चार जुलाई अमेरिका का स्वतंत्रता दिवस। तीन दिन की छुट्टी। कहीं परेड तो कहीं आतिशबाजी। इनसबके बीच फेसबुक बंद रहा। कुछ अच्छे पोस्ट भी मिस हो गए।सरसरी नजर डाली तो देखा ,कुछ लोग साम्प्रदायिक हिंसा पर तो कुछ लोग पीरियड कम वीमेन फ्रीडम पर अपने विचार रखे हुए हैं।
मैं तो बस यहीं कहूँगी -"जब तक काली स्याही से लाल -लाल लिखते रहेंगें सब काला ही दिखेगा "वैसे भी रक्त का स्वाभाव ही कुछ ऐसा है ,जब तक शरीर के अंदर बह रहा है तब तक ठीक है। जहाँ शरीर से बाहर निकला या अंदर घुसा पीड़ा तो देगा ही।" अब चाहे वो दंगे के रूप में निकले ,बीमारी -दुर्घटना में निकले -चढ़े। या फिर पीरियड -प्रसव में निकले -चढ़े।
हम सामान्य क्यों नहीं हो जाते। फिर ना तो दंगे होंगे ना पीरियड -पीरियड चिल्लाना।
दंगे हमेशा से होते रहे है। फिर भी हमारे पूर्वजों ने यहीं सीखाया ,सब अपने हैं। प्रेम से बढ़ कर कुछ नहीं।वो भी चाहते तो आज हम किसी मौलवी साहब या डॉक्टर अख्तर हुसैन के यहाँ नहीं जाते। ना ही नईम मुझे अपना दोस्त मानता ना मेरे भाई के दोस्त मेरी शादी में शरीक़ होते। अब पेपर ,रेडिओ के ज़माने में कहाँ लाईक ,कमेंट करके लड़ते -झगड़ते।
अब ऐसा भी नहीं है कि सब फेसबुक ,ट्विटर ,बजरंग दल ,राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ या किसी मौलवी के दल का दोष है। हम मनुष्य है। भगवान /ख़ुदा ने दिल -दिमाग़ दिया है। कुछ उसका भी उपयोग करें। ऐसा तो है नहीं की हम सबको देश निकला दे देंगें या मार डालेंगें। निकालें भी क्यों ? आपके घर से आपको निकला जाय फिर ? चाहे वो किसी धर्म का हो।
मुझे भी अपने घर टूटने का दुःख होता है - जब मैं छोटी थी। गाँव जाती तो आँगन में इतने लोग देख कर हैरान हो जाती। सबकी गोड़ लगाई अलग। कुछ पंद्रह -सोलह कमरे। सब में लोग। खूब हँसी -मजाक तो कभी झगड़ा-तकरार। धीरे -धीरे कमरे रह गए लोग अलग -अलग बस गए। अलग बस कर भी लोग एक दूसरे की फ़िराक में रहे। हँसी -मजाक तो गायब हुआ मन का चैन भी दो रूम के कमरे में दफ़न हो गया। बटवारे के बाद भी चैन नही। ये तो मेरे एक छोटे से घर की कहानी है।बाकि गांव या शहर के टूटने से किसे सुक़ून मिलेगा ये तो राम जाने ख़ुदा जाने।
खैर दूसरा रक्त पीरियड का तो ,मुझे ये किसी वीमेन फ्रीडम का हिस्सा बिल्कुल नहीं लगता। इसपर बात करना सिर्फ जागरूकता भर हो सकती है। थोड़ा लोग सहज हो सकते है। कुछ टैबू से छुटकारा मिल सकता है (सबसे इम्पोर्टेन्ट दवा नहीं ले सकते दर्द में ) महिलाओं को थोड़ा आराम दिया जा सकता है।वैसे भी बेसिक हाईजीन जरुरी है ये जाना सबके लिए जरुरी है। इससे ज्यादा पोस्टमार्टम कीजियेगा तो शव छत -विछत तो होगा ही।
मैंने एक बार लिखा था -सिर्फ एक माँ ही बता सकती है कि प्रसव की पीड़ा क्या है ? उस पीड़ा को कोई महिला (जो माँ ना बनी हो )या पुरुष कभी नहीं बता सकते। किसी भी दर्द को वही समझ सकता है ,जिसने उसे जिया हो। बाकी लोग साथ जरूर दे सकते है। मनोबल जरूर बढ़ा सकते है।
बाद बाकी पीरियड पर लिखने वाले पुरुषों या फिर बीबीसी को पुरुष समस्याओं पर भी लिखना चाहिए। इसकी भी जानकारी लोगों को कम है। जो महिलायें लिख रही है वो इसे वीमेन फ्रीडम से ना जोड़ कर ख़ुद को आज़ाद करें।
ज्ञान तो हम देते नहीं बस जो मन में आता है चिपका देते है। तो सब भूल कर इस गीत को सुनिए (गौर से सुनियेगा तो इसमें दंगे और पीरियड दोनों का दर्द सुनाई देगा हा-हा -हा )
मैं तो बस यहीं कहूँगी -"जब तक काली स्याही से लाल -लाल लिखते रहेंगें सब काला ही दिखेगा "वैसे भी रक्त का स्वाभाव ही कुछ ऐसा है ,जब तक शरीर के अंदर बह रहा है तब तक ठीक है। जहाँ शरीर से बाहर निकला या अंदर घुसा पीड़ा तो देगा ही।" अब चाहे वो दंगे के रूप में निकले ,बीमारी -दुर्घटना में निकले -चढ़े। या फिर पीरियड -प्रसव में निकले -चढ़े।
हम सामान्य क्यों नहीं हो जाते। फिर ना तो दंगे होंगे ना पीरियड -पीरियड चिल्लाना।
दंगे हमेशा से होते रहे है। फिर भी हमारे पूर्वजों ने यहीं सीखाया ,सब अपने हैं। प्रेम से बढ़ कर कुछ नहीं।वो भी चाहते तो आज हम किसी मौलवी साहब या डॉक्टर अख्तर हुसैन के यहाँ नहीं जाते। ना ही नईम मुझे अपना दोस्त मानता ना मेरे भाई के दोस्त मेरी शादी में शरीक़ होते। अब पेपर ,रेडिओ के ज़माने में कहाँ लाईक ,कमेंट करके लड़ते -झगड़ते।
अब ऐसा भी नहीं है कि सब फेसबुक ,ट्विटर ,बजरंग दल ,राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ या किसी मौलवी के दल का दोष है। हम मनुष्य है। भगवान /ख़ुदा ने दिल -दिमाग़ दिया है। कुछ उसका भी उपयोग करें। ऐसा तो है नहीं की हम सबको देश निकला दे देंगें या मार डालेंगें। निकालें भी क्यों ? आपके घर से आपको निकला जाय फिर ? चाहे वो किसी धर्म का हो।
मुझे भी अपने घर टूटने का दुःख होता है - जब मैं छोटी थी। गाँव जाती तो आँगन में इतने लोग देख कर हैरान हो जाती। सबकी गोड़ लगाई अलग। कुछ पंद्रह -सोलह कमरे। सब में लोग। खूब हँसी -मजाक तो कभी झगड़ा-तकरार। धीरे -धीरे कमरे रह गए लोग अलग -अलग बस गए। अलग बस कर भी लोग एक दूसरे की फ़िराक में रहे। हँसी -मजाक तो गायब हुआ मन का चैन भी दो रूम के कमरे में दफ़न हो गया। बटवारे के बाद भी चैन नही। ये तो मेरे एक छोटे से घर की कहानी है।बाकि गांव या शहर के टूटने से किसे सुक़ून मिलेगा ये तो राम जाने ख़ुदा जाने।
खैर दूसरा रक्त पीरियड का तो ,मुझे ये किसी वीमेन फ्रीडम का हिस्सा बिल्कुल नहीं लगता। इसपर बात करना सिर्फ जागरूकता भर हो सकती है। थोड़ा लोग सहज हो सकते है। कुछ टैबू से छुटकारा मिल सकता है (सबसे इम्पोर्टेन्ट दवा नहीं ले सकते दर्द में ) महिलाओं को थोड़ा आराम दिया जा सकता है।वैसे भी बेसिक हाईजीन जरुरी है ये जाना सबके लिए जरुरी है। इससे ज्यादा पोस्टमार्टम कीजियेगा तो शव छत -विछत तो होगा ही।
मैंने एक बार लिखा था -सिर्फ एक माँ ही बता सकती है कि प्रसव की पीड़ा क्या है ? उस पीड़ा को कोई महिला (जो माँ ना बनी हो )या पुरुष कभी नहीं बता सकते। किसी भी दर्द को वही समझ सकता है ,जिसने उसे जिया हो। बाकी लोग साथ जरूर दे सकते है। मनोबल जरूर बढ़ा सकते है।
बाद बाकी पीरियड पर लिखने वाले पुरुषों या फिर बीबीसी को पुरुष समस्याओं पर भी लिखना चाहिए। इसकी भी जानकारी लोगों को कम है। जो महिलायें लिख रही है वो इसे वीमेन फ्रीडम से ना जोड़ कर ख़ुद को आज़ाद करें।
ज्ञान तो हम देते नहीं बस जो मन में आता है चिपका देते है। तो सब भूल कर इस गीत को सुनिए (गौर से सुनियेगा तो इसमें दंगे और पीरियड दोनों का दर्द सुनाई देगा हा-हा -हा )
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