Friday, 7 October 2022

अटका आँसू !

डूबते सूरज की तरह डूब रहे मन का हाल वह दहलीज़ क्या जाने जिसके पार समुंदर ना था। बर्फ़ से भारी, जमे चार पैर घिसट रहे थे खुद को। समय की गति धीमी… इतनी धीमी की घड़ी के काटें तक रुक गए। बहती आँखों के बीच जम गया था मन और उसी बीच एक बूँद खून के आँसू…

वह एक बूँद आँसू ना जाने देह में कहाँ भटक रही है। एक बूँद जो अटक गई है मन में या कभी दिमाग़ में, गले के नाल को निचोड़ कर छाती के पर या सुखी आँखों के परदे के भीतर। 

वह कौन सी घड़ी थी जब देह का रक्त सिर्फ़ लाल रंग था… रंग जो जाने कैसे झक पीला हो गया और फिर नारंगी…अचानक नीला… हे परमेश्वर! इस नीले का रंग मिलता है आसमाँ से जो फटने के पहले गरजता है, चमकता है, बरसता है… भीतर धड़कनों की मरोड़ उठी, एक आह देह का रोआ-रोआ बन पसर गई और सब शून्य हो गया। 

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