Tuesday, 28 June 2016

माहे रमज़ान और सूफियों की बातें !!!!!

मेरी एक दोस्त ने मुझसे कहा -तपस्या माहे रमज़ान खत्म होने को है ,और तुमने इसपर कुछ नहीं लिखा।बात तो सही कही उसने।तो चलिए इस बार रमज़ान से जुड़ी कुछ यादें ,कुछ सूफ़ी संतों की बातें लिखती हूँ।जहाँ मेरा बचपन बीता उस जगह पर मुसलमानो की संख्या भी अच्छी खासी है।हिन्दू ,मुस्लिम सब मिल कर रहते थे।अब भी मिल कर रहते है ,पर वो आत्मीय लगाव थोड़ा कम हो रहा है।कुछ तो बदलते परिवेश का असर है।कुछ "बजरंग दल" की महिमा है।खैर इस पाक़ महीने में नफ़रत कि क्यों बात की जाय ,जबकि बताने को और भी प्यारी यादें है।हाँ तो जब मैं छोटी थी ,घर के बाज़ार वाले सारे काम मुझे ही करने पड़ते थे।भाई उस वक़्त छोटा था।पिता जी भी नहीं थे।शाम को मैं सब्जी ,राशन पीठ पर लाद कर लाती,रखती और खेलने भाग जाती।रमज़ान के दिनों में बाज़ार की रौनक कुछ और ही होती।कैसे दुर्गा पूजा की शुरुआत से ही मूर्ति और पंडाल में रूचि बढ़ जाती है।वैसे ही रमज़ान के महीने की शुरुआत से ही हमलोग ईद का इंतज़ार करने लगते।रोजाना की तरह बाजार से जब सब्जी लेकर घर लौट रही होती -देखती दुकानों के आगे सफाई होती रहती।कोई झाड़ू लगा रहा है ,तो कोई पानी  छिड़क रहा होता।कही चटाई बिछ रहे है ,तो कही तिरपाल (बोरे से सीला चटाई जैसा ही ) लोग झुण्ड में बैठ कर भूजा ,पकौड़े ,समोसे ,सरबत आदि खा-पी रहे होते।घर आती तो कालोनी के अंसारी चाचा ने भी रोज़ा खोल लिया होता।घर पर मेरे और मेरे भाई के लिए कभी समोसा तो कभी भुजा वो भेज देते।इस तरह रमज़ान ईद तक पहुँच जाता।कई जगहों से खाने की दावत आती।जिसको लोग सेवई पीने की दावत भी कहते।मुझे सेवई के साथ एक खाश किश्म का जो हलवा बनता ,वो बड़ा पसंद था।अब तो दसन साल गुजर गए वो हलवा खाये।जाने कब नसीब हो ? इसके साथ घर पर भी कुछ लोग सेवई ,चीनी और ड्राई फ्रूट्स दे जाते।हम भाई बहन सेवई छोड़ ड्राई फ्रूट्स पे डट जाते।ड्राई फ्रूट्स उस वक़्त हमारे लिए लक्ज़री आईटम होता था।जैसे दुर्गा पूजा ,दिवाली के बीतने का दुःख होता वैसे ही रमज़ान और ईद के जाने का होता।बाजार भी फीका लगने लगता।मन उदास हो जाता।तो ऐसे में क्यों ना सूफी संतो की तरफ चले।मन को भी शांति मिलेगी।वैसे तो बचपन की यादो की वजह से मुस्लिम धर्म कभी अजनबी नहीं रहा मेरे लिए।ज्यादा रुझान भाई की सोहबत में बढ़ा।उसके साथ "निज़ामुद्दीन दरगाह या मेहरौली की दरगाह" पर जाना।उसके द्वारा लाई कुरआन को पढ़ने की कोशिश करना।पर जैसे मुझे गीता पढ़ना बोरिंग लगता वैसे ही कुरआन लगा।हो सकता है ,उस वक़्त मेरी समझ इनसबके लायक ना थी।हाँ मेरा सूफ़ी संतो में रूचि जरूर बढ़ी।इसका कारण संगीत प्रेम या इनमे छुपी प्रेम की भावनायें हो सकती है।सूफ़ी संत या चिस्ती लोग(अफ़गानिस्तान के एक शहर से ) जो भी हुए ,उनका एक ही मज़हब है -प्रेम ,त्याग ,मानवता और दया।हो सकता हो मेरा सूफ़ियों के प्रति रुझान का एक और कारण मेरा नारी मन भी हो।"निजामुद्दीन औलिया" के दरग़ाह पर जाने पर मुझे 'आमिर ख़ुसरो साहब 'के बारे में भी मालूम हुआ।पहले तो ये बता दूँ "दरग़ाह और मज़ार "एक ही है।दरग़ाह पर्शियन शब्द है ,वहीं मज़ार अरेबिक शब्द है।ऐसे तो कई सूफ़ी संतो का मज़ार है ,पर सबसे ज्यादा लोगो की तादात "ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिस्ती "के दरग़ाह पर होती है।ये राजस्थान के "अजमेर" शहर में है।मोईनुद्दीन चिस्ती को "गरीब नवाज़" भी कहते है।दूसरी बारी आती है "निज़ामुद्दीन औलिया "की।इनका मज़ार "दिल्ली "में है।फिर बात आती है 'मुंबई "स्थित "हाज़ी अली "दरगाह की।इन सब दरगाहों पर हिन्दू ,मुस्लिम सब जाते है।सबकी दुआयें मालिक क़ुबूल करते है। वही कुछ मुस्लिम रूढ़िवादी विचारधारा के लोग मज़ार या दरग़ाह पर नहीं जाते।उनका मानना है कि ,उन्हें सिर्फ अल्लाह को पूजना है।खैर सबकी अपनी विचारधारा हो सकती है।जहाँ तक मेरा विचार है ,मुझे तो यहाँ जाके अच्छा ही लगा।काफी कुछ सिखने को मिला।सूफ़ियों में कई नामीगिरामी कवि हुए। जिन्होंने अपनी कविताओं ,गीतों के जरिये प्रेम बाँटने की कोशिश की। इस तरह वो ख़ुदा को भी पा लिए और खुद को भी।निज़ामुद्दीन औलिया के शिष्य आमिर ख़ुसरो इन सबमे उच्चा नाम है ,एक कवि ,एक कव्वाल के तौर पर।आमिर ख़ुसरो के कुछ दोहे -*ख़ुसरो दरिया प्रेम का ,उल्टी वा की धार। जो उतरा सो डूब गया ,जो डूबा सो पार।।
*ख़ुसरो पाती प्रेम की ,बिरले बाँचे कोय।वेद ,कुरान ,पोथी पढ़े प्रेम बिना का होय।।
*ख़ुसरो सरीर  सराय है ,क्योंसोवे सुख चैन। कूच नागरा साँस का ,बाजत है दिन रैन।।
ख़ुसरो ने बहुत सी कविताएँ लिखी मसलन छाप तिलक सब छीना रे ,मोसे नैना मिला के ,आज रँग है ये माँ रंग है री ,काहे को ब्याहे विदेश ,अरे लखिया बाबुल मोरे कुछ प्रमुख रचनाएँ है।
ऐसे ही एक सूफ़ी संत "मौलाना रूमी" जिनको सिर्फ रूमी भी कहते है।उन्होंने कहा है -*इश्क़ हरा देता है सबको ,मैं हारा हूँ।खारे इश्क़ से, शक़्कर सा मीठा हुआ हूँ।
*"बेवक़ूफ़ मंदिर में जाकर तो झुकते है ,मगर दिल वालो पर वो सितम करते है।
वो बस इमारत है असली हक़ीक़त नहीं है ,सरवरो (गुरु )के दिल के सिवा मस्जिद नहीं है।
वो मस्जिद जो औलिया(संत )के अंदर में है ,सभी का सजदागाह है ,खुदा उसी में है।"
वही संत 'वारिश साह" ने भी प्रेम और मानवता को ही अल्लाह का मार्ग बताया। उनकी प्रमुख कृति हीर -रांझणा है।
चाहे निज़ामुद्दीन हो ,ख़ुसरो हो ,रूमी हो ,वारिश शाह हो सबने प्रेम और त्याग से अल्लाह ,ईश्वर को पाया।हम इनकी कविताओं में "प्रेमी "भगवान या अल्लाह को समझे।वैसे किसी इंसान के प्रेम के सम्बन्ध में भी हम ये कहे तो बुरा ना होगा।आखिर ये भी तो प्रेम का एक दूसरा रूप है।क्यों ना इस बार ईद पर हमारी "ईदी' प्रेम देना और प्रेम लेना हो।हर जगह अमन चैन हो।लोगो के अंदर दया और मानवता हो।चलिए इस प्यारी सी ईदी के साथ आप सबको "माहे रमज़ान मुबारक़ हो"।आने वाला "ईद मुबारक़ हो"।

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