Thursday, 6 March 2025

 

छह मार्च को “गेब्रियल गार्सिया मार्ख़ेज” का जन्मदिन है। इस नोबेल प्राइज विजेता लेखक को मैंने पहली बार कॉलेज के दिनों में जाना। हुआ यूँ कि कॉलेज की मेरी प्रिय दोस्त और इनका जन्मदिन एक ही तारीख़ को पड़ता है। और मेरी प्रिय दोस्त इस बात को बड़ा इठला कर उन दिनों सबको बताती। उन दिनों आधे दोस्तों को तो उसी ने बताया होगा इस स्पैनिश लेखक के बारे में। वैसे कमाल की बात यह रही कि उसने फ़्रेंच भाषा में डिप्लोमा किया था पर जाने कहाँ से उसे उस वक़्त स्पैनिश मार्खेस के बारे में मालूम था। 


मैं तो बिहार के सिवान ज़िले एक ब्लॉक बसंतपुर से गई थी, पुणे पढ़ने। मैंने तो सिर्फ़ प्रेमचंद, रेणु, हजारी प्रसाद द्विवेदी, सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, अमृता प्रीतम आदि की कुछ किताबें या कहानियाँ पढ़ रखी थी। हाँ, अंग्रेज़ी में भी कुछ कहानियाँ सिर्फ़, “रस्कीन बॉण्ड” की पढ़ रखी थी। पर उपन्यास तब कोई नहीं पढ़ी थी। ऐसे में मार्ख़ेस को पढ़ते हुए मैं बहुत चकित होती कि दुनिया में कोई ऐसा भी देश है भारत के अलावा जहाँ भूत-प्रेत में विश्वास है। 

ख़ैर धीरज की कमी और पात्रों के नाम ने तब किताब पूरी नहीं होने दी और किताब दोस्त को वापस कर दी गई। 

अमेरिका आने के बाद जब लाइब्रेरी में कुछ दिनों काम किया तब इस किताब की देख कर फिर से पढ़ने की इक्षा जागृत हुई। किताब घर ले आयी पर इस बार भी इतनी बोझिल -पेचीदा और पात्रों के नाम की मिलावट ने इसे पूरा ना होने दिया और किताब लौटना का दिन आ गया।

एक दिन प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी गई तो वहाँ इस किताब पर कोई चर्चा होने वाली थी, ऐसा बैनर लगा था नोटिस बोर्ड पर। फिर एक बार इस किताब का भूत चढ़ा मुझ पर। इस बार मैंने सोचा की किताब खरीद ही ली जाए और आराम-आराम से पढ़ी जाए बिना लौटने की तारीख़ को ध्यान में रखते हुए। 

किताब मैंने पहली बार “थ्रेफ्ट बुकस” से ली। यानि सेकेंड हैंड किताबों की ऑनलाइन दुकान। इस स्टोर के बारे में लाइब्रेरी में काम करने वाली एक लड़की से ही मालूम हुआ। अच्छी बात यह हुई कि जहाँ किताब स्टोर या अमेजन पर $ 15-25 के बीच मिल रही थी, थ्रेफ्ट बुक्स से $4.99 में मिल गई। थ्रेफ्ट बुक्स ने सबसे पुरानी एडिशन मुझे भेजा था। किताब से अजीब सी ख़ुशबू आ रही थी, पन्ने भी ज़र्द पीले। कवर का कोना मानों सात समुंदर लांघ आया हो… मुझे ऐसा लग रहा था कि जादू की दुनिया की यह किताब, सच में सौ साल पुरानी तो नहीं… रिश्तों की उलझ से यह क़रीब तार-तार सी ही दिख रही थी। मन उचट रहा था इसे देख कर ही। 

कई बार होता है ना, कुछ चीजें बहुत इम्तेहान लेती हैं। उसी इम्तेहान और शुरुआती कुछ ऊह-पोह के बाद किताब पटरी पर आ गई और फिर 383 पन्नों की एक जादुई किताब पूरी हुई।

वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ़ सॉलिट्यूड” नामक यह किताब आपकी धर्य की परीक्षा लेती है। पर एक बार आप पास हुए तो इसके जादू से बंध जाते हैं। 

Thursday, 27 February 2025

पातालेश्वर शिव मंदिर

जंगली महाराज रोड यानी “जे एम रोड” पुणे के व्यस्तम इलाके में से एक है। लोगों की चहल-पहल से सजी यह सड़क नाम है, रंग-बिरंगे दुकानों का, स्वादिष्ट भोजनों का, बालगंधर्व रंगमंदिर का, संभाजी पार्क का और जंगली महाराज मंदिर का। 

इन सब से इतर यह नाम है, “पातालेश्वर मंदिर” का। कमाल की जगह है यह। एक बार को यक़ीन नहीं होता कि शहर के व्यस्ततम इलाक़े के बीच इतना सुकून भरा है।  

महादेव का यह मंदिर इस भीड़भाड़ वाले इलाक़े में होते हुए भी सुकून से भरा है। बरगद के पेड़ों की आड़ में, ज़मीन के गर्भ में बैठा यह अद्भुत मंदिर है। जंगली महाराज मंदिर से ठीक सटे पीछे की तरफ स्थित यह मंदिर एक बार को लगता ही नहीं की जे एम रोड़ में है। इतनी शांति, इतना सुकून की मन बस आने को ही ना करे। 

यह मंदिर ज़मीन के नीचे है शायद इसलिए इसे पातालेश्वर मंदिर कहा गया।

16 स्तंभों पर खड़ा यह मंडप सिर्फ़ एक पत्थर को काट कर बना, अनोखे शिल्प का उदाहरण देता है। कहते हैं कि इसका निर्माण पांडवों ने किया है। मगर इतिहासकारों का मत है कि 8वीं शताब्दी के आसपास इसे राष्ट्रकूट वंश के राजाओं ने बनवाया है। 
आर्केओलॉजी के विशेषग्यों के अनुसार यह  मंदिर क़रीब 400 साल से भी ज़्यादा पुरानी है और सन् 1977 में यह खुदाई के दौरान मिली।

इस मंदिर के पुजारी के अनुसार इसे, “पशुपथ संप्रदाय” के लोगों ने बनाया है। क्योंकि गुफाओं में शिवालय बनाने की शुरुआत इसी संप्रदाय ने शुरू की थी। उन्होंने यह भी बताया कि इसकी संरचना अजंता- एलोरा- एलिफेंटा की गुफाओं से मिलती-जुलती है।

इतनी जानकारी पा कर मन शांत नहीं होता। थोड़ा और पढ़ने पर, ढूँढने पर मालूम होता है कि पांडव तो हिमालय के गाँवों तक छाए हुए हैं। सोचती हूँ, कहाँ कुरुक्षेत्र, कहाँ काम्यकवन, कहाँ महाराष्ट कहाँ हिमालय… यही होता है जब आदमी ना घर का ना घाट का। 
वैसे भी उन्हें वनवास में जीना था और करने को था क्या ? घूमते रहे, रुकते रहे, छिपते रहे, मंदिर बनाते रहें और राजस्थान से महाराष्ट्र पहुँच गए। महाराष्ट्र में उनकी बनायी कई मंदिरें हैं। 

पतालेश्वर मंदिर में एक संग्रहालय भी है। इसे गिनीज बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में स्थान भी मिला है। ऐसा पुजारी ने ही बताया था। हम कुछ देरी से पहुँचे थें। तब तक संग्रहालय बंद हो गया था। और अफ़सोस के साथ, हम इसका मुख्य आकर्षण वह चावल नहीं देख पाए जिस पर लगभग 5000 अक्षर अंकित हैं। 

इस मंदिर के पुजारी मिलनसार और समझदार है। समय लगभग हो जाने पर भी किसी को भगाते नहीं आराम से बाहर जाने को कहते हैं। 
मंदिर सुबह 8.00 बजे से शाम 5.30 बजे तक खुला रहता है। आम मंदिरों की तुलना में यहाँ भीड़ बहुत कम देखने को मिली। इसका कारण बहुत कम लोगों का इसे जानना भी हो सकता है। मैं ख़ुद सालों पुणे रह कर भी इसे कहाँ जान पायी थी ?  वह तो माँ और उसके भोलेनाथ…  

भारत यात्रा के दौरान मैं “त्र्यंबकेश्वर और घुश्मेश्वर/ घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग” के दर्शन को भी गई। लेकिन जो सुकून यहाँ मिला वह इनसब में नहीं पाया। 



Friday, 26 January 2024

राम !

“राम निरंजन न्यारा रे, अंजन सकल पसारा रेऽऽऽ … आहा, राम निरंजन…”

अमीन चाचा झूम-झूम कर गा रहे थे। आस-पास खड़े लोग उनका मज़ाक़ उड़ाते हुए कह रहे थे-“ ई अमीन साहेब नू, कहीं आपन नाच-गान शुरू कर देनी।”

हमारी कोलोनी रंग-बिरंगी थी। तरह-तरह के फूल-फलों, जीव-जंतु, जात-कुजात, हिंदू-मुस्लमान, सुंदर-कुरूप, बाल-गोपाल सब से लदी-फदी। सब एक साथ रहते। एक दूसरे से खूब हँसी-मज़ाक़ करते। 

अमीन चाचा, जाति से अहीर होने के बावजूद जनेव पहनते। खूब पूजा-पाठ करते। धार्मिक किताबें पढ़ते। खाने से पहले भगवान को भोग लगाते। एक भी एकादशी या कोई व्रत-उपवास नहीं छोड़ते। कई बार लोग मज़ाक़ में कह भी देते- “बे महाराज, रऊरा त बाभन होखे के चाहीं।” 

अमीन चाचा, क़िस्सों की खान और मैं उनकी चेली। जब वे इस भजन को गा कर झूम रहे थे, हम कुछ बच्चें भी अपना खेल छोड़ इस नाटक का हिस्सा हो लिए। जब उनका झूमना ख़त्म हुआ तो मैंने इसका अर्थ पूछा।  हँसते हुए वे बोले- “ जाओ-जाओ खेलों अभी प्रियंका, रात को आराम से इसका अर्थ बताऊँगा।”

हर रात खाने के बाद अमीन चाचा, 100 कदम चलते और हम कॉलोनी के बच्चों को भी चलने को कहते। इसी बीच क़िस्से-कहानी, गीत-भजन कुछ पढ़ाई की बातें,कुछ दुनिया के क़िस्से साथ चलते रहते । 

अब जिस भजन पर झूमते अमीन चाचा को देखने के लिए कॉलोनी में भीड़ लगी थी और कॉलोनी के जिस वाक्या ने उन्हें यह भजन गाने पर मज़बूर किया। वह वाक्या यह रहा , 

हुआ यूँ था कि हमारी कोलनी के एक घर की सीढ़ी टूट गई। सीढ़ी क्या, घर में घुसने को तीन-चार ईंट जोड़ी पैयदान। उनमें से दूसरे नंबर वाली सीढ़ी से सीमेंट की एक परत निकल गई। ईट साफ़ दिखाई देने लगा और साफ-साफ दिखाई देने लगा उसपे उकेरा ''राम'' नाम। उस  परिवार वालों की मुश्किल कि राम के नाम पर पैर धर के उतरे कैसे ? हालाँकि इसी पायदान पर पैर रगड़ -रगड़ वे बरसों उतरते -चढ़ते रहें थें।  तय हुआ की इन चुन्नू -मुन्नू सीढ़ियों को फान  कर घर में घुसा जाए। अब सरकारी मकान की मरम्मत अपने पैसा से कौन करवाये ? अगले साल फ़ंड आएगा तब बन ही जाएगा।

घर के लोग राम को फान -फान कर घर में घुसते रहें।  कॉलोनी के बच्चों का तो यह खेल बन गया था। बहाना ढूंढते रहते सब उस घर में प्रवेश पाने की।  

ऐसे में एक दिन उस परिवार की मालकीन का पैर इस कूद-फान के फेर में मुचक गया। तब वक़्त था की कोई छींक भी दे तो मोहल्ला उमड़ पड़ता देखने और मदद करने को। 

ऐसे में मिलने, हाल -चाल जानने वाले तबियत से इतर कुछ ईंट तो कुछ राम नाम का भेद मिटाने का उपाय भी बताते जातें। कुछ लोगों ने कहा- “अरे महाराज,  तबतक ईंटे को मिट्टी से लीप दीजिए।” 

कुछ ने कहा- “यह ईंटा ही उखड़वा डिज़ाइये और सब बराबर कर दीजिए।” 

कुछ ने कहा- “भगवान के नाम पर पैर रख के उतरते थे, ऐसा तो होना हो था।”

किसी ने कहा- “कोई बात, भगवान कहाँ नहीं, फिर कितना ईंटा निकलवाइयेगा ? यह सब वहम है, विश्वास रखिए।”  

किसी ने कहा- “अब तक तो पैर रख कर उतर ही रहे थे, क्या अहित हुआ ? भगवान सब माफ़ कर देते हैं। ज़्यादा सोचिए मत।”

 यही सब हो-हल्ला को सुनकर अमीन चाचा अपने रौ में बह निकले। एक क़िस्सा सबको सुनाया और कबीर का यह भजन झूम-झूम कर गाने लगे थे। 

उनका क़िस्सा यह था-  अपने काम के सिलसिले में, नहर की नापी-जोखी में उसके किनारे की कच्ची सड़क की नापी कर रहे थे। नहर के किनारे नेटूआ(एक अति पिछड़ा समुदाय ) सब झोपड़ी बना लिया था। ईंटाकरण पर ही बकरी-बासन सब होता था उनका। एक औरत उसी सड़क पर गोबर के उपले पाथ रही थी। अमीन साहब ने देखा तो हँसते हुए कहा- “का हो, गणेश जी के माथे गोबर पाथ देलू …” उस ईंटाकरण वाली सड़क के ईट पर गणेश गुदा था। उस भोली महिला ने कहा-“ का करीं साहेब, इहे भगवान के मर्जी त हमार का दोष ?”

ख़ैर, रात के भोजन के बाद टहलते हुए उन्होंने भजन का अर्थ बताया- “प्रियंका, कबीर साहब कहते हैं- “ यह समस्त संसार माया का ही पसारा है। माया रहित राम सारे जगत से परे, भिन्न है।” 

राम के नाम पर लात रखने से पाप लग जायेगा बताओ ? और राम को उखाड़ फेकने पर या उसपर सीमेंट पोतने से पाप नहीं लगेगा ? बच्चा, राम कहाँ नहीं ? सब मन का माया है… माया!” 

बीते दिनों मैंने इतना राम का नाम सुना जितना कभी नहीं सुना होगा। मुझे अमीन चाचा याद आये, याद आए कुमार गंधर्व, कबीर, कौशल्या के राम, माणिक वर्मा और शर्मा बंधु के गाए भजन। 

अब देखिये ना,  कहाँ मैं आपसे अपने जीवन का एक क़िस्सा साझा कर रही थी और इसी भजन की अगली लाइन ध्यान में आती, 

“ अंजन विद्या, पाठ-पुराण, अंजन घोकतकत हि ग्यान रे!” 

अर्थात्मा- “माया ही विद्या, पाठ और पुराण है।  यह व्यर्थ का वाचिक ज्ञान भी माया ही है।” 

और इसी माया और व्यर्थ का वाचिक ज्ञान के मोह में फँसी तपस्या एक दिन एक आइलैंड पर पहुँच जाती है। जहाँ उसे किसी देवी-देवता की उम्मीद ना थी। वहाँ उसे राम-सीता की मूर्ति दिखती है। यह अचरज से भरा अनुभव था। 

नोट- मैक्निक आइलैंड अमेरिका के सबसे खूबसूरत स्थानों में से एक है। एक ऐसी जगह जहाँ पेट्रोल-गैस से चलने वाला कोई वाहन नहीं। कोई भी दूरी आपको, पैदल, साइकिल या घोड़े गाड़ी से तय करनी होती है। अमेरिका के इस हिस्से में किसी दुकान पर राम की मूर्ति बिकना सच में माया ही था।  

Thursday, 16 November 2023

मालिनी राजूरकर !

6 सितंबर 2023 को कृष्णाअष्टमी थी। कृष्ण भजन के साथ जाने कब ऑटो प्ले से, “ होली खेलने को चले कन्हाई…” बजने लगा। मेरे साथी ने टोका भी,  “आज होली नहीं, जन्माष्टमी है तपस्या।”

मुस्कुरा कर मैंने कहा- “कुछ भी है, कृष्ण तो हैं।”

राग देश में ‘मालिनी राजूरकर’ जी की आवाज़ में मेरे घर में गूंज रही थी…और इधर मुझ अनजान को यह ख़बर तक ना थी कि आज ही मालिनी जी इस दुनिया को विदा कर गई…

शायद उन्हें मालूम हो कि झट से किसी की मौत पर तपस्या कुछ व्यक्त नहीं कर पाती चाहे वह कितना भी प्रिय हो। मुझे इस दुःख- दुविधा से बचाने के लिए चुपचाप दुनिया को विदा कर देना है…

सादगी और कला को समर्पित एक बेहद उम्दा कलाकार जाते-जाते अपनी स्वर की कृति हम नादानों के लिए छोड़ गई और साथ ही दान कर गई अपना शरीर हैदराबाद के उस्मानिया मेडिकल कॉलेज को। 

मैंने कई बार इनके बारे में लिखा है और हर बार मुझे भारत सरकार से इस बात की नाराज़गी रही की उन्हें कोई सम्मान भारत सरकार की तरफ़ से नहीं मिला जबकि उनके स्तर के कलाकार कम ही होते हैं। 

सरकार की क्या ही दुहाई दूँ, मैं ख़ुद इनके प्रति कहाँ पूरी तरह सुध में  थी…जब मन किया इन्हें सुन लिया, मिलने की आस लगा रखी पर कभी कोई प्रयास ही नहीं किया मिलने का… इतनी बेख़बर या बुरी हूँ कि मुझे इनकी मृत्यु की जानकारी 3 महीने बाद मिली…

 जबकि यह वह मालिनी राजूरकर रही, जिनकी संगीत की लिस्ट मेरी हिंदुस्तानी संगीत की प्ले लिस्ट में सबसे ऊपर है। ऐसा कभी नहीं होता जो महीने-दो महीने में मैं इन्हें ना सुन लूँ। हद तो यह कि मैंने दुर्गा पूजा के नव दिनों में भी इनकी गायी, “दुर्गा माता दयानी देवी” सुनी और तब भी यह ख़बर ना मिली। 

 बेख़बर, बेसुध, मैं दिवाली की सफ़ाई के साथ सुन रही थी, “ अब तो कहूँ ना जा रे, ये पिया मोरा…” और इसी के साथ याद आया सुनने को , “ काहे अब तुम आए हो मेरे द्वारे…” 

यु ट्यूब कई बार प्ले लिस्ट से गानो को जाने क्यों हटा देता है और खीजती मैं, सर्च करने लगे मालिनी राजूरकर , राग केदार। मुझे तभी यह ख़बर दिखी और मैं चौंक गई… तीन महीनें बीत गए … 

ग्लानि इतनी की शब्दों में बता नहीं सकती… आँखें नम थी और मैं यूँ ही जाने क्या-क्या सोचने लगी सब काम छोड़ कर… 

शायद इसे ही कहते है, कोई तुम्हारे बीच से चुपचाप उठ कर चला गया और तुम्हें ख़बर भी नहीं हुई… 

कैसी प्रेमी रही तुम तपस्या…

मुझे माफ़ कर दें, मालिनी राजूरकर जी। 

मुझे विश्वास है आप दूसरी दुनिया में भी अपनी सादगी और संगीत को समर्पित होंगी। गन्धर्वों के बीच होकर भी किसी कोने में अपने टप्पा से सबको मोहित कर रही होंगी। गा रही होंगी मुझे देख कर  अपनी प्यारी सी हँसी के साथ, 

“ऐसा तो मोरा सइयाँ निपट अनाड़ी भये”

Tuesday, 11 April 2023

एक खूबसूरत शहर “टूसोन” 

टूसोन,  एरिज़ोना राज्य का एक खूबसूरत शहर है। पहाड़ों के बीच बसा यह शहर मुझे कुछ-कुछ कोलोराडो, डेनवर की याद दिला रहा था। दोनों के बीच मुख्य अंतर मौसम और आर्किटेट का है। टूसोन गरम जगह है और डेनवर का मौसम अधिकतर ठंढा रहता है। हाँ डेनवर में हरियाली और कई छोटी-बड़ी नदियाँ दिख जायेंगी वहीं टूसोन मरूभूमि पर बसा है। टूसोन में स्पेनिश कल्चर का बड़ा प्रभाव दिखता है और डेनवर अमेरिका के आम शहर सा दिखता है।

टूसोन के रंग-बिरंगे घर, उन्में भी ज़्यादातर पीला-नारंगी मुझे अपनी ओर खींच रहे थे। मुझे इन रंगो से खास लगाव है। मेरा बचपन इन्हीं रंगों की कालोनी में बड़ा हुआ। 

यहाँ के म्यूज़ियम, चर्च,  दुकानें और घर , खूबसूरत स्पैनिश कॉलोनियल आर्किटेक्चर का बेहतरीन नमूना है। 

डाउनटॉउन थोड़ा तंग लगा मुझे पर बहुत ही खूबसूरत। तंग लगने का कारण जहाँ -तहाँ रोड बनने के लिए बैरिकेट। एक बार तो हमे समझ ही नही आया और गलत लेन में घुस गए। वह तो ग़नीमत रही कि उधर से कोई गाड़ी नही आ रही थी। गलत साइड से आगे बढ़ने के सिवा कोई चारा ना था। पीछे गाड़ी जा नही सकती थी। भगवान की कृपा रही की कोई गाड़ी नही आ रही थी। थोड़ी दूर पर हमें एक कट दिखा जो एक दुकान की तरफ़ जाता था। हम उधर ही मुड गए। गलत लेन में होने से थोड़ी घबराहट तो हो ही रही थी पर डर तब लगा जब बगल से एक पुलिस वाला गुजरा। हमे लगा कि अब तो पका फ़ाइन लगेगा पर वह आगे बढ़ गया। शायद रोड कंस्ट्रक्शन की  वजह से लोगों से यह भूल हो जा रही होगी, यह वह पुलिस वाला जानता होगा। 

ख़ैर, हम उस दुकान के आगे थोड़ी देर रुके। फिर जहाँ जाना था उसका मैप फिर से देखने लगे। स्पेनिश नाम होने की वजह से ऐड्रेस  ठीक से मिल नही रहा था। 

थोड़ी देर बाद, जी पी एस, “पीमा काउंटी कोर्टहाउस” दो मिनट की दूरी पर दिखा रहा था। हम चल पड़े… फिर पार्किंग और रोड की जाल में उलझ कर झल्ला उठे।

 मैंने उदास हो कर कहा- “ रहने दीजिए। चलते हैं, ऑल्ड टूसोन”

“अरे रुको भी , जब यहाँ तक आ गए हैं तो देख ही लो” कहते हुए साथी ने एक जगह कार पार्क की और कहा- “ गाड़ी वापस उस घनचक्कर में ले जाने की हिम्मत नही, तपस्या। तुम भाग कर जाओ, वह रहा पीमा। दो मिनट का वॉकिंग डिस्टेंस है।”

“अरे चलिए ना आप भी, जल्दी आ जाएँगे।” 

“नही, मैं गाड़ी में ही हूँ। यह पार्किंग आम पब्लिक की नही लग रही है। गाड़ी कहीं टो ना हो जाए। वैसे भी मुझे कॉर्ट हाउस में कोई रुचि नही।”  

रुचि तो मुझे भी नही पर इसकी बनावट देखनी थी। इसके ठीक पीछे का खूबसूरत बाग , ‘एल पर्सिडियो’ देखना था। इससे वॉकिंग डिस्टेंस पर स्थित आर्ट म्यूज़ियम देखना था। पर मैंने सिर्फ़ पीमा और एल पर्सिडियो देखा। वह भी भाग-भाग कर। मुझे साथी को अकेले छोड़ आने का मलाल हो रहा था। 

इसके बाद हम निकल पड़े, ‘ओल्ड टूसोन’ की तरफ़। यहाँ हमें देखना था एक थियेटर, ‘टीकेट्रो कारमेन’  एक ऐसा थियेटर जिसका बरसों का इतिहास रहा और सैकड़ों नाटक हुए यहाँ पर आज यह बंद है। बंद दरवाज़े की कुछ तस्वीर ली। आसपास थोड़ा पैदल-पैदल घूमे और चल पड़े , “मिशन सन ज़ेवियर डेल आइक” चर्च की तरफ़। 

मिशन सन ज़ेवियर डेल आइक, चर्च यहाँ से क़रीब बीस मिनट की दूरी पर है। हल्का पीला-सफ़ेद और ईंट के रंग से गढ़ा यह खूबसूरत भवन, बार- बार मेरी आँखों की चमक के साथ होठों के कोने को बड़ा करते जा रहा था।  खूबसूरती आँखों में भरती मैं आगे बढ़ रही थी कि तभी इसके एक गेट के पार एक कैक्ट्स दिखा। अकेला कैक्ट्स गेट के पार मानो मुक्त भाव से खड़ा था। थोड़ी देर मैं रुकी रही कि आगे चलने का वक्त हो आया। 

अंतिम ठिकाने पर हमें चार बजे से पहले पहुँचना था। अलरेडी ढाई बज गए थे और वह जगह यहाँ से क़रीब एक घंटे की दूरी पर था। जगह थी, एक आर्ट गैलरी। 

यहाँ के प्रसिद्ध आर्टिस्ट , “डी ग्रेजिया” की यह आर्ट गैलरी है। इसका नाम “गैलरी इन द सन म्यूज़ियम” है। सामने पहाड़ और उसके पीछे यह गैलरी उफ़्फ क्या सुंदर नजारा था … 

मन कह रहा था, टूसोन में मुझे एक और दिन मिलना चाहिए था पर लौटने की तारीख़ तय थी। 

इस शहर की कुछ तस्वीरें, 

पीमा कॉर्टहाउस 
पार्क 

थियेटर ,
चर्च 




जैमिनी रॉय !

अमेरिका में रहने के हिसाब से हम भारतीय डाउंटाउन को कम ही प्रीफ़र करते हैं। इसका पहला कारण महँगें घर और दूसरा सुरक्षा। वैसे इसका एक तीसरा कारण यह भी है कि भारतीय किराना दुकान, मंदिर आदि जगहें भी डाउनटाउन से कई शहरों में दूर पड़ती हैं। पर इन सबके बावजूद अपने भारत जैसी चहल-पहल आपको डाउनटाउन में ही ज़्यादा दिखेगी। अगर कोई भारतीय यहाँ पहली बार आया और अपटाउन में रहने को मिल गया उसे तो उसे लगेगा यह किस सुनसान शहर में आ गया। 

ऐसे में मुझे एक बार डाउनटाउन में रहने का मौक़ा मिला। जगह थी, स्टैमफ़ोर्ड, कनेक्टिकट। पहली बार मैं किसी नव मंजिलें बिल्डिंग में यहाँ रह रही थी। नीचे उतरते ही बाज़ार, चमक-धमक। वॉकिंग- जॉगिंग करते लोग और ऐसे में दिल्ली की याद कि हाँ, यह जगह कुछ-कुछ हमारे भारत सा है। रोज़मर्रा के जीवन में रौनक़ है।

हम घूमते-फिरते कई बार मुख्य बाज़ार के गोलंबर तक पहुँच जाते। यहाँ शाम को खूब चहल-पहल होती। एक छोटा सा पार्क उससे घिरे कई खाने-पीने की दुकानें। खुले में फूलों की डाली से सजी कुर्सियाँ और उनके ऊपर झिलमिल रौशनी की छत जिससे आसमान झांकता, मुझे यह सब बड़ा सुंदर लगता। मैं वही पार्क के बीच किसी बेंच पर बैठ जाती।

पार्क के आस-पास कई छोटी-छोटी दुकानें हैं। इसके ठीक सामने एक सिनेमाघर है। कुछ दुकानों की दूरी पर ही एक खूबसूरत पुस्तकालय। उसके बग़ल में बैंक और कोने में एक चर्च। वैसे कनेक्टिकट के छोटे से डाउनटाउन में तीन-चार खूबसूरत छोटे-छोटे चर्च हैं। 

एक शाम यूँ ही घूमते हुए मुझे कुछ पेंटिंगस दिखी, बैंक और पुस्तकालय के बीच। 



कनेक्टिकट डाऊनटाउन में कुछ -कुछ जगहों पर लोहे की पत्तर जैसा बॉक्स बना हुआ है। हर कुछ महीनों में लोकल या इंटरनेशनल आर्टिस्ट यहाँ अपनी कला का नमूना लगाते रहते हैं। 



हाँ, तो उन पेंटिंग को देख कर मैं चहक पड़ी, “अरे! यह तो किसी भारतीय की कला लग रही है।” पेंटिंग देख इतना तो मालूम हो गया की मधुबनी आर्ट है पर कलाकार का नाम नही मालूम था मुझे। मैं इन पेंटिंग को देख कर बहुत ख़ुश थी। इनकी तस्वीरें ली और घर आकर गूगल की मदद से ऑर्टिस्ट का नाम पता करने लगी। 



कुछ देर बाद ली गई तस्वीर से मिलती-जुलती कुछ तस्वीरें गूगल पर मिली तब जा कर मालूम हुआ कि ये पेंटिंग , “जैमिनी रॉय” की है। उस दिन मैंने इन्हें पहली बार जाना। 

अप्रैल में इनका जन्मदिन बिता है यह आज मुझे यह ध्यान आया। जन्मदिन बीत गया तो क्या ? क्या कभी किसी कलाकार की कला बीतती है …





Friday, 7 April 2023

जन्मशताब्दी, कुमार गंधर्व !

 


आज से कुमार गंधर्व की जन्मशताब्दी वर्ष शुरू होने जा रही है।   “शिवपुत्र सिद्धरामैया कोमकाली” जिन्हें बचपन में उनकी गायन के लिए कुमार गंधर्व की उपाधि मिली और फिर वे समय के साथ “पंडित कुमार गंधर्व” हो गए। 

समय ने करवट ली और क्षय रोग से पीड़ित यह गंधर्व छह वर्ष तक गा नही पाए। पर जब किसी चीज में आत्मा बसती है ना ना तो वह लौट कर किसी भी रूप में आपके पास आती हीं है। इन्होंने ने अपनी एक नयी गायन शैली बना ली। 

कबीर का चिंतन और पंडित कुमार गंधर्व की गंभीर आवाज एक अलग ही आध्यात्म की अनुभूति। एक ऐसी दुनिया जहाँ से आप वापस आना ना चाहो। कबीर जहाँ स्वतंत्र चिंतक रहें वही दूसरी ओर पंडित जी बिना किसी घराने के बंधक। क्या अलौकिक मिलाप हुआ इनका… 

मैंने इन्हें पहली बार कब सुना उसका क़िस्सा बताती हूँ। 

पुणे की सुबह थी। मैं और मेरी दोस्त कैफेटेरिया में नस्ता कर रहे थें। रेडियो पर एक गीत बज रहा था और प्रशंसा(मेरी दोस्त) भावुक हो रही थी। यार तपस्या, इस गीत से बचपन की कितनी यादें जुड़ी हैं। हमारी सोसाइटी में एक आजोबा(दादा) थें। वे रोज सुबह मुहल्ले के बच्चों को दौड़, सूर्यनमस्कार को इकट्ठा करते। इसके बाद कुछ संस्कार-ज्ञान की बातें बताते। सुबह उठने में हम आलस करते पर वह छोटे से टेप रिकॉर्ड पर यही गीत बजाते हर बिल्डिंग के गेट पर थोड़ी देर रुकते और मम्मी जबरन हमे उठा कर नीचे भेज देती कि- हे उठ गे,  काकू, थामले आहे। 

तब मैं पुणे में नई थी। मराठी भी बहुत कम समझ पाती। मैंने कहा, मुझे तो कुछ समझ नही आ रहा और हँसने लगी। उसने मुझे तब इसका अर्थ बताया और कहा, यह भी शुद्ध ट्रांसलेशन नही। यह भाव भर है। इसका ट्रांसलेशन मैं ठीक से कर नही पाऊँगी हिंदी में। 

आज इस गाने को सुनकर और थोड़ा प्रशंसा को याद कर मैं अपने हिसाब से इस गीत का अर्थ पोस्ट के अंत में लगा दूँगी।वह भी भाव भर ही होगा… 

कुछ सालों बाद मैं और भाई दिल्ली में रहने लगे। तब भाई मेरा सरोद बजाना सीख रहा था। वह गीत-संगीत के कई क़िस्से बताता। बाबा अलाउद्दीन के तो जाने कितने क़िस्से… इसी बीच उसने कुमार जी के बारे में भी बताया पर उस वक़्त तो मैं किसी और दुनिया में मशगूल रहती थी। इस तरह की संगीत की ना तो समझ थी और ना ही सुनने की ईक्षा। भाई को भी कभी चिढ़ाती तो कभी लड़ती कि, क्या यह दिन भर आ -आ बजाते रहते हो ? 

धीरे -धीरे चिढ़ते -चिड़ाते,  मुझे भी मालूम नही कब "हिंदुस्तानी क्लासिकल "अच्छा लगने लगा। हालाँकि अभी भी इसमें मेरा ज्ञान काफी कम है पर मैं इसे अब घंटों सुन सकती हूँ। 

वो क्या है ना ,दावा कड़वी होती है पर असर तो करती ही है। यही हाल है हिंदुस्तानी क्लासिकल का। दिमाग और मन का टॉनिक है यह।

कुमार जी, उनके निर्गुण और गायन को आपने सुना ही होगा। मैंने भी पहले इस पर कई बार लिखा है। आज उसी मराठी गीत को साझा करती हूँ जिससे पहली बार इन्हें जाना। अपनी दोस्त को भी याद कर रहीं हूँ, जिसके साथ बहुत खूबसूरत पल गुजारे। मैं इस पल उसे कितना मिस कर रही हूँ और वह कमबख़्त जर्मनी में खर्राटे ले रही होगी। ख़ैर आप सुनिए यह मराठी गीत। और हाँ, कुमार जी का कितना सुंदर साथ दिया है वाणी जयराम जी ने। 

* गीत के भाव कुछ यूँ है, “ किसी से प्रेम का जो ऋण बंधा वह जन्मों जन्म तक चलता है। हर जन्म में हँसना, रोना, सुख-दुःख की गहरी फुसफुसाहट हो तो भी हमे उस ऋण को चुकाने, जन्म लेना हीं पड़ता है। वह सुंदर प्रेम में नाराज़ हो जाती और कभी उसके बिना मिलती भी नही। नाराज़गी में भी जब वह मुस्काती तो कितनी सुंदर लगती। नाराज़ होना, मुस्कुराना फिर नाराज़ होना कितना सुंदर है, मोहक है। इसी मुस्कुराने और नाराज़ होने के लिए जन्मों जन्म मिलता है हमें।