Monday, 14 October 2019

निखिल बनर्जी 14 अक्टूबर !!!

आज पिछले साल की मेमेरी आई की आज “निखल बनर्जी “ का जन्मदिन है। इनके बारे मे नया क्या ही कहूँ बस यू टूब पर जाइए ढूँढिए और संगीतलहरी मे डूब जाइए।

आज जो मै वीडीयो लगा रही हूँ वो बस इसलिए की आप देख सके की बाजा के साथ कैसे किसी के भाव बदलते है और कैसे बाजा किसी के हाथ मे नाचने लगती है। कई बार रूप और गुण सामने वाले की प्रकृति पर भी निर्भर करता है।

इस वीडीयो क्लिप को देख कर मेरे भी भाव कई बार बदले। पहली बार मैंने निखिल बनर्जी को इतने क़रीब से देखा। हर एक भाव सुर के साथ बह रहे थे। एक-आध जगह मेरी साँसे रुकी तो कही एक मुस्कान होंठों पर बिखर गई। उनके माथे पर आए पसीने के बूँद देख कर मन बेचैन हो उठा की काश उस वक़्त मै वहाँ होती। हौले से उन्हें मोर पंख से पंखा करती।
इतनी हौले से  जैसे साँसे चलती हो और जीवन सींचता जाता हो......

Thursday, 10 October 2019

कंसस !!!!

आज की यात्रा कंसस से शुरू करती हूँ ।आप सब भी तैयार हो जाइए इस जैज़ और फ़ावरो के शहर को घुमने के लिए। रुकिए साहबान ये सिर्फ़ गीत-संगीत का शहर नही ये शहर सबसे अधिक गेहूँ भी ऊपजाता है। साथ ही बीफ़ के मामले मे भी ये सिर्फ़ टेक्सस से पीछे है। वैसे यहाँ गेहूँ के अलावा सोयाबीन और मक्का भी ख़ूब होता है। साथ ही कंसस का बार्बीक्यू भी ख़ूब प्रसिद्ध है पर वही हम शाकाहारी जीव के लिए कुछ ख़ास ना था। कुछ भूने हुए मकई, थोड़ी तरकारी उसमें भी जूकनी, टमाटर और लालका-हरिहरका शिमला मिर्च कुछ पनीर के साथ। हमें ठीक ही लगा कुछ लाजवाब टाइप फ़ील नही आई।

तो सबसे पहले बताती चलूँ कि, यहाँ हम नेब्रास्का से लौटते समय आए थे। रास्ते भर ख़ूब परती ज़मीन और अपने यहाँ जैसा गाडहा-गुडही देखते आए। ऐसा लग रहा था सिवान से चम्पारण जा रही हूँ। कई जगह पानी जमा था। कई घर डूबे पड़े थे। पर वो घर पुराने थे। उन्मे कोई नही रहता था अभी। शायद इधर पानी लग जाता होगा इसलिए लोग विस्थापित हो गये हो। साथ ही ये लम्बी-लम्बी माल रेलगाड़ी। इधर तो मैने खेतों के बीच रेल की पटरी बिछी देखी। उसका स्टॉपेज हर बड़े खेत के स्टोरेज के पास था। हमलोग कई तरह की बातें इस बारे मे करते रहे और कब कंसस पहुँच गये पाता ही नही चला।

दिन के चार बजे हम होटल पहुँचे। राइस कुकर मे चाय बनाया। चाय पिया और थोड़ी देर आराम के बाद निकल पड़े कंसस सिटी घुमने।
सबसे पहले हमलोग “द नेल्सन ऐट्किंज़ म्यूज़ीयम ओफ ऑर्ट गए” हमलोग कुछ बीस मिनट ही इसे घूम पाए की इसके बंद होने का समय हो गया। दूसरे ऑर्ट म्यूज़ीयम से ये बहुत अलग नही था। कमो बेस मुझे हर आर्ट म्यूज़ीयम मे काफ़ी कुछ एक जैसे ही ऑर्ट पीस दिखते है। कुछ ही अलग होता है जो इतने कम समय मे मै देख नही पाई। हाँ इसका लॉन ज़रूर अलग था। लॉन में  बड़े-बड़े तीन “शटलकॉक्स” बने थे जिसके साथ लोग तस्वीरें ले रहे थे। हम भी पहुँच गए वहाँ।
सत्यार्थ कॉक के ऊपर चढ़ने का जिद्द करने लगा । हम पुत्र मोह मे घिरे दो देसी लोग जो सामने छोटे से बोर्ड पर लगा नोट पढ़ रहे है कि इसपर चढ़ना मना है फिर भी बेटे को चढ़ा दिया की दो-चार मिनट मे क्या होगा ?
पर वही है ना, ई अमेरिका ऐसे ही अमेरिका नही...... इसके चारों तरफ़ कान -आँख है। जैसे सत्यार्थ को बिठाया उधर से एक स्पीकर से आवाज़ आई “ कृपया बच्चे को नीचे उतार ले, सावधानी कारण से इसपर चढ़ना मना है” और हम लाज से पानी-पानी हो गए।

इसके बाद हम इसके ठीक सामने एक पार्क मे गए जहाँ दो बड़ी-बड़ी कुर्सियाँ रखी थी। इतनी बड़ी की हमें भी उचक के बैठना पड़ा। उसके पीछे फ़ाउंटन और रिवर वॉक था। यहाँ कुछ देर समय बिताने के बाद हम “नैशनल वर्ल्ड वॉर म्यूज़ीयम एंड मेमोरीयल” गए । शाम के सात बज चुके थे म्यूज़ीयम बंद हो गया था। वैसे भी इसे हमें बाहर से ही देखना था कारण ऐसा पहले भी कई जगह देख चुके थे और कम समय दूसरी चीज़ें जो नही देखी थी वो देखना था। यहाँ एक क़ुतुबमीनार जैसा पोल लगा है। वहाँ कुछ फ़ोटो ली। कुछ सैनिकों की मूर्ति निहारी और फिर चल पड़े सामने “यून्यन स्टेशन “ की तरफ।

यून्यन स्टेशन बहुत बड़ा तो नही है पर रंगीन लाइट की रौशनी में बहुत ख़ूबसूरत लग रहा था। 1914 मे ये शुरू हुआ था और 1985 मे यहाँ से ट्रेन चलनी बंद हो गई। अभी इसके अंदर रेल म्यूज़ीयम, आइरिश म्यूज़ीयम और कुछ शोज़ होते है। साथ ही इसमें ही कंसस का पोस्ट ऑफ़िस भी है। इसके सामने जो फ़ाउंटन है वो घड़ी-घड़ी बिल्डिंग के जैसा ही रंग बदलता है। यहाँ हमलोग क़रीब एक  -डेढ़ घंटे बैठे रहे। ठंडी हवा और सुंदर नज़ारे ने हमे बाँध लिया था। फिर पार्किंग के समय को देखते हुए हम यहाँ से निकले थोड़ा आस-पास चहलक़दमी की और वापस गाड़ी तक आ गए। फिर वही बार्बीक्यू खाने गए होटल पहुँचे तो शतेश राम को आइक्रीम खाने का मन कर दिया। अच्छी बात ये थी कि हमारे होटल के पास ही “डेनिस” था। रात को एक बजे हम हॉट फ़ज खाने गए और इस तरह आज का दिन पूरा हुआ।

अगले दिन हमे फ़ार्म की सैर करनी थी और वहाँ के किसान से मिलना था। हमलोग सुबह-सुबह तैयार होकर पहले  जे सी  निकोल्ज़ मेमोरीयल फ़ाउंटन देखने पहुँचे। फिर वहाँ से अब तक का सबसे ख़ूबसूरत पुस्तकालय देखा और निकल पड़े शरयोककस फ़ार्म की तरफ़ । यहाँ पहुँचने पर मालूम हुआ कि फ़ार्म हम ख़ुद घूम सकते है अभी कोई ट्रिप नही फ़ॉल से पहले। हम ख़ुद ही थोड़ी देर घूमे। वहाँ से एकलौते स्टाफ़ जेम्स से थोड़ी बात-चीत की और फिर घर के लिए निकल पड़े।

Wednesday, 9 October 2019

आयोवा !!

कल के विराम के बाद अब आगे की यात्रा पर निकलते है ।जैसा कि मैंने बताया की हमलोग देर रात होटेल पहुँचे और खाने का जो हाल हुआ वो क्या ही कहे ? सारे दुकान लगभग बंद हो चुके थे ।ऐसे मे रास्ते मे ट्रक का एक बड़ा सा स्टॉपेज बना है जिसपर लिखा है वर्ल्ड का सबसे बड़ा ट्रक स्टॉपेज, उसके अंदर कुछ कुछ-पीने की दुकाने थी ।जब हम अंदर गए तो सारी दुकाने खुली थी बस हमारा शाकाहारी वाला ऑपशन बंद था ।यानि जो पिज़्ज़ा की दुकान थी वो बंद हो गई थी । सर्च करने पर एक दुकान कुछ बीस मिनट दूर पर मिली जिसकी रेटिंग तो ज़बरदस्त थी पर उसका पिज़्ज़ा ऐसा की पानी और कोल्डड्रिंक के साथ जैसे-तैसे मैंने एक स्लाइस खाई ।अब तक मुझे भयंकर एसिडीटी हो गई थी ।सिर ज़ोर से  दुखने लगा था और इसी के साथ होटल पहुँचते ही कल आराम से निकलने का प्लान हुआ।

अगले दिन भी सिर मे हल्का दर्द ही था ।शतेश बोले दवा लेकर आराम करो । कुछ बारह बजे के आस-पास मुझे थोड़ा ठीक लग रहा था तो फिर हमने निकलने की तैयारी  करने लगे ।अभी सबसे पहले ठीक से खाना खाना था । हमने एक इंडियन रेस्टोरेंट ढूँढा और वहाँ पहुँच गये ।खाना जब तक आता हम आगे का प्लान बनाने लगे और ऐसे मे तय हुआ कि अब धूप मे खेत घुमने जाएँगे तो और बीमार पड़ जायेंगे ।इसी बीच खाना आ गया ।भूख तो लगी ही थी तो सब भूल कर खाने पर टूट पड़े ।पेट से थोड़ा ज़्यादा ही खा लिया और अब मन दू कैसा तो होने लगा  । मैंने इनसे कहा “ग्रेटो” भी अब छोड़ ही देते है  । इन्होंने कहा -अरे चलो चलते है  ।तुम्हारा यहाँ आने का दूसरा बड़ा कारण तो यही था ।आराम से रुकते -रुकाते चलते है ।और इस तरह हमलोग ग्रेटो पहुँचे ।सच बताऊँ यहाँ अगर नही आते तो सच मे ये यात्रा अधूरी रहती ।अब तक तबियत -पानी भी ठीक हो गई थी ।

रंगीन पत्थरों से बनी एक छोटी सी इमारत ऐसे सज रही थी जैसे कोई ताज हो ।इसके बारे मे कहा जाता है कि ये दुनिया का सबसे बड़ा फोसिल, मिनरल, शेल और स्टोन से बना ग्रेटो है  ।वर्ल्ड वंडर्ज़ मे इसका भी नाम जुड़ा है।
इसको बनाने की शुरुआत “फादर पॉल डेब्बेरस्टीन” जो कि एक जर्मन थे उन्होंने ने की थी  ।एक बार वो बहुत बीमार पड़ गये  । तब उन्होंने ने “वर्जिन मेरी” से प्रार्थना कि की, अगर मै ठीक हो गया तो आपके लिए एक आश्रम बनाऊँगा  । और यही आश्रम “श्राइन ओफ द ग्रेटो ओफ द रिडेम्प्शन” कहलाई  ।
।ये जगह इतनी शांत और ख़ूबसूरत है कि यहाँ घंटो बिताया जा सकता है ।तस्वीर मे आपको इतनी सुंदर ना दिखे मेरी बुरी फोटोग्राफ़ी की वजह से पर इसको आँखो की लेंस से देखना अद्भुत है  । इसके दूसरी तरफ़ एक छोटा सा चर्च है जिसमे पॉल पादरी थे ।
हमारी ख़ुशक़िस्मती थी कि जब हम गए तो अब वहाँ का एकलौता शिल्पकार ग्रेटो मे पत्थर जड़ रहा था । उससे कुछ देर बातें हुई । उसने हमें बताया कि इसमे लगने वाले पत्थर विश्व भर से आते है । साथ ही उसने हमे तीन छोटे-छोटे  पत्थर भी दिए यादगार के लिए ।उसने मुझे एक “चमकीला नीला पत्थर” दिया इस ग्रेटो मे जड़ने को ।अब इस ग्रेटो मे मेरी मज़दूरी भी शामिल हो गई है :)
 ये अब भी बन ही रहा है । उसने हमे बताया कि आठ साल की उम्र से वो यहाँ काम कर रहा है और हमेशा करता रहेगा कारण उसके बाद इस काम को बढ़ाने वाला अभी कोई नही दिखता ।

यहाँ से हमलोग आयोवा के कैपिटल आए “ देस मोईनेस”  वहाँ स्टेट बिल्डिंग देखी । फिर वहाँ से प्रमुख “पापा जॉनस” पार्क गए जो कि डाउन टाउन के बीचों -बीच है । इस पार्क मे कुछ 20 ऑर्ट पिसेस लगी हुई है  । यहाँ शाम को अच्छा वक़्त गुज़ारा जा सकता है ।

और इस तरह मक्को( कॉर्न) का शहर कहे जाने वाला आयोवा जो कि आपनी उपजाऊँ मिट्टी के लिए जाना जाता है की आज की यात्रा पूरी हुई  । आगे खेत, नेब्रास्का और कंसस की बातें.....

Tuesday, 8 October 2019

घर आने से पहले इस यात्रा का होना मेरे लिए जरूरी था। कारण  पिछले साल जब घर पर रही उन दिनो ऊख यानि गन्ने की पुरजी भज रही थी। पुरजी भजना मतलब आपके गन्ने का चीनी मिल तक पहुँचना और उनके वजन और प्रजाति के अनुसार हिसाब-किताब होना। भाई के घर पर ना होने से हिसाब-किताब का ज़िम्मा मेरे ऊपर ही आ गया। इससे कई नई चीजे जानने को मिली। फिर मै और ज़्यादा जानने के लिए गन्ने से जुड़ी एक किताब भी पढ़नी शुरू की थी पर वो पुरी ना हो सकी।

इन सबसे इतर,  उन्ही दिनो मेरे दिमाग मे ये बात चलने लगी की आख़िर अमेरिका ऐसी क्या तकनीक प्रयोग मे लता है कि यहाँ का मक्का, सोयाबीन, गेहूँ लहलहता रहता है। मेरे बटईया वाले किसान की तरह हर बार रोता नही की “बरखा ना भईल या ज़्यादा बरखा से फ़सल ख़राब हो गईल।”
मैंने सोच लिया था कि इस बार ये “एपल पीकिंग या पंपकिन पैच” नही जाना। इस बार किसी ऐसी जगह जाऊँगी जहाँ खेत ही खेत हो।  वहाँ के किसी किसान से बात हो तकी समझने मे मदद मिले। 

ऐसे में मै तय किया “कंसस और आयोवा” जाने को। वैसे इंडियना की भूमि अपने आप में उपजाऊ मानी जाती है। टेक्सस, कलीफ़ोरनिया, कंसस के बाद यही का नम्बर आता है पैदावार के मामले मे। पर संयोग ये रहा कि टेक्सस में मैंने खेतों मे तेल के कुएँ देखे तो कलीफ़ोरनिया मे रुकना कम होने से आते-जाते मक्का के खेत। इधर भी आते-जाते मैंने सिर्फ़ बड़े-बड़े खेत देखे जिनमे मक्का या सोयाबीन लहलहा रहे होते। पर इन खेतों मे कभी कोई  किसान नही दिखता। 

शतेश को कंसस जाने की कोई खास इक्षा ना थी। यहाँ घुमने के लिए भी कम ही लोग जाते है। जो जाते भी है या तो वो वहाँ से पास रहते है या उनका कोई क़रीबी उधर रहता है। ऐसे मे 9-10 घंटे की ड्राइविंग शतेश को परेशान कर रही थी। पर वही है ना जब इंसान प्रेम मे होता है फिर सब कुछ दूसरे की ख़ुशी होता है:)
ऐसे में मैंने भी ढूँढ-ढूँढ कर वहाँ देखने योग्य जगहे निकली तकी इनकी ख़ुशी भी यहाँ आ कर बनी रहे। साथ ही मैंने “ द स्ट्रैट स्टोरी” फ़िल्म के कुछ हिस्से भी इन्हें दिखाई तकी जवान का इंट्रेस्ट बना रहे यहाँ आने में। 

“द स्ट्रैट स्टोरी” फ़िल्म जब देखी थी, इसके बैकग्राउंड संगीत और आयोवा को देख मंत्रमुग्ध हो गई थी। सोचा था काश यहाँ जा पाती और वो काश आयोवा के “ग्रेटो (मंदिर/आश्रम) ने पुरी की। इस फ़िल्म में भी ग्रेटो की हल्की सी झलक दिखाई है। आयोवा में इससे ज़्यादा ख़ूबसूरत सिर्फ़ खेत ही है।

हमारी इस यात्रा में सबसे ज़्यादा दूरी भी इस ग्रेटो की ही थी। घर से चलने से पहले हमने तमाम रास्ते देख लिए थे यहाँ तक जाने को पर, ये फिर भी सबसे दूर किसी कोने में था। कुछ चीज़ें काट -छाँट कर हमने यहाँ जाने का प्लान किया। पर वहीं है कई बार डेस्टिनेशन भी आपकी परीक्षा लेती है।

पहले ही दिन जब हम घर से निकले इंडीयाना पार करते ही रोड कंस्ट्रकशन मिलने लगा। स्पीड ऐसे ही कम हो गई। आगे जाने पर हाईवे पर आधा काम तो बीच में किसी गाड़ी की एक्सिडेंत ने हाईवे को ही जाम कर दिया। ऐसे में हम ढाई-तीन घंटे जाम में फँसे रहे। धीरे सरकती गाड़ियों से शतेश को एक इकजीट दिखा।
मुझसे बोले तपस्या, आगे बहुत जाम है अभी भी। फोन में पुरी लेन रेड दिख रही है। जाने कब तक फँसे रहेंगे ?
आगे जाने से दूसरा रास्ता बता रहा है जीपीएस  जो कुछ देर बाद हाईवे से जुड़ जाएगा।

और इस तरह हमारी गाड़ी खेतों के बीच एक पतले रास्ते पर चलने लगी। रास्ता टूटा-फूटा ही था। रोड के किनार पड़ी मिट्टी हमारी गाड़ी के चक्को के साथ होली खेल रही थी। पहली बार अमेरिका में हमने धुल उड़ाते गाड़ी चलाई । और तो और अब जीपीएस का नेटवर्क भी ग़ायब। समझ नही आ रहा था कितनी दूर ऐसे ही जाने पर हाईवे मिलेगा। एक तरफ़ खेतों के बीच गाड़ी का चलना दूसरी तरफ़ सूरज की किरणों का क़रीब-क़रीब फ़सलों का छूना। कभी रोमांच तो कभी भटकने की हल्की परेशानी, ऐसे में एक चौराहा मिला और उसपर लगे रोड के नाम से शतेश को याद आया की इसी रोड की तरफ़ मुड़ने से हाईवे मिलेगा। 
और इस तरह खेत, कई जानवर, इनके बीच बने कुछ घर, टूटी बेकार गाड़ियों को झाड़ी के किनारे खड़े देखते-देखते हम हाईवे तक पहुँचे। यहाँ से आगे जाम नही था। पर इनसब में हमारे होटेल पहुँचने का टाइम गड़बड़ा गया। लगातार गाड़ी में बैठे रहने से मेरे सिर में भी हल्की दर्द शुरू हो गई और इसके साथ मैंने इनसे कहा; ग्रेटो जाने का प्लान कैंसिल करते है। 

आगे क्या हुआ वो कल .....,