जैसा की पिछली कहानी में आपने पढ़ा नटखट चुलबुल कैसे स्कूल से बहाने बना कर भाग जाया करता था। उसके बाद की कहानी उसके घर पहुचने से शुरू होती है। मदन सर छुट्टी के बाद लवली और चुलबुल के साथ उनके घर जाते गए। वहां जाके उनकी माँ को पूरी कहानी बताई।माँ ने देखा कि पहले ही चुलबुल ने रोनी सी सूरत बना रखी थी ,तो लगता है स्कूल में ही पिटाई पूरी हो चुकी थी। माँ ने उसे समझाया की अगली बार से ऐसी हरकत न करे। चुलबुल और लवली को खाने जाने के लिए बोल कर माँ ने मदन सर के लिए चाय मँगवाया।मुन्नी दीदी चाय ला के रख गई। मुन्नी दीदी चुलबुल के यहाँ काम करती थी।वो भी चुलबुल की गलतिया कभी -कभार छुपा लिया करती थी। खैर चाय के साथ फिर से माँ ने चुलबुल के बारे में बात शुरू की। माँ को समझ नही आरहा था की क्या करे।उन्होंने ने मदन सर से अनुरोध किया की वो चुलबुल ,लवली को घर पे पढाने आया करे। मदन सर स्कूल से बहार किसी को पढ़ाते नही थे।इसलिए वो राजी नहीं हो रहे थे।मगर चुलबुल की माँ के बार -बार के अनुरोध को माना ना कर सके। माँ को मालूम था की ,चुलबुल के लिए एक सख्त शिक्षक की जरुरत थी।मदन सर को धन्यवाद के साथ माँ ने विदा किया,और कल तय समय पे पढ़ाने आने को कहा।सर के जाने के बाद माँ ने चुलबुल को समझाया कि बदमाशी न किया करे।हाँ बोल के चुलबुल खेलने चला गया।जब वो खेल के लौटा तो माँ न कहा हाथ -पैर धो के पढने बैठे। चुलबुल के पैर में तभी दर्द शुरू हो गया और वो रोने लगा। माँ को भी मालूम था वो ना पढने के लिए बहाने बना रहा था। माँ ने कहा कोई बात नहीं आज रहने दो ,कल से तो मदन सर पढ़ाने आ ही रहे थे। ये सुनते ही चुलबुल के पैर का दर्द गायब हो गया। वो माँ से कहने लगा की वो बदमाशी नहीं करेगा। उससे मदन सर से नहीं पढ़ना। माँ ने उसे दिलासा देने के लिए कहा की वो सिर्फ कुछ दिनों केलिए ही आएंगे। जबतक चुलबुल खुद से नहीं पढने लगता।उसने ठीक से खाना भी नहीं खाया। मुन्नी दीदी ने लाख कोशिश की खिलने की पर चुलबुल पे कोई असर ना हुआ। माँ ने भी गुस्से में चुलबुल को मनाया नहीं।मदन सर से पढने की बात से चुलबुल की रात नींद उड़ गई थी। चुलबुल रात भर सोचता रहा की कल के लिए क्या किया जाय की ना स्कूल जाना पड़े न मदन सर से पढ़ना पड़े।मै कल चुलबुल के बहाने बताऊँगी।तब तक आपलोग सोचिये की उसने क्या-क्या बहाने सोचा होगा।
Tuesday, 31 March 2015
Wednesday, 25 March 2015
chulbul ki padhai ki suruaat
आम तौर पे भारतीय संस्कृति में हर मौके के लिए एक शुभ दिन होता है।यहां जन्म से मृत्यु तक ,अलग -अलग विधि को निभाना पड़ता है ।बच्चे का जब जन्म होता है ,उसके नामकरण की विधि होती है ।जब उनके खाने की आयु होती है ,उस वक़्त अन्नपरासान होता है।जब उनके पढ़ने की उम्र होती है,तो विजयदश्मी या सरस्वती पूजा के दिन ॐ लिख कर पढाई की शुरुआत कराई जाती है।हर तीज़ त्यौहार परम्परागत तरीकों से निभाए जाते आ रहे हैं ।चुलबुल की कहानी की शुरुआत पढ़ाई से हो ,इससे अच्छा क्या हो सकता है ।हाँ जो तीसरा रिवाज़ है जो पढ़ाई शुरू कराने के पहले होता है ।वो चुलबुल का हुआ ही नही था।उसकी माँ ने उसे लवली ( बहन )के साथ स्कूल भेजना शुरू कर दिया ।माँ को ऑफिस जाना होता था ।नटखट चुलबुल की देख -भाल करने वाला कोई घर पर नही होता ।इसलिए उसकी माँ ने शुभ घड़ी के इंतज़ार के बिना ही उसका नामांकरण करवा दिया।माँ ने सोचा इसी बहाने उसकी बदमाशी भी कम हो जाएगी ।लेकिन चुलबुल तो चुलबुल था।उसने क्लास के पहले दिन की शुरुआत रोने से की। चुलबुल की एक और ख़ासियत थी ।,वो रोता था तो आँसू नही गिरते थे।अपनी नन्हे हाथों से आँखों को मलता और रोने की अजीब -अजीब आवाजे निकालता ।उस दिन रोते हुए चुलबुल को मानाने के लिए लवली को अपनी सारी चॉकलेट देनी पड़ी थी ।जब सारी चॉकलेट खत्म हो गई तो ,चुलबुल को पिसाब लग गई।स्कूल का पूरा दिन चुलबुल ने पानी पीने,चॉकलेट खाने और टॉयलेट जाने में लगा दिया ।शिक्षकों को लगा स्कूल का पहला दिन है ।थोड़े दिनों में चुलबुल का मन लग जायेगा ।लेकिन ऐसा कुछ हुआ नही ।उल्टा चुलबुल एक नंबर ,दो नंबर के बहाने स्कूल से दिन भर गायब रहता ।खेलने भाग जाता।एक नंबर तो आपको मालूम ही होगा ,कानी ऊँगली दिखाओ और पिसाब की छुट्टी ।दो नंबर , तर्जनी और मध्यमा दो ऊँगली दिखाओ और पानी पीने की छुट्टी ।सबसे ख़तरनाक होता तीन नंबर ।आप समझ ही गए होने ।ये होती आज की भाषा में पू की छुट्टी ।चुलबुल के स्कूल में तो बच्चे इसको ऐसे कहते -ये सर लैटरिंग जाना है ।न्यू चिल्ड्रन स्कूल में दोनों भाई बहन का नामांकरण हुआ था।ये स्कूल नदी के पास में ही था।स्कूल के पास एक कदम का पेड़ था ।बच्चे टिफिन में या छुट्टी के समय कदम के फल चुनने और खाने में लग जाते ।स्कूल से थोड़ी ही दूर नदी बहती थी ।अब नदी स्कूल से पास हो तो कभी -कभी चुलबुल अपनी एक ,दो ,तीन नंबर के बहाने मछली मारने चले जाते।वो इतनी बार टॉयलेट और पानी पीने की छुट्टी लेता कि ,शिक्षको को भी मालूम नही होता की कितनी देर से गायब है।अपनी दैनिक क्रिया के बाद हमेशा छुट्टी के समय स्कूल में होता।इसका भी एक प्रमुख कारण था ।छुट्टी से पहले फिर से हाजरी (अटेंडेंस )होती थी। जो नही होता उसे फाइन देनी होती ,या फिर अविभावक से लेटर लिखवा के लाना होता ।एक दिन एक शिक्षक जिनका नाम मदन शर्मा था ।उन्होंने गौर किया की काफी समय से चुलबुल पानी पीने ही गया है। बाहर जाके उन्होंने देखा तो चुलबुल गायब था। उन्हें फ़िक्र हुई की बच्चा कहाँ गया ?आस -पास देखा पर चुलबुल कही नही मिला।उन्होंने सोचा की एक बार उसकी बहन से पूछ ली जाये। पहले तो बहन ने कहा उसे नहीं मालूम ।पर मदन सर भी मदन सर थे ।उन्हें कुछ गड़बड़ लगा ।उन्होंने बहन को धमका कर पूछा तो ,बहन ने डर कर सब उगल दिया ।बहन ने बताया चुलबुल या तो स्कूल के पीछे होगा या नदी के किनारे। छुट्टी के बाद चुलबुल अपनी बहन को बताता था कि ,कैसे वो बहाने बना कर खेलने या मछली पकड़ने जाता है ।वो उसे भी साथ चलने को कहता ।लेकिन लवली मदन सर से मार खाने के डर से नही जाती।उसका भी मन करता ,पर उसके क्लास टीचर मदन सर ही थे ।जो स्कूल में सबसे कड़क शिक्षक माने जाते ।कोई बच्चा नही चाहता था कि मदन सर उनकी क्लास में जाये।खैर लवली को मार पड़नी थी सो पड़ी ।मदन सर मारते हुए उसे डाँट रहे थे कि ,उसने पहले क्यों नही बताया चुलबुल के बारे में ।लवली को मारने के बाद मदन सर को याद आया कि चुलबुल को भी ढूँढना है।स्कूल के एक और शिक्षक को साथ लेकर वो नदी की तरफ चल पड़े।जहाँ चुलबुल मछली पकड़ने में व्यस्त था ।मदन सर की आवाज उसकी कानो में पड़ी ।पर अब क्या हो सकता था ।चुलबुल रूपी केकड़ा मदन सर के जाल में फँस गया था ।भागने की कोई गुंजाईश कहाँ थी ।सामने नदी और पीछे मदन सर ,फूलदेव सर के साथ ।इसके बाद चुलबुल का क्या हुआ होगा आपलोगो अंदाजा लगा ही सकते है ।
Natkhhat chulbul ki khaniya 😊
कहानी शुरू करने से पहले मैं आपसब मित्रों से कुछ बाते कर लूँ। वैसे तो मुझे बहुत सारी कहानियाँ पसंद है लेकिन बात अगर लघु कथाओं (शार्ट स्टोरी ) की हो तो मुझे मुंशी प्रेमचन्द्र जी ,अनंत पाई की अमर चित्र कथा ,रस्किन बॉन्ड की लगभग सारी कहानियाँ और आर के नारायण की सारी कहानियाँ , ख़ास कर मालगुडी डेज बेहद पसंद है। मालगुडी डेज के स्वामी को कौन भूल सकता है।
नटखट चुलबुल की कहानियां भी काम दिलचस्प नही है। स्वामी और चुलबुल मे काफी कुछ अलग है लेकिन दोनों ही कहानियाँ आपको अपने बचपन में ले जाएँगी। कही कोई स्वामी होगा तो कहि कोई चुलबुल। एक विषमता है स्वामी और चुलबुल में ,यह की चुलबुल की कहानी सच्ची कहानियाँ है। आपलोगो को यह लग रहा होगा की मालगुडी डेज से तुलना क्यों ? मै आप सब को बस ये बताना चाह रही थी, की मै तुलना नही बस स्वामी की एक झलक आपलोगो को याद दिला रही थी।मालगुडी डेज से मै प्रभावित तो थी ही, साथ ही नटखट चुलबुल की बचपन की याद जो सच में घटित हुई थी। वो भी मुझे हमेशा हँसती । बस फिर क्या था मैंने सोचा क्यों न इसको आपलोगो के सामने लाया जाय। आशा है आपलोगो को ये कहानिया अच्छी लगेंगी और आपके बचपन में ले जाएँगी।
कहानी शुरू होती है बसंतपुर नामक शहर से।जैसा की शहर का नाम था वातावरण भी बिलकुल वैसा ही था। छोटा शहर लेकिन जरुरत की सारी सुबिधाये थी।बच्चो के लिए दसवी तक विद्यालय , खेलने के लिए दो बड़े मैदान ,छोटे -छोटे बाजार , सड़के थी पर कच्ची पक्की ,एक बांस का पूल जिसके नीचे बहती नदी जो सावन भादो में नदी लगती पर जेठ महीनेमें छोटा नाला।नदी के इस पार एक छोटा सा मजार ठीक नदी के किनारे सेलगा हुआ था। दूसरे किनारे से लगा एक गांव जिसका नाम सरेया था।नदी और मजार से होते हुए एक कच्ची सड़क बाजार तक जाती। अकसर गाँवो या कुछ शहरो में भी श्मशान भूमि (जहां मृतक को जलाया या दफनाया जाता है ) नदियों के किनारे ही होते थे।अब तो कहीं जगह ही नही बची तो सरकार ने जहां जगह दे दी वही बना श्मशान । खैर हम कहानी पे वापस आते हैं।एक श्मशान भी था जोकी मजार और कच्ची सड़क से बहुत ही करीब था।श्मशान के चारोतरफ आम,जमुन और बहेड़ा के पेड़ थे। बिजली के खम्बे चारो तरफ लगे थे ,पर बिजली कभी -कभार तीन -चार महिनों में आ जाती। बिजली विभाग वालों को शिकायत करो तो हमेशा एक ही जवाब मिलता की ट्रांसफार्मर जल गयाहै ,सरकार पैसे भेजेगी तो बनेगा। तब तक किरोसिन तेल से काम चलाये। वैसे भी बसंतपुर वासियों को बिजली की कोई आदत नही थी। इसका कारण अधिकांश लोगो के पास तब फ्रिज़ ,कूलर ,मोबाइल फ़ोन इत्यादि नही थे।गर्मी में पेड के निचे बैठ कर हाथ वाले पंखे को हिलाते हुए बाते करना ,प्यास लगी तो चापाकल का ठंढा पानी पीना और टीवी के नाम पे रामायण,महाभारत या रंगोली देखना ,जो की साप्ताहिक कार्यकम था। उसके लिए बैटरी चार्ज करवा कर रखना फिर पूरा मोहला एक साथ बैठ के देखता। बच्चों को निचे कहीं बिठा दिया जाता था। बड़े लोगो के लिए लकड़ी की कुर्सी और चौकी (एक तरह की वुडेन फोल्डिंग जो की फोल्ड नही होती है )हुआ करती थी। रामायण या महाभारत शुरू होते ही कुछ बुजुर्ग महिलाये टीवी को ही प्रणाम करने लगती थी।इस धार्मिकता के बीच बसंतपुर में दो सिनेमा घर भी थे ,जिनमे धार्मिक ,पुरानी , बी ग्रेड की फिल्मे ज्यादा लगती। आपलोगो को लग रहा होगा की कहानी चुलबुल की है पर बसंतपुर की इतनी चर्चा क्यो? क्योकि अबतक मैंने जितनी जगह का उल्लेख किया वो सारी जगहे चुलबुल की कहानी का हिस्सा है।
चुलबुल जैसा उसका नाम बिल्कुल वैसे ही उसके काम थे। शायद इसी लिए लोग कहा करते है कि नाम का प्रभाव पड़ता है। ये कितना सच है मालूम नहीं लेकिन चुलबुल के मामले मे सत प्रतिसत सच था।देखने में गोरा,दुबला पतला आठ -नौ साल का लड़का।वो चलता नही दौड़ता था ऐसा सब कहते। चोटें तो उससे भगवान से प्रसाद में मिली थी ,ऐसा उसकी माँ कहना था। पढ़ाई से कोसो तक कोई नाता नहीं था। कैसे रेडियो ,टीवी ,घड़ी को खोल के ख़राब करना उससे अच्छेसे आता था। हलाकि आपने आप मकैनिक कहता फिरता और इस चक्कर में पड़ोसियों के भी इलेक्ट्रॉनिक्स सामानो को ख़राब करता। फिर शिकायत आती और उसके बाद आपसब को मालूम ही होगा क्या होता होगा।चुलबुल की माँ का नाम श्यामा था।जो की एक सरकारी कर्मचारी थी। सारी माताओ की तरह उनकी भी इच्छा थी कि उनका एकलौता पुत्र सभ्य और अनुशाषित रहे।चुलबुल के साथ उसकी माँ कठोर रहती। उनकी कठोरता का कारण चुलबुल के पिता का ना होना भी था। जब चुलबुल दो साल का था तभी उसके पिताजी जी का देहांत हो गया था। चुलबुल की माँ जानती थी कि, चुलबुल बहुत ही नटखट था। उसके लिए प्यार के साथ अनुशासन भी जरुरी था।चुलबुल की एक बड़ी बहन भी थी।उसका नाम लवली था। चुलबुल की कहानी लवली के बिना अधूरी होगी।लवली को देख के कोई भी बता सकता था कि वो चुलबुल की बहन थी।रूप -रंग बिल्कुल मिलता जुलता। बस अंतर ये था की, वो काम शरारत करती। अपनी माँ की प्यारी बेटी थी।
चुलबुल के परिवार बारे में आपलोगो को काफी कुछ मालूम हो गया होगा। अब उसके कहानियो कि बारी है।
चुलबुल के परिवार बारे में आपलोगो को काफी कुछ मालूम हो गया होगा। अब उसके कहानियो कि बारी है।
Chidiya se sikho
मैंने चिड़िया को
घोंसला बनाते देखा है
मैंने उसे
दाना चुगते
और झट से
आकाश में उड़ते देखा है
मै चाहता हू
कि चिड़िया
मुझे भी
यह सब सिखाये
कि किस तरह
जमीन से
जुड़े रहकर
आकाश में
उड़ा जा सकता है,
कि किस तरह
असीम आकाश में
उड़ने का अहसास
एक घोंसले में
रहकर भी
जीवित रखा जा सकता है।
जैन मुनि क्षमासागर जी की बहुत सी ऐसी कविताये है जिन्हे पढ़ने का सुख मिला।उन्हें समझने और अपने जीवन में लाने की कोशिश मेरी हमेशा रहती है।
Wednesday, 18 March 2015
Rishto ke naam !
सम्बन्धो के बीच
पहले एक दिवार
हम खुद
खड़ी करते है
फिर उसमे
एक खिड़की
लगते है
पर ज़िंदगी भर
करीब रह कर भी
हम खुल कर
कहाँ मिल पाते है ?
जब भी ये पंक्तिया पढ़ती हू तो लगता है कितना सच है ये। आज कल भाग दौड़ की जिन्दगी में सब कुछ कितना सपाट और बनावटी हो गया है। मेरा पहला ब्लॉग़ सरे प्यारे रिश्तो को समर्पित है। लिखना कितनी बार शुरू किया ,कुछ पूरा हुआ कुछ अधूरा ही रह गया। पर अब कोशिश यही रहेगी की नियमित लिखू।
पहले एक दिवार
हम खुद
खड़ी करते है
फिर उसमे
एक खिड़की
लगते है
पर ज़िंदगी भर
करीब रह कर भी
हम खुल कर
कहाँ मिल पाते है ?
जब भी ये पंक्तिया पढ़ती हू तो लगता है कितना सच है ये। आज कल भाग दौड़ की जिन्दगी में सब कुछ कितना सपाट और बनावटी हो गया है। मेरा पहला ब्लॉग़ सरे प्यारे रिश्तो को समर्पित है। लिखना कितनी बार शुरू किया ,कुछ पूरा हुआ कुछ अधूरा ही रह गया। पर अब कोशिश यही रहेगी की नियमित लिखू।
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