Thursday, 24 March 2022

रॉयल्टी !!!

मुझे एक लेटर आया है अमेजन की तरफ़ से। इसमें मेरी मेरी किताब, “प्यार पर सवाल नही” की इस मन्थ की रॉयल्टी और टैक्स का स्टेटमेंट छप कर आया है। इस तरह के लेटर पहले भी आ चुके है पर आज इसे शेयर करने का कारण भारत में हो रहे रॉयल्टी  विवाद है। बीते कुछ दिनों से लेखक-प्रकाशक और रॉयल्टी की बातें खूब हो रही है जिसकी आँच पहले युद्ध और अब होली में कम होती दिख रही है। वहीं कुछ दोस्तों ने मुझसे पूछा भी कि तुमने इस पर कुछ भी नही लिखा जबकि तुम्हारी खुद चार किताबें आ गई है। 

बात तो सही है कि , “मनलहरी”, “ ऐसे भी कोई करता है भला” “आह वाली यात्रा” और “प्यार पर सवाल नही” यह चार किताबें मेरी आई है। पर यह चारों ही ई- बुक है। यानि किंडल बुक है। मेरी किताबें अब तक पेपरबैक में नही आई है। या फिर किसी ऐसे साइट पर जहाँ आपको रॉयल्टी  के लिए अलग से बात करनी पड़े। 

अमेजन से अब तक का मेरा अनुभव संतोषजनक रहा है। यहाँ पर किस देश में कितने लोगों ने मेरी किताब ली, किसने कितना पन्ना पढ़ा यहाँ तक मालूम चल जाता है। फिर किताब की रॉयल्टी, किताब के दाम के हिसाब से आपको खुद तय करना पड़ता। किस महीने कितनी किताब आपकी बिकी के साथ रॉयल्टी खुद ब खुद टैक्स काट के आपके एकाउंट में आ जाती है। साथ ही मेल और लेटर भी घर पर आता है जिसमें सारी डीटेल दी होती है।

मेरी पिछली किताब को आए एक साल हो गए पर मार्च के महीने में दो लोगों ने इसे लिया तो मुझे इसका मेल आ गया। और उसी ख़ुशी में मैंने होली पर इस किताब का कुछ अंश शेयर किया कि एक साल भी लोग किताब पढ़ रहे है। वरना तो मेरी मार्केटिंग स्किल तो बहुत बुरी है। किताब लिख लेती हूँ और प्रचार के नाम पर शुरू में एक दो पोस्ट भर। 

 ख़ैर अब मुद्दे पर आए तो मुझे अभी भी ठीक -ठीक मालूम ही नही कि कौन सा प्रकाशन भारत में किस लेखक को कितनी रॉयल्टी देता है। कहीं 10% दिखता है तो कहीं 20% और यह भी क्या फ़िक्स है या प्रसिद्ध लेखकों के लिए कुछ अलग क्लॉस है। 

मुझे दो-चार सेल्फ पब्लिशिंग बुक के मैसेज भी मिले थे कि इतना अमाउंट दे कर आप बुक सेल्फ पब्लिश करा सकतीं है। पर मेरी इस बारे में कभी बात ही नही हुई तो रॉयल्टी वाली बात ही नही आई। 

आज जिन वरिष्ठ लेखक से यह बात शुरू हुई और जिन्होंने यह मुद्दा उठाया, उन दोनों के ऊपर मैं क्या लिखूँ… मैंने तो खुद , नौकर की क़मीज़, दिवार में एक खिड़की और एक कविताओं का संग्रह भाई के किताबों के संग्रह से लेकर पढ़ी है। मानव कौल कि जो दो किताबें पढ़ी वह भी मुझे फ़्री pdf मिली थी। अब ऐसे में हिंदी की किताबें कितनी बिक रही है इसका अंदाज़ा मैं ठीक -ठीक लगा नही पा रही।

हाँ,  कुल मिला कर यह कह सकती हूँ कि किसी की इक्षा के विरुद्ध उसकी किताब को छापना ग़लत है। और यह भी कि अगर कोई अपने काम की जानकारी लेना चाहता है तो थोड़ी देर से ही सही पर उसे जबाब तो मिलना ही चाहिए। 


Saturday, 5 March 2022

दोनों के दिल हैं मजबूर प्यार से 
हम क्या करें मेरी जां तुम क्या करो

इस ग़ज़ल को मैंने पहली बार पटना से बसंतपुर जाने वाली बस में सुना था। यह मुझे इतनी अच्छी लगी कि मुझसे रहा नही गया और पहली सीट पर बैठी मैं, बस के गेट से झूल रहे खलासी से पूछा , “ यह किस फ़िल्म का गीत है ?” 

खलासी कुछ मेरी ही उम्र का होगा। मेरे इस सवाल से बेफ़िक्री में लाज को घोल कर बोला, “ फ़िलीम के नाम मालूम नही, कसेट में भरवाए है गीत सब”

“अच्छा” कह कर मैं खिड़की से बाहर देखने लगी। थोड़ी देर में गाना ख़त्म हुआ। वह धीरे से आगे बढ़ा और री प्ले कर दिया। गाना फिर से बजता देख मैंने स्पीकर की तरफ़ देखा। वहाँ खड़ा वह कुछ ढूँढ रहा था। मैं फिर से गाने में खोई हुई खिड़की से बाहर देखने लगी। तभी वह एक कैसेट मेरी तरफ़ करते हुए बोला , “ मैडम, हेमे देख लीजिए, एही में ई गीतवा भरवाए हुए है।” 

कैसेट का कवर एक सफ़ेद काग़ज़ जो पीली-मटमैली पड़ गई थी वह थी। उसपर सुंदर अक्षरों में 1 से 10 तक के नम्बर लाल स्याही से लिखे हुए थे। हर एक नम्बर के आगे नीली स्याही से गीत के बोल लिखे थे। हाँ , शब्दों के माथे को ऐसा बांधा गया था जैसे कोई नदी बह रही हो… मैंने उन्हें देखा और कहा, इस पर सिर्फ़ गाने के नाम है और कैसेट उसकी तरफ़ बढ़ा दिया।

कुछ घंटों में मेरा पड़ाव आ गया और मैं उतर पड़ी। कुछ दिनों बाद भाई एक कैसेट लाया अपने दोस्त के यहाँ से। कैसेट पर लिखा था “अदा” यह जगजीत सिंग और लता जी की गाई ग़ज़लों का कलेक्शन था। मैंने जैसे कैसेट को पीछे पलटा मेरी आँखें ख़ुशी से चमक उठी। उस पर सबसे ऊपर लिखा था, 

“दोनो के दिल है” 

उन दिनों के अजब -ग़ज़ब खलासियों में एक संगीत प्रेमी खलासी का मिलना कितना सुखद था ना। आज यतिश जी की पोस्ट पर यह ग़ज़ल सुना तो उसकी याद आई। जाने अब खलासी नामक कोई प्राणी बस में होता भी है या नही ? होता भी होगा तो हनी सिंह या पवन सिंह में डूबा होगा ….

वैसे जिन्हें ना मालूम हो उनके लिए, खलासी बस में कंडक्टर के अलावा एक एक्स्ट्रा हेल्पिंग हैंड होता था। इनका काम समान चढ़ाना, उतारना, सवारियों को आवाज़ दे कर बुलाना, बस के गेट पर झूलते हुए आस -पास से गुजर रही गाड़ियों को दाएँ -बाएँ करवाना और गाने के कैसेट या अगर सी डी प्लेयर हो तो फ़िल्म बदलना।

 भला हो उस लड़के का जिसकी वजह से मुझे इतनी अच्छी ग़ज़ल सुनने को मिली। और कमाल यह कि इसी अल्बम की एक दूसरी ग़ज़ल मुझे इतनी भाई कि उसे कई दफ़ा रिपीट मोड़ में सुना। अब भी इन्हें सुनती हूँ पर आज बहुत दिन बाद सुना। ग़ज़ल है ; 

मैं कैसे कहूँ जाने जा …



Wednesday, 2 March 2022

बिछिया !!!

 और बिछिया टूट गया… मुझे ठीक से याद नही कि इसे कितने सालों पहले पहना था। दिमाग़ पर ज़ोर देती हूँ तो कुछ छह-सात की बात ध्यान में आती है। शादी के बाद कई तरह के श्रिंगार और आभूषणों में मुझे बिछिया, महावर और सिंदूर बहुत भाए। बिछिया पसंद तो बहुत आई पर हर बिछिया मुझे थोड़ा परेशान ही करती। कभी कोई चुभती तो कभी कोई उँगलियों से निकलने लगती। कोई बार-बार कपड़े में फँसने लगती। बड़ी मुश्किल से एक रिंग वाली, प्लेन बिछिया मुझे पसंद आई और उसे खूब पहना। पर वह भी किसी दिन उँगली से सरक कर कब गुम हो गई मालूम ही नही चला। यहाँ से जाने के बाद मम्मी ने टोका एक ही बिछिया पहनी हो ? मैंने सारी कहानी बताई। वो जाकर बाज़ार से दो जोड़ी और नग वाली छोटी बिछिया ले आई। देखने में सुंदर पर मेरे पैर को रुचे ही ना। मैं फिर से पुराने वाली एक बिछिया पर थी। मायके जाने की ख़ुशी में ध्यान ही नही रहा कि जोड़ा बिछिया पहन लूँ। एक ही बिछिया पहन कर माँ के पास चली गई। 

माँ, जो बच्चों को एक नज़र में ऊपर से नीचे तक देख लेती है उसकी परखी नज़र से मिनट में मेरी बिछिया पकड़ा गई। रात को मुझसे पूछती है, “ बऊवो, दूसरा बिछिया रास्ता में गिर गया क्या ?”

 मैंने खीज कर कहा और नही तो क्या “ ससुराल वाले तो ससुराल वाले, तुमने भी ना जाने किस खुशी में मुझे भारी गहनों से लाद दिया जबकि तुम्हें मालूम है मुझे गहने पसंद नही” माँ ने समाज की दुहाई दी। पर अगले ही दिन यह वाली बिछिया और पतली चेन की पायल ख़रीद लाई। पायल में छोटे -छोटे दिल, मेरे अनुसार पर माँ के अनुसार पान के पत्ते झूल रहे थे। 

यह बिछिया कुछ ऐसी जो पैर कि उँगली से ऐसी लिपटी जैसे, 'चंदन विष व्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग‘

 इसने मानो तीन फेरों में मेरे पैर रूपी पेड़ के जड़, तना और हृदय को लपेट लिया था। इतनी मुलायम और प्रेम से लिपटी की इतने सालों में मुझे इससे कोई शिकायत नही रही। यहाँ जिसकी भी नज़र मेरे पाँवों तक जाती इस बिछिया की तारीफ़ ज़रूर करता। 

शिवरात्रि थी। पैरों में महावर थे और यह टूटी बिछिया भी पर मुझे इसकी ख़बर तक ना थी। साथी की नज़र इसकी टूटन पर पड़ी तब मुझे अहसास हुआ कि जा…यह तो टूट चुका है। मैं थोड़ी उदास थी। साथी ने भी इससे जुड़ी पुरानी प्रेम भरी बातें याद दिला कर और उदास ही किया। कितनी यादें जुड़ी थी इससे…

समय कितना बलवान है ना धातु को भी कमजोर कर देता है। यह सोचते हुए आज नज़र पैरों तक गई, राम और अहिल्या की याद आई…क्या सच में किसी की पाषाण अवस्था किसी स्नेहस्पर्श से जीवित हो सकती है? अगर ऐसा है तो मेरी बिछिया तुम भी जीवित हो उठो…अगर नही तो सब मिथ्या है।

मेरी दादी कहती थीं, अंत गति में सिर्फ़ गोदना ही है जो जीव के साथ जाता है बाक़ी सब यही रह जाता है। मैंने हँसते हुए कहा था , “ दादी गोदना भी त देह के साथ जर जाई, ई कोई आत्मा पर थोड़े गोदवावल बा” 

दादी मेरी हँसने लगी और बोली , “ के देखले बा दुनिया में आत्मा …बियाह के बाद तूहो गोदना गोदवा लिहअ प्रियंका। देह जरी, माटी मिली। गंगा जी में समा जाई। साथे आपन करम आ गोदना ही जाई”

गोदना तो मैंने नही गोदवाया पर मैं चाहती हूँ कि यह बिछिया मेरे साथ अंतिम यात्रा में हो… यह मेरे आत्मा के साथ भ्रमण करती रहे काल दर काल…