Friday, 28 July 2017

समस्या !!!

ये फ़्राइडे को बारिश क्यों होती है ? ख़ैर अच्छा हुआ जो हुई ।
फ़ेस्बुक -फ़ेस्बुक खेलने लगी ।इसी बीच पुष्य जी के एक मित्र ,के पोस्ट पर नज़र गई ।
कितनी स्वाभाविक सी बात लिखी है इन्होंने ।पढ़ने पर आपको लगे कि ,हाँ ऐसा तो है ही।पर ऐसा है क्यों? शौचालय क्या घर की ही बुनियादी ज़रूरत है ?

मैं बहुत पहले ही इस पर एक आपबीती लिख चुकीं हूँ ।फिर से संक्षेप में साझा कर रही हूँ - छपरा से बनारस जाने वाली ट्रेन का इंतज़ार मैं ,मेरा भाई और शतेश कर रहे थे ।मुझे बाथरूम जाना था ।मैं वेटिंग रूम गई ।वेटिंग रूम में मरम्मत का काम चल रहा था ।पूरा रूम कबाड़ा बना हुआ था ।फिर भी हिम्मत करके मैं उसके टॉलेट तक गई ।उसकी हालत देख भागने के अलावा कुछ नही सूझा । वापस आकर भाई को बताया की भाई ,बाथरूम बहुत गन्दा है । भाई बोला दो मिनट रुको ।जीजा जी चाय लेने गए हैं ।आते है तो चलता हूँ ।शतेश आए तो भाई बोला -आप रुकिए सामान के साथ मैं दीदी के साथ दूसरा बाथरूम ढूँढता हूँ ।
रात के साढ़े ग्यारह हो रहे थे ।शतेश बोले तुम रुको चुलबुल ,मैं जाता हूँ ।भाई बोला आप सामान और चाय को बचाये रखिए ।हमलोग आते है । मैं और भाई प्लैट्फ़ॉर्म के सबसे आगे बने एक कम्प्यूटर ऑफ़िस तक गए ।भाई बोला तुम यहीं रुको ।मैं अंदर देख कर आता हूँ ,टॉलेट है या नही । वापस आकर बोला है दीदी ।सीधे से राइट जाओ । जाओ मैं बाहर हूँ ।मैं चली गई बाथरूम ।
जैसे बाहर निकली कुछ शोर सुना ।देखा तो एक आदमी भाई से बहस कर रहा था ।उसको कह रहा था ,ये पब्लिक टॉलेट नही है ।उसकी आवाज़ से ऑफ़िस के दो -तीन लोग और आ गए ।मैं तो डर गई ।पर भाई मेरा भाई ।जब बोलना शुरू किया सब उसे देखने लगे । जिसने पुलिस बुलाने की बात कि थी ,भाई के तर्क से उसकी हवा गुम थी ।बाद में ऑफ़िस के लोग भाई को बोले जाने दो बेटा ।जाओ -जाओ । पर ऐसे ही सब लोग आने लगे तो ये पब्लिक टॉलेट बन जाएगा ।
फिर भाई ने कहा -तो फिर जल्दी ही यहाँ का पब्लिक टॉलेट ठीक कराने की कोशिश करें ।वैसे भी रेल्वे सरकार की सम्पत्ति है ,और सरकार पब्लिक की ।भाई के इस बात से थोड़ा लाइट माहौल हुआ ।कुछ लोग हँसने लगे ।हमलोग वहाँ से चल दिए ।
प्लाट्फ़ोर्म पर आकर हमलोग के चर्चा का विषय शौचालय ही था ।
सच में कितनी गम्भीर समस्या है ये । ख़ैर बिहार तो पिछड़ा है हीं,पर सच मानिए मुझे तो अगले शहर में भी पब्लिक टॉलेट आसानी से नही दिखते।ना पुणे में ना ही दिल्ली में ना ही कलकत्ता में ।हाँ दिल्ली में मेट्रो के शौचालय ने हेल्प ज़रूर किया है ।वही शतेश से सुना है ,बंगलोर में काफ़ी जगह पब्लिक शौचालय है।

दुःख -पता नही कब तक महिलाओं को झाड़ियों दीवारों ,वीराने को ढूँढते रहना होगा ।कब तक पान -गुटके के सीमेंट से सने ,गंदी गालियों के ईंट के बीच ।नाक को इस हद तक दबाए हुए कि ,जान चली ना जाए इस ब्लाडर के फेर में ।

No comments:

Post a Comment