Friday, 7 April 2023

जन्मशताब्दी, कुमार गंधर्व !

 


आज से कुमार गंधर्व की जन्मशताब्दी वर्ष शुरू होने जा रही है।   “शिवपुत्र सिद्धरामैया कोमकाली” जिन्हें बचपन में उनकी गायन के लिए कुमार गंधर्व की उपाधि मिली और फिर वे समय के साथ “पंडित कुमार गंधर्व” हो गए। 

समय ने करवट ली और क्षय रोग से पीड़ित यह गंधर्व छह वर्ष तक गा नही पाए। पर जब किसी चीज में आत्मा बसती है ना ना तो वह लौट कर किसी भी रूप में आपके पास आती हीं है। इन्होंने ने अपनी एक नयी गायन शैली बना ली। 

कबीर का चिंतन और पंडित कुमार गंधर्व की गंभीर आवाज एक अलग ही आध्यात्म की अनुभूति। एक ऐसी दुनिया जहाँ से आप वापस आना ना चाहो। कबीर जहाँ स्वतंत्र चिंतक रहें वही दूसरी ओर पंडित जी बिना किसी घराने के बंधक। क्या अलौकिक मिलाप हुआ इनका… 

मैंने इन्हें पहली बार कब सुना उसका क़िस्सा बताती हूँ। 

पुणे की सुबह थी। मैं और मेरी दोस्त कैफेटेरिया में नस्ता कर रहे थें। रेडियो पर एक गीत बज रहा था और प्रशंसा(मेरी दोस्त) भावुक हो रही थी। यार तपस्या, इस गीत से बचपन की कितनी यादें जुड़ी हैं। हमारी सोसाइटी में एक आजोबा(दादा) थें। वे रोज सुबह मुहल्ले के बच्चों को दौड़, सूर्यनमस्कार को इकट्ठा करते। इसके बाद कुछ संस्कार-ज्ञान की बातें बताते। सुबह उठने में हम आलस करते पर वह छोटे से टेप रिकॉर्ड पर यही गीत बजाते हर बिल्डिंग के गेट पर थोड़ी देर रुकते और मम्मी जबरन हमे उठा कर नीचे भेज देती कि- हे उठ गे,  काकू, थामले आहे। 

तब मैं पुणे में नई थी। मराठी भी बहुत कम समझ पाती। मैंने कहा, मुझे तो कुछ समझ नही आ रहा और हँसने लगी। उसने मुझे तब इसका अर्थ बताया और कहा, यह भी शुद्ध ट्रांसलेशन नही। यह भाव भर है। इसका ट्रांसलेशन मैं ठीक से कर नही पाऊँगी हिंदी में। 

आज इस गाने को सुनकर और थोड़ा प्रशंसा को याद कर मैं अपने हिसाब से इस गीत का अर्थ पोस्ट के अंत में लगा दूँगी।वह भी भाव भर ही होगा… 

कुछ सालों बाद मैं और भाई दिल्ली में रहने लगे। तब भाई मेरा सरोद बजाना सीख रहा था। वह गीत-संगीत के कई क़िस्से बताता। बाबा अलाउद्दीन के तो जाने कितने क़िस्से… इसी बीच उसने कुमार जी के बारे में भी बताया पर उस वक़्त तो मैं किसी और दुनिया में मशगूल रहती थी। इस तरह की संगीत की ना तो समझ थी और ना ही सुनने की ईक्षा। भाई को भी कभी चिढ़ाती तो कभी लड़ती कि, क्या यह दिन भर आ -आ बजाते रहते हो ? 

धीरे -धीरे चिढ़ते -चिड़ाते,  मुझे भी मालूम नही कब "हिंदुस्तानी क्लासिकल "अच्छा लगने लगा। हालाँकि अभी भी इसमें मेरा ज्ञान काफी कम है पर मैं इसे अब घंटों सुन सकती हूँ। 

वो क्या है ना ,दावा कड़वी होती है पर असर तो करती ही है। यही हाल है हिंदुस्तानी क्लासिकल का। दिमाग और मन का टॉनिक है यह।

कुमार जी, उनके निर्गुण और गायन को आपने सुना ही होगा। मैंने भी पहले इस पर कई बार लिखा है। आज उसी मराठी गीत को साझा करती हूँ जिससे पहली बार इन्हें जाना। अपनी दोस्त को भी याद कर रहीं हूँ, जिसके साथ बहुत खूबसूरत पल गुजारे। मैं इस पल उसे कितना मिस कर रही हूँ और वह कमबख़्त जर्मनी में खर्राटे ले रही होगी। ख़ैर आप सुनिए यह मराठी गीत। और हाँ, कुमार जी का कितना सुंदर साथ दिया है वाणी जयराम जी ने। 

* गीत के भाव कुछ यूँ है, “ किसी से प्रेम का जो ऋण बंधा वह जन्मों जन्म तक चलता है। हर जन्म में हँसना, रोना, सुख-दुःख की गहरी फुसफुसाहट हो तो भी हमे उस ऋण को चुकाने, जन्म लेना हीं पड़ता है। वह सुंदर प्रेम में नाराज़ हो जाती और कभी उसके बिना मिलती भी नही। नाराज़गी में भी जब वह मुस्काती तो कितनी सुंदर लगती। नाराज़ होना, मुस्कुराना फिर नाराज़ होना कितना सुंदर है, मोहक है। इसी मुस्कुराने और नाराज़ होने के लिए जन्मों जन्म मिलता है हमें। 



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