Wednesday, 1 June 2016

रंगीन तस्वीरें और मेरे गाँव की सैर की अगली कड़ी !!!

रंगीन तस्वीरों के साथ मेरे गाँव का सफर आगे बढ़ता है।जैसा कि मैंने आपलोग को पहले ही बताया है ,मेरे गाँव में एक पहाड़ी नदी बहती है।उससे जुड़े कई किस्से है।मैंने कभी उस नदी का विकराल रूप तो नहीं देखा ,पर उसकी त्रासदी के किस्से बहुत सुने है।बाबा जी बताते थे ,इस नदी ने हमारे दो घर काट दिए थे।रात को बाढ़ आती और सब कुछ बहा ले जाती थी।मैंने बाबा जी पूछा था कि,ऐसी हालत में उनलोगो ने गाँव क्यों नहीं छोड़ा? बाबा जी हँस के बोले -प्रियंका गाँव -घर तो यहीं है,इसे छोड़ कर कहाँ जाते।इनके के लिए तो मैं अपनी नौकरी तक छोड़ आया हूँ।बाबा जी मेरे पटना सेक्रिटेरियट में काम करते थे।अच्छा रुतबा था उनका वहाँ ,पर उस वक़्त खेती की महत्ता ज्यादा थी।खेत भी ज्यादा थे।बाबा जी के दूर होने का फायदा पाटिदार लोग उठाने लगे।जमीन हड़पने की कोशिश करने लगे।उधर विनोबा भावे ने भी देश में "भू -दान आंदोलन" चलाया था।जिसमे जमींदारों की जमीन हरिजनों को दिया जाने लगा।बाबा जी के बाबू जी जमींदारी प्रथा के खत्म होने के बाद गाँव के मुखिया बन गए थे।उन्होंने कई बार बाबा जी को नौकरी करने से मना किया था।शायद बड़े पुत्र  के दूर रहने का कारण वो नौकरी को समझने लगे थे।या फिर उम्र के इस पड़ाव में वो अपने बच्चों को आस -पास रखना चाहते हो।बाबा हँसते हुए बताते थे -उनके बाबू जी ने उन्हें कहा था ,कामेश्वर दूसर के नौकरी से अच्छा ,आपन घर -दुआर देखअ।का बा उ दू पैसा के नौकरी में।खैर मैं विषय से भटक रही हूँ।इसतरह मेरे गाँव का घर काफी पहले से पक्का का था।मतलब छतदार मकान,खपड़े का नहीं।हमारा घर बड़का घर के नाम से गाँव -गाँव में प्रचलित था।अब तो बहुत बड़का घर हो गए है गाँव में।पर इस बड़के घर को भी ये नदी नहीं छोड़ती थी।समय के साथ नदी भी बूढ़ी होती गई।उसका क्रोध भी अब जवानी के साथ ढलता गया।अब कभी -कभार बरसात में फकफकाते दीये सा जोर मरती है ,पर उससे कोई डरता नहीं।ना हीं कोई घर गिरता है।बस बच्चे मछली पकड़ने का खेल शुरू कर देते है।अब जम के बरसात भी तो नहीं होती।गर्मियों में नदी जब सूखी होती है तो ,कुछ यूँ नजारा होता है इसका -
    मैं अपनी चचेरी बहनों के साथ नदी में बैठी हूँ।इस सूखी नदी देख कर आप कह नहीं सकते कि ,इसने कितने घर तबाह किये होंगे।मैंने कभी इस नदी की तबाही नहीं देखी ,इसलिए मुझे इससे हमेशा लगाव रहा।लगाव का कारण इसका साफ़ पानी और इसके तलहटी में मिटटी  की जगह सफ़ेद बालू का होना है।नदी में घुसते ही ,आप अपने पैरों को साफ़ -साफ़ देख सकते है।मैंने इतनी साफ़ नदी कही नहीं देखी।गंगा नदी को भी देखा है , पर उसका पानी भी मटमैला होता है।बरसात की दिनों में गाँव की औरते कहती -आग लगो ,बजर पड़ो ये नदी में।मुझे ऐसी बातें सुनकर हँसी आती।भला नदी में भी आग लग सकती है।पर ऐसी हालात में भी कोई उस वक़्त गाँव छोड़ कर नहीं गया।और अब जब नदी शांत हो गई है,तो सबका पलायन शुरू है।शायद लोगो का रोमांच खत्म हो गया नदी के साथ ,तो दूसरे रोमांच की ख़ोज में शहर भाग रहे है।एक तस्वीर इसी साल की नदी में पानी के साथ-
   जो सबसे ऊपर की तस्वीर है ,जिसमे हम बहनें सूखी नदी में बैठे है।उस जगह से 3 /4 हाथ दूरी पर नदी में एक बाँस गड़ा था ,लाल पताके के साथ।उसको पकड़ के मैंने अपने चाचा के बच्चों से पूछा  - ये हनुमान जी   का धज्जा यहाँ क्यों लगा है ? मुझे बाँस को पकड़े देख मेरे चाचा का लड़का हसँते हुए भागा और चिल्ला  कर बोला- ये चुन्नी दीदी, लभली दीदी मरघटिया वाला बाँस छू दी है।सब भाई बहन हँसते हुए मुझे दूर भागने लगे।चुन्नी बोली -अरे पागले बाड़ू साफ़ ,यहाँ मुर्दा जलावल जाला।सब मुझे डराने लगे कि ,अब भुत मुझे पकड़ लेगा।मै उनकी बातो मजाक़ में  ले रही थी।मुझे डरता ना देख, थोड़ी देर बाद चुन्नी बोली ,अरे सब यूँही चिढ़ा रहे है ,घर चल कर बस नहा लेना।घर आने के बाद उनकी तरह मैंने भी सिर्फ हाथ -पैर धोया।नहाना मेरे लिए शुरू से ही एक युद्ध के सामान था।आज भी है ,पर थोड़ा सुधार हुआ है।इसके बाद आते है ,ककड़ी ,खीरा ,बट्टी और लालमी (तरबूज ,खरबूज )के खेत के पास ,जो नदी से थोड़ी दूर घर वापसी के रस्ते में था।

 ये दोनों ही तस्वीरें अलग -अलग तरह की झोपड़ी की है।ये झोपड़ियाँ खीरे -तरबूजे  की निगरानी करने वालो के लिए बनी होती है।कुछ महीनों के लिए बनी इन झोपड़ियों पर किसान ज्यादा मेहनत नहीं करते है। बस गर्मी में छाया देने भर की होती है।कोई -कोई इसमें खटिया भी डाल देता है,आराम करने के लिए।तो कोई  खुली झोपड़ी में बोरा डाल  कर बैठा या लेटा होता।जिस खटिया पर हम बहनें बैठी है ,उसके खेत का रखवार  चाचा के बच्चों को जानता था।हमलोग को देख कर वो बोला -नदी घूमे गईल रहनी ह का बाबू लोग? मेरे चाचा  के लड़के ने कहा हाँ भाई।चलअ ककड़ी खियावअ।रखवार बोला तूर ली रउरा सबे।चाचा के बच्चों के साथ मैं भी खेत में घुस गई ककड़ी तोड़ने।तभी रखवार बोला अरे बबुनी चप्पल पहिन के ना।ना त सारा ककड़ी के लती सूख जाई।मैं घबरा कर बाहर निकल गई।पहली बार सुना था ,चप्पल पहन के ककड़ी के खेत में घुसने से  उसकी बेले सूख जाती है।मैंने उनसे पूछा तो वो बोले ये बड़ा नेम -जेम वाला खेती है बबुनी।मुझे इसके पीछे कारण ये लगता है कि ,कही चप्पल से दब जाने पर बेले सूख जाती होंगी।नंगे पैर इन्सान थोड़ा सम्भल कर चलता है ना।ककड़ी खाते हुए घर लौटते वक़्त एक घास काट कर जाती महिला को देखा।उसकी घाँस से भरी टोकरी मुझे बहुत अच्छी लगी।मैंने उनसे कहा -ये सुनी ना थोड़े देर ला आपन टोकरी देंम का ? पहले तो वो घबरा गई ,फिर पूछा काहे ? मैंने कहा बस उठाना है।उसने हँसते हुए टोकरी मेरे सिर पर रख दी।सच मानिये देखने में इतनी हल्की और मासूम टोकरी मेरी गर्दन की ऐसी -तैसे कर दी थी।काफी भारी थी।मैं उतारो -उतरो चिल्लाने लगी।मेरे चाचा के बच्चे   मजे लेने लगे।कोई मेरी फोटो ले रहा है ,तो कोई हँस -हँस कर गिर रहा था।घाँस वाली बेचारी मुझे परेशान देख मदद को आने लगी कि ,चाचा के बेटी को मजाक सुझी बोली -अगर टोकरी उतर दी तो घास तुम्हारे घर  नहीं जायेगा।वो बेचारी डर कर वही रुक गई।मैं गर्दन के दर्द से बिलबिला उठी ,गुस्से में बोला अगर अभी टोकरी नहीं उतारा तो मैं टोकरी नीचे फेंक दूँगी।तब जाके मेरे चाचा के बच्चों ने घसवाहीन के साथ मिल टोकड़ी उतारी।2 /3 दिन तक मेरे गर्दन रहा।चाची रोज 2 /3 बार मेरे गर्दन की मालिश करती और अपने बच्चों को डाँटती उस घटना के लिए।बार -बार कहती हम जीजी (मेरी माँ )को क्या मुँह दिखायेंगे।ये तस्वीर उस भयानक मज़ाक की।पर धन्य है घसवाहीन।उस घसवाहीन का दुःख मैंने तब जाना।भगवान् उसके सारे दर्द को दूर करे।
   कुछ और तस्वीरें  रह गई है ,जो अगले बार के लिए है।पर ऐसे दुखी नोट पर इस ब्लॉग का अंत तो हो नहीं सकता।माना गाँव में थोड़ी दुःख, परेशानी हो सकती है पर, थोड़ा सूख भी तो है भाई।तो लीजिए एक और तस्वीर जिसमे मैं मीठे ऊख (गन्ने ) का मज़ा ले रही हूँ ,वहीं शतेश सालियों (मेरी बहनों ) के जिद्द के आगे अपना पसंदीदा गाना मुश्कुराने की वज़ह तुम हो गा रहे है।

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