मालूम नही कहाँ जा रही थी पर किसी सफ़र पर थी। बस में बैठी मैं खिड़की से बाहर भागते पेड़-पौधों को देख कर मुस्कुरा रही थी कि बस के दो सीटों के बीच से निकल कर एक हाथ मेरे हाथों में आया। हम दोनों के हाथ एक दूसरे पर ऐसे महसूस हुए जैसे हवा फिसलती हो…हल्की गुनगुनी धूप सी हथेलियों पर खिल ही रही थी कि मैंने हाथ खिचने की कोशिश की…
सर्दी की अलसाई सुबह और खिड़की पर कई दिनों के बाद धूप ढंग से सुबह-सुबह झूला झूल रही थी। सपने में हथेली की पर उगी हल्की धूप अब मुख पर थी। उठते ही मैंने एक-एक कर खिड़की के सारे पर्दे सरका डाले। बाहर बर्फ़ धीरे-धीरे पिघल रहे थे। पानी-पानी पसरा हुआ था जैसे बारिश हुई हो। धूप चेहरे पर पड़ रही थी और अच्छा लग रहा था। तभी एक ख़्याल आया कि क्या मन के अंदर का मन बाहर की प्रकृति से जुड़ जाता है ? नही तो आज सुबह -सुबह धूप कैसे…
गुनगुने पानी से भरा बाथटब और उसमें तैरती ख़्यालों की मछलियाँ, गीले बालों से फिसलती बूँदे और बाथरूम में फैली बादाम, सनफ़्लॉवर और हनी की हल्की ख़ुश्बू… ओल्ड फ़ैशन गर्ल आज भी बालों को धूप-हवा से सुखाती, कंधे पर गिरती मीठी धूप से नहा रही है, नया काजल आँखों में झाँस दे रहा है। वह आँखें मलती है कि एक जोड़ी पाँव और जुड़ जाते है कि “मी टू”अब दो जोड़ी पाँव आसमान को तकते, धूप सेंक रहें है।
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