Sunday, 30 January 2022

सर्दी की धूप !!!

 मालूम नही कहाँ जा रही थी पर किसी सफ़र पर थी। बस में बैठी मैं खिड़की से बाहर भागते पेड़-पौधों को देख कर मुस्कुरा रही थी कि बस के दो सीटों के बीच से निकल कर एक हाथ मेरे हाथों में आया। हम दोनों के हाथ एक दूसरे पर ऐसे महसूस हुए जैसे हवा फिसलती हो…हल्की गुनगुनी धूप सी हथेलियों पर खिल ही रही थी कि मैंने हाथ खिचने की कोशिश की…

सर्दी की अलसाई सुबह और खिड़की पर कई दिनों के बाद धूप ढंग से सुबह-सुबह झूला झूल रही थी। सपने में हथेली की पर उगी हल्की धूप अब मुख पर थी। उठते ही मैंने एक-एक कर खिड़की के सारे पर्दे सरका डाले। बाहर बर्फ़ धीरे-धीरे पिघल रहे थे। पानी-पानी पसरा हुआ था जैसे बारिश हुई हो। धूप चेहरे पर पड़ रही थी और अच्छा लग रहा था। तभी एक ख़्याल आया कि क्या मन के अंदर का मन बाहर की प्रकृति से जुड़ जाता है ? नही तो आज सुबह -सुबह धूप कैसे…

गुनगुने पानी से भरा बाथटब और उसमें तैरती ख़्यालों की मछलियाँ, गीले बालों से फिसलती बूँदे और बाथरूम में फैली बादाम, सनफ़्लॉवर और हनी की हल्की ख़ुश्बू… ओल्ड फ़ैशन गर्ल आज भी बालों को धूप-हवा से सुखाती, कंधे पर गिरती मीठी धूप से नहा रही है, नया काजल आँखों में झाँस दे रहा है। वह आँखें मलती है कि एक जोड़ी पाँव और जुड़ जाते है कि “मी टू”अब दो जोड़ी पाँव आसमान को तकते, धूप सेंक रहें है। 

Saturday, 22 January 2022

शायद ही किसी दिन कोई फ़िल्म नही देखती पर इन तमाम फ़िल्मों में कुछ ही है जो याद रह जाती है या कई दिन सोचने पर मजबूर कर जाती है। जैसे बीते दिनों Anthony Hopkins की The Father देखी और रो पड़ी। इस बीच बीमार भी हो गई थी और मैं भी बस अपनी माँ को यहाँ चाह रही थी। इस फ़िल्म पर बात फिर कभी आज बात अतनु घोष की फ़िल्म Binisutoy: Without Strings की । 
 “बीनीसूतोय” सच में अपने नाम के अनुरूप बिना शर्त वाली फ़िल्म है। रित्विक चक्रबर्ती को पहली बार “लेबर ओफ़ लव” में देखा था और उसके बाद तो इनकी फ़िल्में ढूँढ-ढूँढ कर देखी। कमाल के एक्टर लगे मुझे। इस फ़िल्म में भी इन्होंने अच्छा काम किया है। 

एक ऐसी फ़िल्म जिसमें सांसारिकता और एकाकीपन का मिश्रण है। आप सोच नही सकते कि अपने खालीपन को भरने के लिए कोई ऐसा भी कर सकता है। हम इस भागती-दौड़ती दुनिया का हिस्सा बनते-बनते सब कुछ तो पाने लगते है पर भीतर कुछ है जो भरता नही। और फिर इस डिजीटल युग में हम सब भी तो कहीं ना कही, किसी बिंदु पर एक अपनी आभासी दुनिया रचते ही है। 

फ़िल्म की कहानी सरबनी बरुआ( नायिका) और काजल सरकार( नायक) की है। दोनों के पास कुछ होते हुए भी वे कैसे मिथ्या जीवन जीते है अपने खालीपन को भरने के लिए यही इस फ़िल्म की कहानी है। 

यह फ़िल्म आपको स्लाइस ओफ़ लाइफ़ के साथ थोड़ा सस्पेंस परोसती है। हाँ, शुरू में कुछ जगह लगता है कि हट ऐसा कैसे ? बारिश हुई नही कि एक अजनबी के साथ रुके है जबकि घर दो घंटे की दूरी पर है। पर यही तो है कहानियों कि दुनिया। रचने वाला थोड़ा तिलस्म तो रचेगा ही। 

कुछ अग़ल देखना चाहते हो तो ज़रूर देखें यह फ़िल्म। 


Sunday, 16 January 2022

मार्टिन लूथर किंग !!!

अमेरिका में जनवरी के तीसरे सोमवार को कई जगह छुट्टी होती है। यह छुट्टी “मार्टिन लूथर किंग” के सम्मान में दी जाती है। 

मार्टिन लूथर किंग वही जिन्होंने 'I Have a Dream'  का भाषण दिया था। इनका जन्म 15 जनवरी को अटलांटा में हुआ था। और जैसा कि आप सभी को मालूम ही होगा कि इन्होंने अफ्रीकी -अमेरिकी नागरिकों के अधिकारों के लिए आंदोलन चलाया था। यह आंदोलन कुछ सत्याग्रह जैसा ही था। किंग, गांधी जी के विचारों से बहुत प्रभावित थे। शायद यही वजह रही कि इन्हें अमेरिका का गांधी कहा जाता है। 

चर्च के पादरी मार्टिन लूथर किंग ने कहा कि, “ मैंने प्रेम को ही अपनाने का निर्णय लिया है। घृणा करना तो बेहद कष्टदायक काम है।” और इसी भावना से ये सिविल राईट मूव्मेंट में शामिल हुए। इन्होंने ने अमेरिका में फैले गोरे -काले के भेद को मिटाने के लिए  आंदोलन चलाया जो कि 381दिन चला। यह आंदोलन सेलमा से मोंटगोमरी तक शुरू हुई जो बाद में पूरे अमेरिका में फैल गई। आपको अगर याद हो तो अल्बामा घूमने के दौरान आपको यहाँ लेकर गई थी। 

वैसे इस विषय पर कई फ़िल्म देखना चाहे तो कई बेहतरीन फ़िल्में मिल जाएँगी। पर इस जगह और नाम से जुड़ी जो दो फ़िल्में मुझे याद आ रही है वह ,

Selma , जिसमें आप सेलमा से मोंटगोमेरी तक की यात्रा देख सकते  है।

और Boycott , जिसमें ‘रोजा पार्क’ नाम की एक अश्वेत महिला ने बस की सीट उठने से मना कर दिया था। जिसके बाद उन्हें जुर्माना देना पड़ा था और इसके बाद ही सिविल राइटस आंदोलन जोर पकड़ा।

मार्टिन लूथर किंग ने जन्म और मृत्य के बीच जो 39साल में जिया वह किसी प्रेरणा से कम नही। इनके योगदान के लिए इन्हें सबसे कम उम्र में विश्व शांति का नोबेल पुरस्कार मिला।  

तो चलिए कुछ पुरानी तस्वीरों के साथ आज फिर से याद करते है मार्टिन लूथर किंग को और अल्बामा की धरती को। 

Friday, 7 January 2022

 शेक्सपियर आज के जमाने में पैदा हुए होते तो कान पकड़ लेते यह कहने से , “ नाम में क्या रखा है” 

जहाँ भारत की जनता स्टेशन, शहर, रोड, शायरों के नाम बदले जाने से परेशान है वही, अमेरिका में एक भारतीय अपने और अपने बच्चे के नाम को लेकर। हाँ, होगा भारत में ‘तपस्या’ नाम सुंदर नाम पर यहाँ तो तपस्या कहना लोगों के लिए एक समस्या है।

अधिकतर काम ऑनलाइन होने की वजह से यहाँ एक अलग दिक़्क़त आती है। फ़ोन की दूसरी ओर बैठी/बैठा व्यक्ति, तपस्या के ‘टी’ को “डी या पी” समझ लेता है। 

फिर शुरू होता है इधर से , 

नो-नो , इट्स टी . टी एज अ ‘टाइगर’ 

ओह, रियली सॉरी मैम के बाद ठीक से तपस्या तीन से चार बार में लिखा जाता है। कई बार चिढ़ भी आती है तो कई बार हँसी। 

इतना होने के बावजूद भी जब मैं माँ बनी तो सोचा, माँ का नाम तपस्या और बच्चा टॉम ,हैरी या आजकल के आधुनिक नाम भला कैसे रखूँ ? ऐसा नही लगेगा कि किसी और का ही बेटा है।

30 दिसम्बर के दोपहर को नामों की सूची बनाने बैठी। पहले से सोच रखा था कि नाम लेटर S से ही रखूँगी तो ज़्यादातर नाम स,श से ही चुने। उसमें से कुछ नाम तो मुझे बहुत पसंद आए जो आज भी याद है जैसे, 

सत्यार्थ ,शाश्वत, षड़ज , सर्वात्मिक , समाहित , सर्वप्रिय, स्वर्णिम और समृद्ध ।

संयोग ऐसा कि जिस दोपहर नामों की सूची बना रही थी उसी रात मुझे हॉस्पिटल जाना पड़ा। एक शरीर के अंदर दो मन जी रहे थे। ऐसे में पुराने मन का उत्साह देख को नया मन गर्भ में उछल-कूद मचाने लगा। ज़िद्द करने लगा कि ना, “मेरी माँ कितने उत्साह से इंतज़ार कर रही है। दिन गिन रही है, मेरा नाम चुन रही है। अब तो मुझे आज ही आना है इस दुनिया में चाहे जो हो।” 

 दिन शनिवार, तारीख़ 31दिसम्बर , साल 2016 को मेरा प्रथम पुत्र इस दुनिया में आया। 

बच्चा मेरा समय से पूर्व हुआ था। उसे Neonatal Intensive Care Unit (NICU) मे रखा गया। हम सब घबराए हुए थे। ऐसे में नाम पर इतना सोच विचार कौन करे… हमें सत्यार्थ नाम सबसे अच्छा लगा और बच्चे का नाम , “ सत्यार्थ भारद्वाज” रखा गया। 

सत्यार्थ, मेरा मीर मस्ताना, इशु राजा इस 31 दिसम्बर को 5 साल के हो गया। उम्र के साथ-साथ इनकी बदमाशी और प्यारी अदायें और बढ़ती गई है। साथ ही पढ़ने-लिखने की भी हल्की-फूल्की ज़िम्मेदारी इन पर आन पड़ी है। 

अब सोचिए जिस देश में तपस्या को लेकर इतना भ्रम है वहाँ ‘सत्यार्थ भारद्वाज’ लिखने में लोगों की क्या हालत होती होगी। 

एक दिन इसकी प्यारी टीचर ‘मिसेज़ फूके’ ने जाने किस मनोदशा में आकर एक नोट लिख कर भेजा , “ He will never write his name” 

मैंने कहा , हेंऽऽऽ ऐसे कैसे ? जेकर बनरा उहे नचावे… आप टेंशन ना ले और देखती जाइए मेरा बेटा कैसे अपना पूरा नाम लिखता है। और देखिए तो कैसे आज मेरा बेटा अपना नाम लिख रहा है। 

तो दुनियावालों सारा खेल नाम का ही है।

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