याद आता है बच्चों का चिल्लाना - अरे ! बहरूपिया आया है-बहरूपिया आया है… इनके पीछे बच्चों की एक छोटी सी झुंड चकित-हर्षित भाव से मंडराती रहती। ठीक से याद नही पर शायद मंगलवार और शनिवार को ये रूप धर के आते। हम बच्चों को इंतज़ार होता कि आज ये क्या रूप धरेंगे…मालूम होता ये इंसान है फिर भी भगवान का रूप धरे इन बहरूपिये को देख कई बार लोग या बच्चे हाथ जोड़ लेते। ख़ास कर बजरंग बली का रूप तो खूब जमता।
याद आती है वह शाम जब तर-तरकारी ख़रीदने बाज़ार जाती। कभी हनुमान तो कभी राम बन ये, एक थाली लिए दुकान-दुकान घुम रहे होते। कुछ दुकानदार इन्हें पैसे देते तो कुछ बिस्कुट-नमकीन-भुजा या मिठाई। इसके बाद बाज़ार से सटे हमारी कोलोनी का नम्बर आता। घर -घर से कभी आटा तो कभी चावल मिल जाता इन्हें। हाँ, बाद के दिनों में आटा-चावल की महंगाई पर इनकी कला हल्की पड़ी और घर के लोग भी एक-दो रुपया दे कर विदा कर देते। जाने इनके मन में उस पल क्या भाव होता पर इनके चेहरे पर उस वक्त उस धरे रुप का ही भाव होता। मर्यादापुरुषोत्तम राम थोड़ा सा आटा देख मुस्कुरा रहे होते… राम भक्त हनुमान एक सिक्का पा कर, जय श्री राम-जय श्री राम पुकार रहे होते… माता काली बच्चों के पीछे पड़ने पर क्रोध में जीभ लपलपा रही होती… दो पैरों वाला शेर बच्चों को देखते चार पैर का बन दौड़ा मारता… और फिर एक दिन उसने धरा किसी सती का रूप… लोग इसके रूप में उतनी रुचि नही दिखा रहे थे। कुछ दुकानदार पूछ बैठे, “रे आज का बनल बाड़ीस ?”
“सती अनुसुइया”
लोग हँस रहे थे… पर बहरूपिया अपना खेल दिखाता रहा… ठेला गाड़ी खिंचता रहा… महिलाओं ने उस दिन अच्छी दान-दक्षिणा दी। यह उस फ़िल्म का असर था जो पिछले एक महीना से अभिषेक टाकीज़ में चल रहा था।
“सती अनुसुइया”
धीरे-धीरे रूप धरने वाले बहुरुपिया मरने लगे… आम आदमी उनकी जगह लेने लगा।
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