किताबों से कभी गुज़रो तो यूँ किरदार मिलते हैं
गए वक़्तों की ड्योढ़ी में खड़े कुछ यार मिलते हैं
जिसे हम दिल का वीराना समझकर छोड़ आये थे
वहाँ उजड़े हुए शहरों के कुछ आसार मिलते हैं.....
गए वक़्तों की ड्योढ़ी में खड़े कुछ यार मिलते हैं
जिसे हम दिल का वीराना समझकर छोड़ आये थे
वहाँ उजड़े हुए शहरों के कुछ आसार मिलते हैं.....
जगजीत जी की आवाज़ से शुरू होती कुछ कहानियाँ। कुछ ऐसी जो दर्द को दर्द से काटती सी। बीते दिनों सुख रोग से पीड़ित रही। ऐसे में साँस लेना भी दूभर हो रहा था। खीज कर मैंने नाक को रगड़ कर कहा, भाड़ में जा ....
लाल-पीले हुए नाक को यू हीं छोड़ उसका काम मैंने मुँह को दे दिया। पर होता है ना जिसका बंदर वहीं नचाए। अब जो नाक की नासिका हवा के साथ खेल खेलती वो भला कंठ की घंटी से जुड़ा मुँह कैसा कर सकता? हवा जाती और कंठी बज कर काँप जाती। इस मुँह ने तो अपनी घंटी बजा-बजा कर गले में दर्द पैदा कर दिया। अब गर्दन मुँह फुला कर कहने लगा की, मैं ऐसी ज़्यादती नही सहूँगा। एक तो तुमने मेरे दोस्त को भाड़ में जाने को कहा दूसरा कंठ को तुमने एक्स्ट्रा काम दे दिया। माना आत्मा रूपी देव का शरीर मंदिर है पर इसका मतलब क्या बार-बार घंटी बजेगा? जाओ तपस्या अब तुम्हारा दाना-पानी बंद।
मैंने कहा ये बात है? अभी तुम्हें मालूम नही किससे पाला पड़ा है। रुको अभी बताती हूँ। जिस वायरस के दम पर तुम नाक -देह उछल रहे हो उसी का सफ़ाया कर देती हूँ। फिर देखती हूँ.......
ग़ुस्से में दराज़ खोला। सामने से एक डिब्बी निकाली। डिब्बी का ढक्कन खोला और एक पीच रंग की एक गोली निकाल गर्दन में धकेल दिया। लगभग एक घंटे बाद बाप-माई करते, पसीना-पसीना हुए गर्दन जी, नाक जी और ताप जी अपनी औक़ात पर आ रहे थे।
अब बारी थी अपने जीत का जश्न मानने की। निम्बू-पानी और चीनी का पैग बनाया। सोफ़े पर पसर कर टू वॉच लिस्ट देखने लगी। क्या देखूँ? क्या देखना रह गया है?
ऐसे में नज़र गई गुलज़ार की बनाई सीरियल “ किरदार” पर। एक से एक एपिसोड। पर मुझे सबसे अच्छा जगजीत जी की आवाज़ में इसका शुरू होना लग रहा था। जितनी बार उनके शब्दों को सुनती लगता कितना सच है ना......
कई बार तो सिर्फ़ गाने भर सुनती फिर आगे बढ़ती। हर एपिसोड लगभग बीस-पचीस मिनट का है। सब की अलग कहानी है। मुझे जो सबसे अच्छा एपिसोड लगा वो “ बेल निम्बू” “रहमान के जूते” “हाथ पीले कर दो” और मुखबिर।
अगर आप भी देखना चाहतें हो तो यू टूब पर देख सकतें है।
ग़ुस्से में दराज़ खोला। सामने से एक डिब्बी निकाली। डिब्बी का ढक्कन खोला और एक पीच रंग की एक गोली निकाल गर्दन में धकेल दिया। लगभग एक घंटे बाद बाप-माई करते, पसीना-पसीना हुए गर्दन जी, नाक जी और ताप जी अपनी औक़ात पर आ रहे थे।
अब बारी थी अपने जीत का जश्न मानने की। निम्बू-पानी और चीनी का पैग बनाया। सोफ़े पर पसर कर टू वॉच लिस्ट देखने लगी। क्या देखूँ? क्या देखना रह गया है?
ऐसे में नज़र गई गुलज़ार की बनाई सीरियल “ किरदार” पर। एक से एक एपिसोड। पर मुझे सबसे अच्छा जगजीत जी की आवाज़ में इसका शुरू होना लग रहा था। जितनी बार उनके शब्दों को सुनती लगता कितना सच है ना......
कई बार तो सिर्फ़ गाने भर सुनती फिर आगे बढ़ती। हर एपिसोड लगभग बीस-पचीस मिनट का है। सब की अलग कहानी है। मुझे जो सबसे अच्छा एपिसोड लगा वो “ बेल निम्बू” “रहमान के जूते” “हाथ पीले कर दो” और मुखबिर।
अगर आप भी देखना चाहतें हो तो यू टूब पर देख सकतें है।
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