला फल उगा रहे थे ।
तीनकाठिया प्रथा के तहत “नील की खेती” ज़बरन किसानो पर थोप दी गई थी। साथ ही पचासन तरह के टैक्स देना उनकी मजबूरी हो गई थी। ऐसे में नील का नीला ज़हर पीना ही उनका जीवन बन गया था। श्याद यही से ज़हर को नीला रंग मिला होगा ।
ख़ैर, ऐसे में चंपारण की धरती को एक चाणक्य मिला। वैसे तो इनका नाम इतिहास के पन्नो में बस आ भर जाता है ,लेकिन अगर ये ना होते तो गांधी को शायद महात्मा बनने के लिए और भटकना होता ।
राजेंद्र प्रसाद , मौलाना मझरुल हक़, बृजकिशोर प्रसाद को एक ऐसे आंदोलन से जुड़ने का मौक़ा नही मिलता जिसमें पहली बार अहिंसा हथियार बनने जा रही थी।
ये चाणक्य थे “राजकुमार शुक्ल” मैंने इन्हें चाणक्य इसलिए कहा क्योंकि ये चाणक्य की तरह ही तो थे। भले स्वभाव से भोले पर एक बार सपथ ले ली कि, अंगरेजो से अपने फ़सल का, अपने जले हुए घर का , अपने लोगों का , अपनी मिट्टी का बदला लूँगा तो लूँगा। चाहे उसके लिए जो करना पड़े।
राजकुमार शुक्ल, गांधी के पीछे लग कर उन्हें चंपराण बुला ही लाए। यहाँ के लोगों पर ज़ुल्म देख कर गांधी यही रुकने का फ़ैसला कर बैठे।
गांधी ने पश्चमी चंपारण के “भितिहारवा “ में अपना आश्रम बनाया। कस्तूरबा को भी कुछ दिनो बाद यहाँ बुला लिया।जब तक चंपरण से नील की खेती बंद नही हुई , गांधी यहीं रहे और आज ये जगह “सत्याग्रह की जन्मभूमि” बनी ।
गांधी के आश्रम का नाम “भितिहारवा आश्रम” पड़ गया।
तो अब इतिहास से निकल कर वर्तमान में आती हूँ। आज इसी भितिहारवा आश्रम आपलोगो को लेकर चलती हूँ। सरकार द्वारा आश्रम की रोगनपट्टी हुई है। देखरेख को कुछ कर्मचारी भी है। हाँ , लोगों तक इसकी पहुँच आज भी कम हीं है तभी तो पर्यटन के नाम पर सिर्फ़ हमलोग और एक और परिवार पहुँचा था यहाँ।
कैसे पहुँचे :- भितिहारवा गांधी आश्रम बेतिया से कुछ 50/55 किलोमीटर तथा नरकटियागंज से 15/16 किलोमीटर की दूरी पर है। यहाँ आप अपनी सवारी या नरकटियागंज से ऑटो से पहुँच सकते है। वन वे रोड है जो लगभग ठीकठाक हालत में है।
आश्रम से थोड़ी दूर पर चाय -पानी की एक छोटी सी गुमटी है। भोजन वैगरा की कोई व्यवस्था नही है और ना हीं रहने की कोई व्यवस्था है।
तो हमेशा की तरह मेरी वहीं पुरानी लाइन , अगर कोई मित्र चंपरण भ्रमण की इक्षा रखता हो। यहाँ जाना चाहते हों तो मेरे घर पर रुक सकते है। बाक़ी घूमना -फिरना आपकी अपनी ज़िम्मेदारी।
देखने योग्य :- इतिहास महसूस कीजिए फिर सब कुछ हीं सुंदर और देखने योग्य लगेगा ।
मेरे साथ सबसे अच्छी बात ये हुई ,मैंने तभी पुष्पमित्र जी की किताब जब “नील का दाग़ मिटा “पढ़ी थी ।इस किताब की वजह से ये आश्रम लगा कल की ही तो बात है ।
किताब बहुत ही सरल भाषा में लिखी गई है ।एतिहासिक होने के बावजूद आप कहीं ऊब महसूस नही करतें ।हाँ कुछ जगह लगता है कि एक हीं बात बार -बार कही जा रही हो पर शायद यही लेखक की मंशा हो कि पाठक श्याद पुरानी बात भूल ना जा रहें हो आगे बढ़ने के क्रम में ।इतिहास जो है ।
नोट:-सोमवार को आश्रम बंद रहता है ।
आज की यात्रा शुरू करें, इससे पहले कुछ ऐसी बातें जो हमारी आज़ादी से जुड़ी है।
आज़ादी की चाह किसे नही होती ? एक सोने के पिंजड़े में क़ैद पक्षी भी आज़ाद होना चाहता है, जबकि उसे उस पिंजरे के अंदर सब कुछ मिल रहा होता है। फिर हमारे पूर्वज तो इंसान ठहरे भला। भले शारीरिक-आर्थिक कमज़ोर ही सही पर उनकी चेतना तो काम कर रही थी।
ऐसे में अंग्रेजों के ज़ुल्म कोई कब तक सहता? क्रांति की शुरुआत तो बहुत पहले 1857 में हीं हो गई थी, पर इसके बाद अबतक कोई ऐसा बड़ा आंदोलन नही हुआ था जिससे गोरों की नीव हिल जाए। लोगों में ये विश्वाश आ पाए कि हम मुक्त हो सकतें है।
साल 1894,”मोहन दास करमचंद गांधी “ अफ़्रीका में रंगभेद मिटाने में लगे हुए थे। वहाँ सफलता मिलने के बाद उन्हें अफ़्रीका छोड़ना पड़ा। वे भारत वापस आ गए।
इधर भारत का एक राज्य, ख़ासकर उस राज्य का एक भाग “चंपारण “ अंगरेजो के ज़ुल्म से कंकाल हुआ जा रहा था।चंपारण की ज़मीन पर किसान लाल रक्त से नीला फल उगा रहे थे ।
तीनकाठिया प्रथा के तहत “नील की खेती” ज़बरन किसानो पर थोप दी गई थी। साथ ही पचासन तरह के टैक्स देना उनकी मजबूरी हो गई थी। ऐसे में नील का नीला ज़हर पीना ही उनका जीवन बन गया था। श्याद यही से ज़हर को नीला रंग मिला होगा ।
ख़ैर, ऐसे में चंपारण की धरती को एक चाणक्य मिला। वैसे तो इनका नाम इतिहास के पन्नो में बस आ भर जाता है ,लेकिन अगर ये ना होते तो गांधी को शायद महात्मा बनने के लिए और भटकना होता ।
राजेंद्र प्रसाद , मौलाना मझरुल हक़, बृजकिशोर प्रसाद को एक ऐसे आंदोलन से जुड़ने का मौक़ा नही मिलता जिसमें पहली बार अहिंसा हथियार बनने जा रही थी।
ये चाणक्य थे “राजकुमार शुक्ल” मैंने इन्हें चाणक्य इसलिए कहा क्योंकि ये चाणक्य की तरह ही तो थे। भले स्वभाव से भोले पर एक बार सपथ ले ली कि, अंगरेजो से अपने फ़सल का, अपने जले हुए घर का , अपने लोगों का , अपनी मिट्टी का बदला लूँगा तो लूँगा। चाहे उसके लिए जो करना पड़े।
राजकुमार शुक्ल, गांधी के पीछे लग कर उन्हें चंपराण बुला ही लाए। यहाँ के लोगों पर ज़ुल्म देख कर गांधी यही रुकने का फ़ैसला कर बैठे।
गांधी ने पश्चमी चंपारण के “भितिहारवा “ में अपना आश्रम बनाया। कस्तूरबा को भी कुछ दिनो बाद यहाँ बुला लिया।जब तक चंपरण से नील की खेती बंद नही हुई , गांधी यहीं रहे और आज ये जगह “सत्याग्रह की जन्मभूमि” बनी ।
गांधी के आश्रम का नाम “भितिहारवा आश्रम” पड़ गया।
तो अब इतिहास से निकल कर वर्तमान में आती हूँ। आज इसी भितिहारवा आश्रम आपलोगो को लेकर चलती हूँ। सरकार द्वारा आश्रम की रोगनपट्टी हुई है। देखरेख को कुछ कर्मचारी भी है। हाँ , लोगों तक इसकी पहुँच आज भी कम हीं है तभी तो पर्यटन के नाम पर सिर्फ़ हमलोग और एक और परिवार पहुँचा था यहाँ।
कैसे पहुँचे :- भितिहारवा गांधी आश्रम बेतिया से कुछ 50/55 किलोमीटर तथा नरकटियागंज से 15/16 किलोमीटर की दूरी पर है। यहाँ आप अपनी सवारी या नरकटियागंज से ऑटो से पहुँच सकते है। वन वे रोड है जो लगभग ठीकठाक हालत में है।
आश्रम से थोड़ी दूर पर चाय -पानी की एक छोटी सी गुमटी है। भोजन वैगरा की कोई व्यवस्था नही है और ना हीं रहने की कोई व्यवस्था है।
तो हमेशा की तरह मेरी वहीं पुरानी लाइन , अगर कोई मित्र चंपरण भ्रमण की इक्षा रखता हो। यहाँ जाना चाहते हों तो मेरे घर पर रुक सकते है। बाक़ी घूमना -फिरना आपकी अपनी ज़िम्मेदारी।
देखने योग्य :- इतिहास महसूस कीजिए फिर सब कुछ हीं सुंदर और देखने योग्य लगेगा ।
मेरे साथ सबसे अच्छी बात ये हुई ,मैंने तभी पुष्पमित्र जी की किताब जब “नील का दाग़ मिटा “पढ़ी थी ।इस किताब की वजह से ये आश्रम लगा कल की ही तो बात है ।
किताब बहुत ही सरल भाषा में लिखी गई है ।एतिहासिक होने के बावजूद आप कहीं ऊब महसूस नही करतें ।हाँ कुछ जगह लगता है कि एक हीं बात बार -बार कही जा रही हो पर शायद यही लेखक की मंशा हो कि पाठक श्याद पुरानी बात भूल ना जा रहें हो आगे बढ़ने के क्रम में ।इतिहास जो है ।
नोट:-सोमवार को आश्रम बंद रहता है ।
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