Friday 6 May 2016

रँगीन तस्वीरें और मेरा खाँटी गाँव !!!

न्यू जर्सी से डलास ,टेक्सास आये हुए एक महीने से ज्यादा हो गया है।लेकिन अभी तक मैंने क्लाजट रूम ठीक नहीं किया मैंने।आज सोचा ये शुभ काम कर ही दूँ।क्लाजट रूम एक छोटी कोठरी जैसा होता है।जिसमे रैक बने होते है ,कपड़े रखने के लिए।माने अलमारी का काम अमेरिका में क्लाजाट रूम पूरा करता है।कपड़े ठीक करने के दौरान मुझे एक अल्बम मिला।कपड़ो को छोड़ -छाड़ कर मैं तस्वीरें देखने लगी।ओह! कितनी प्यारी-प्यारी यादें ताज़ा हो गई।सच में "थॉमस वेजवूड" को दिल से सलाम जिन्होंने फोटोग्राफी की सौग़ात दी।वैसे कई बार तस्वीरें भी आपका मनोरंजन करती है।बोर हो रहे हो तो पुराना अल्बम देख लो।चेहरे पे मुस्कराहट आ जाएगी।इंडिया में तो कुछ सालो पहले तक ये रिवाज था कि ,कोई गेस्ट आये चाय -पानी ,थोड़े गपसप के बाद अल्बम पकड़ा दो।मेरे कहने का मतलब रिवाज से ये था कि ,अल्बम एक तरह से अतिथि को एंटरटेन करने का तरीका भी था।उस वक़्त बिजली तो होती नहीं थी।टीवी कहाँ से चलाते ? फ़ोन भी लैंडलाइन ही हुआ करते थे।आदमी भी कितना बकर -बकर करेगा? उस वक़्त अल्बम ही हमारी आन और शान होती थी।छोड़िए जनाब पुरानी बातें।बिजली- पानी का रोना तो हमेशा से रहा है।आते है मेरे अल्बम पर ,जो कि पुरानी तो है ,पर आपको तस्वीरों के जरिए मेरे गाँव ले जायेगी।तो ,लीजिए खुला मेरा पिटारा टन -टना ,ये रही पहली तस्वीर मेरे गाँव के रास्ते की और साथ इसकी कहानी -
 
दिल्ली से मैं और मेरा भाई होली में माँ के पास बसंतपुर पहुँचे थे।माँ बोली इसबार गाँव भी जाना है।बाबाजी की बरसी है।मैं कोई 3 -4 साल बाद गाँव जा रही थी।जब तक दादी थीं ,माँ और भाई तो हर साल छठ पूजा में घर जाते थे।मेरा ही पटना ,पुणे की चक़्कर में जाना रह जाता था।पहले बसंतपुर से गाँव जाने में बहुत परेशानी उठानी पड़ती थी।एक तो रास्ता ख़राब दूसरा कोई डायरेक्ट बस या ट्रैन नहीं होती थी।कई बार इस वजह से भी हमलोग चाहते हुए नहीं जा पाते थे।वैसे बसंतपुर से अब मेरे गाँव जाने के कई विकल्प हो गए है।उस वक़्त तो सुबह से शाम या रात हो जाती थी ,घर पहुँचने में।मेरा गाँव पश्चिमी चम्पारण के बेतिया जिले में आता है।इस बार भी हमलोग गाँव के लिए सुबह -सुबह निकले।पहले मलमलिया बस स्टॉप ,फिर मोहमदपुर बस स्टॉप फिर मोतिहारी बस स्टॉप फिर बेतिया।बेतिया से आखिरी बस रामनगर की लेनी होती थी।बस को खुलने में एक घंटा का समय था। हमलोगो ने तबतक समोसा ,भुजा और पकौड़ी से पेट पूजा की।फिर बस में आकर अपना स्थान ग्रहण किया।इस तरह बस बदल -बदल कर हमलोग रामनगर तक पहुंचे।रामनगर जिला मुख्यालय है।यहाँ से मेरे गाँव के लिए कोई पब्लिक सवारी गाड़ी नहीं हुआ करती थी।सिवाय झाझा के।प्राइवेट गाड़ी नदी की वजह से मेरे गाँव में जाने का नाम नहीं लेती थी।हमलोग बस से उतरे।पिता जी(पापा के छोटे भाई )हमलोग को लेने आये हुए थे।मेरे गाँव जाने का सबसे अच्छा विकल्प बैलगाड़ी और टमटम हुआ करता था।बाद में उसकी जगह ट्रेक्टर ,जीप और झाझा ने ले ली।झाझा एक जरनेटर से चलने वाली गाड़ी है।जिसमे इंजन को जरनेटर से जोड़ दिया जाता है।पीछे एक ट्रॉली जोड़ दी जाती है।जिसमे बेंच लगे होते है ,लोगो के बैठने के लिए।जब वो चलती है तो ,झक-झक -झक की आवाज आती है।शायद इसलिए लोगो ने उसका नाम झाझा रख दिया।पढ़ कर आपलोग को हँसी आ रही है ना , मुझे भी लिखते हुए आ रही है।सच में दोस्तों मुझे उसपे ना बैठने का अब तक मलाल है।मलाल का कारण ये कि अब बैलगाड़ी की तरह झाझा भी लुप्त हो रहे है।लोगो के पास अब तो गाड़ी घोड़े के बहुत ऑप्शन हो गए है।पिता जी मेरी माँ से बोले -भाभी जी बैलगाड़ी इसलिए नहीं लाया कि रात हो जाती घर जाते -जाते।गाँव के घोसी के टमटम बा ,ओही से चल जाई।माँ बोली ठीक है बड़ा बाबू।मैंने बीच में टोका - पिता जी झाझा से चलते है ना।पिता जी हँसते हुए बोले - बुड़बक, झाझा से हमलोग की घर की औरतें नहीं जाती।गाँव की छोटी जाती भरी रहती है उसमे।उनकी बात सुनकर मेरा चेहरा उतर गया।वो मेरी तरफ देख के बोले -अरे बेटा झाझा हर गाँव रोकते जायेगा तो देर हो जायेगी।दादी इंतज़ार कर रही होंगी ना।तबतक गाँव का ताँगे वाला भी आ गया।माँ को दूर से ही बोला -मलकिनी प्रणाम।मुझसे बोलता है -बबनी ढेर दिन पर आईल बानी।ठीक बानी न।मैंने मुस्कुरा कर हाँ में जवाब दिया।सामान रखा गया और हमलोग गाँव के लिए प्रस्थान किये।आगे की तरफ घोड़ेवाले के साथ पिता जी और मेरा भाई।पीछे  मैं और माँ।हमलोग रामनगर के चीनी मिल वाला रास्ता क्रॉस ही किये होंगे की घोडा रुक गया।आगे बढ़ ही नहीं रहा था।पिता जी बोले -का भईल भाई ? घोड़े वाला बोला कुछू ना बाबू साहेब घोड़िया अड़ गईल बिया।उनकी बात सुनकर ,मुझे तो अब  मालूम हुआ कि अरे ,ये तो घोडा नहीं घोड़ी है :) घोड़ी वाला घोड़ी को बोलता है  -अये ना चलबू ? चल -चल सब ठीक बा।आए हाव् रे और चाबुक से मारा घोड़ी को।घोड़ी को भी मार का गुस्सा आया।उसने अपने आगे के दोनों पैर खड़े कर दिए।उधर पीछे मैं और माँ गिरते -गिरते बचे।पिता जी बोले -भाई आराम से पीछे परिवार बा।मेरा भाई तो हमलोग को लगभग गिरते देख हँस -हँस के पागल हो रहा था।मुझे गुस्सा भी आरहा था हँसी भी।माँ के सिर का पल्लू भी भरभरा गया।कुछ लोग आस-पास के देखने लगे।वो लोग पिता जी को पहचानते थे।बोले प्रणाम भाई।पिता जी ने जबाब दिया प्रणाम -प्रणाम।तबतक घोड़ी वाले ने घोड़ी पे काबू पा लिया था।जानने वालो को पिता जी ने बताया -अरे बड़की भाभी जी के लेवे आईल रहनी ह।देखअ घोड़ी के ड्रामा खत्म होखे त घरे जल्दी पहुंची।वो लोग पिता जी से विदा लेकर चले गए।इधर माँ अपनी अस्त -व्यस्त साड़ी का पल्लू ठीक करके  गुस्से से बोली- उह्ह !मुँह मारो ये घर आवला के :P मेरा तो माँ की बात सुनकर हँसते -हँसते हालत ख़राब।पिता जी पूछे क्या हुआ बेटा ?पर माँ ने मेरा हाथ दबा दिया।ये इशारा था नहीं बताने का।उफ़ उस वक़्त माँ लोग अपने देवर या अपने गाँव के लोगो का कितना इज़्ज़त करतीं थी।अबतक घोड़ी भी मान गई थी।हमलोग ऊबड़ -खाबड़ रास्ते का मज़ा लेते हुए घर जा रहे थे।गड्ढों के बीच रास्ते में चलती टमटम ने मुझे और माँ को कई जगह पीठ में चोट लगाई।जब भी चोट लगती माँ भुनभुना उठती और मुझे बैलगाड़ी याद आती।मैंने पिता जी को गुस्से में कहा -पिता जी अगली बार बैलगाड़ी लाइयेगा ,वरना मैं नहीं आऊँगी।पिता जी और घोड़ी वाले दोनों हँस पड़े।घोड़ी वाला बोला -अरे बबी घोड़ी ज्यादा महँगा है बैल से।इसकी देखभाल भी महँगी है।मैंने कहा जो भी हो पर बैलगाड़ी में गड्ढे आने पर चोट नहीं लगती थी।अलबता हमलोग उसी में लुढ़क जाते है।आराम से लेटते।पैर फैला कर घर जाते थे।जब चाहा रस्ते में उतरे ,फिर दौड़ कर आगे चढ़ लिए।वैसे भी आपकी घोड़ी तो हमें गिराने ही लगी थी।फिर घोड़ी वाले ने मुझे घोड़ी के खड़ा होने की राज बताई।उसने बताया अरे कोई जानवर मसलन बिल्ली ,सियार या कुछ और के रास्ता काट देने से घोड़ी डर जाती है।इसलिए आगे नहीं बढ़ रही थी।मुझे पहली बार मालूम हुआ कि ,घोड़ी भी रास्ता काटने के भरम को मानती है।इसी तरह बात करते हमलोग अपने गाँव के नदी तक पहुँच गए। मेरे गाँव में रास्ता ना होने की एक वजह ये नदी भी है।ये एक पहाड़ी नदी है ,जो हर बार रास्ता बदलती रहती है।कभी अचानक इसमें बाढ़ आ जाती है ,तो कभी एकदम सूखा।जिसको भी गाँव जाना होता है ] ,नदी पार करनी ही होती है।एक तरफ से अंदाजे से बैलगाड़ी ,टमटम ,झाझा या कोई और गाड़ी धीरे -धीरे पानी में उतरती और आगे बढ़ती हुई इस किनारे पहुंचती।एक तस्वीर नदी की भी  -
      जो सुखी जमीन आपको दिख रही है वो भी नदी का ही हिस्सा है।बरसात के दिन में आप इस नदी को देख कर डर जायेंगे।इस नदी से भी कई किस्से जुड़े है।फिलहाल आपको अपने घर तक पहुँचती हूँ।नदी से करीब 15 -20 मिनट की दुरी पर मेरा घर है।शाम हो गई है।छत के एक कोने पर बैठी दादी ,हमलोग का इंतज़ार कर रही थी।चाची लोग खाना बनाने में लगी थी।मेरे चचेरे भाई- बहन ,चचेरी फुआ लोग दूर से ही टमटम देख कर हमारी तरफ दौड़ पड़े।मैं और मेरे भाई भी टाँगे वाले को रोक कर दौड़ पड़े।

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