Wednesday 2 March 2022

बिछिया !!!

 और बिछिया टूट गया… मुझे ठीक से याद नही कि इसे कितने सालों पहले पहना था। दिमाग़ पर ज़ोर देती हूँ तो कुछ छह-सात की बात ध्यान में आती है। शादी के बाद कई तरह के श्रिंगार और आभूषणों में मुझे बिछिया, महावर और सिंदूर बहुत भाए। बिछिया पसंद तो बहुत आई पर हर बिछिया मुझे थोड़ा परेशान ही करती। कभी कोई चुभती तो कभी कोई उँगलियों से निकलने लगती। कोई बार-बार कपड़े में फँसने लगती। बड़ी मुश्किल से एक रिंग वाली, प्लेन बिछिया मुझे पसंद आई और उसे खूब पहना। पर वह भी किसी दिन उँगली से सरक कर कब गुम हो गई मालूम ही नही चला। यहाँ से जाने के बाद मम्मी ने टोका एक ही बिछिया पहनी हो ? मैंने सारी कहानी बताई। वो जाकर बाज़ार से दो जोड़ी और नग वाली छोटी बिछिया ले आई। देखने में सुंदर पर मेरे पैर को रुचे ही ना। मैं फिर से पुराने वाली एक बिछिया पर थी। मायके जाने की ख़ुशी में ध्यान ही नही रहा कि जोड़ा बिछिया पहन लूँ। एक ही बिछिया पहन कर माँ के पास चली गई। 

माँ, जो बच्चों को एक नज़र में ऊपर से नीचे तक देख लेती है उसकी परखी नज़र से मिनट में मेरी बिछिया पकड़ा गई। रात को मुझसे पूछती है, “ बऊवो, दूसरा बिछिया रास्ता में गिर गया क्या ?”

 मैंने खीज कर कहा और नही तो क्या “ ससुराल वाले तो ससुराल वाले, तुमने भी ना जाने किस खुशी में मुझे भारी गहनों से लाद दिया जबकि तुम्हें मालूम है मुझे गहने पसंद नही” माँ ने समाज की दुहाई दी। पर अगले ही दिन यह वाली बिछिया और पतली चेन की पायल ख़रीद लाई। पायल में छोटे -छोटे दिल, मेरे अनुसार पर माँ के अनुसार पान के पत्ते झूल रहे थे। 

यह बिछिया कुछ ऐसी जो पैर कि उँगली से ऐसी लिपटी जैसे, 'चंदन विष व्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग‘

 इसने मानो तीन फेरों में मेरे पैर रूपी पेड़ के जड़, तना और हृदय को लपेट लिया था। इतनी मुलायम और प्रेम से लिपटी की इतने सालों में मुझे इससे कोई शिकायत नही रही। यहाँ जिसकी भी नज़र मेरे पाँवों तक जाती इस बिछिया की तारीफ़ ज़रूर करता। 

शिवरात्रि थी। पैरों में महावर थे और यह टूटी बिछिया भी पर मुझे इसकी ख़बर तक ना थी। साथी की नज़र इसकी टूटन पर पड़ी तब मुझे अहसास हुआ कि जा…यह तो टूट चुका है। मैं थोड़ी उदास थी। साथी ने भी इससे जुड़ी पुरानी प्रेम भरी बातें याद दिला कर और उदास ही किया। कितनी यादें जुड़ी थी इससे…

समय कितना बलवान है ना धातु को भी कमजोर कर देता है। यह सोचते हुए आज नज़र पैरों तक गई, राम और अहिल्या की याद आई…क्या सच में किसी की पाषाण अवस्था किसी स्नेहस्पर्श से जीवित हो सकती है? अगर ऐसा है तो मेरी बिछिया तुम भी जीवित हो उठो…अगर नही तो सब मिथ्या है।

मेरी दादी कहती थीं, अंत गति में सिर्फ़ गोदना ही है जो जीव के साथ जाता है बाक़ी सब यही रह जाता है। मैंने हँसते हुए कहा था , “ दादी गोदना भी त देह के साथ जर जाई, ई कोई आत्मा पर थोड़े गोदवावल बा” 

दादी मेरी हँसने लगी और बोली , “ के देखले बा दुनिया में आत्मा …बियाह के बाद तूहो गोदना गोदवा लिहअ प्रियंका। देह जरी, माटी मिली। गंगा जी में समा जाई। साथे आपन करम आ गोदना ही जाई”

गोदना तो मैंने नही गोदवाया पर मैं चाहती हूँ कि यह बिछिया मेरे साथ अंतिम यात्रा में हो… यह मेरे आत्मा के साथ भ्रमण करती रहे काल दर काल…



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