Friday, 26 January 2024

राम !

“राम निरंजन न्यारा रे, अंजन सकल पसारा रेऽऽऽ … आहा, राम निरंजन…”

अमीन चाचा झूम-झूम कर गा रहे थे। आस-पास खड़े लोग उनका मज़ाक़ उड़ाते हुए कह रहे थे-“ ई अमीन साहेब नू, कहीं आपन नाच-गान शुरू कर देनी।”

हमारी कोलोनी रंग-बिरंगी थी। तरह-तरह के फूल-फलों, जीव-जंतु, जात-कुजात, हिंदू-मुस्लमान, सुंदर-कुरूप, बाल-गोपाल सब से लदी-फदी। सब एक साथ रहते, एक दूसरे से खूब हँसी-मज़ाक़ करते। 

अमीन चाचा, जाति से अहीर होने के बावजूद जनेव पहनते, खूब पूजा-पाठ करते, धार्मिक किताबें पढ़ते। खाने से पहले भगवान को भोग लगाते। एक भी एकादशी या कोई व्रत-उपवास नहीं छोड़ते। कई बार लोग मज़ाक़ में कह भी देते- “बे महाराज, रऊरा त बाभन होखे के चाहीं।” 

अमीन चाचा, क़िस्सों की खान और मैं उनकी चेली। जब वे इस भजन को गा कर झूम रहे थे, हम कुछ बच्चें भी अपना खेल छोड़ इस नाटक का हिस्सा हो लिए। नाटक ख़त्म हुआ तो मैंने इसका अर्थ पूछा।  हँसते हुए वे बोले- “ जाओ-जाओ खेलों अभी प्रियंका, रात को आराम से इसका अर्थ बताऊँगा।”

हर रात खाने के बाद अमीन चाचा, 100 कदम चलते और हम बच्चों को भी चलने को कहते। इसी बीच क़िस्से-कहानी, गीत-भजन कुछ पढ़ाई की बातें चलती रहती। 

अब जिस बात पर भीड़ लगी थी और उन्होंने झूमते हुए यह भजन गया वह क़िस्सा यूँ रहा, 

हमारी कोलनी के एक घर की सीढ़ी टूट गई। सीढ़ी क्या, घर में घुसने को तीन-चार पैयदान। उनमें से दूसरे नंबर वाली सीढ़ी से सीमेंट की एक परत निकल गई। ईटा साफ़ दिखाई देने लगा और उसपे गुदा राम तो और साफ़। परिवार वालों की मुश्किल कि राम के नाम पर पैर धर के उतरे कैसे ? हालाँकि ये तीन-चार पैयदान ना भी होते तो भी घर में घुसा जा सकता था। शायद शो ले लिए बना हुआ था। 

अब सरकारी मकान का मरम्मत अपने पैसा से कौन करवाये ? साल में फ़ंड आएगा तब बन ही जाएगा। तबतक एक सीढ़ी फान कर परिवार वाले उतरने लगे। बच्चों का तो खेल बन गया था। 

ऐसे में एक दिन उस परिवार की मालकीन का पैर इस कूद-फान के फेर में मुचक गया।

कुछ लोगों ने कहा- “अरे महाराज,  तबतक ईंटे को मिट्टी से लीप दीजिए।” कुछ ने कहा- “यह ईंटा उखड़वा डिज़ाइये और सब बराबर कर दीजिए।” कुछ ने कहा- “भगवान के नाम पर पैर रख के उतरते थे, ऐसा तो होना हो था।” मेरी माँ ने कहा- “कोई बात, भगवान कहाँ नहीं, फिर कितना ईंटा निकलवाइयेगा ? यह सब वहम है, विश्वास रखिए।”  किसी ने कहा- “अब तक तो पैर रख कर उतर ही रहे थे, भगवान सब माफ़ कर देते हैं। ज़्यादा सोचिए मत।”

 यही सब हो-हल्ला को सुनकर अमीन चाचा अपने रौ में बह निकले। एक क़िस्सा सबको सुनाया और कबीर का यह भजन झूम-झूम कर गाने लगे थे। 

उनका क़िस्सा यह था- नहर के नापी-जोखी में उसके किनारे की कच्ची सड़क की नापी कर रहे थे। नहर के किनारे नेटूआ सब झोपड़ी बना लिया था। ईंटाकरण पर ही बकरी-बासन सब होता था उनका। एक औरत उसी सड़क पर गोबर के उपले पाथ रही थी। अमीन साहब ने देखा तो हँसते हुए कहा- “का हो, गणेश जी के माथे गोबर पाथ देलू …” उस ईंटाकरण वाली सड़क के ईट पर गणेश गुदा था। उस भोली महिला ने कहा-“ का करीं साहेब, इहे भगवान के मर्जी त हमार का दोष ?”

ख़ैर, रात को टहलते हुए उन्होंने भजन का अर्थ बताया- “प्रियंका, कबीर साहब कहते हैं- “ यह समस्त संसार माया का ही पसारा है। माया रहित राम सारे जगत से परे, भिन्न है।” राम के नाम पर लात रखने से पाप लग जायेगा बताओ ? और राम को उखाड़ फेकने पर या उसपर सीमेंट पोतने पर पाप नहीं लगेगा ? बच्चा, राम कहाँ नहीं ? सब मन का माया है… माया!” 

बीते दिनों मैंने इतना राम का नाम सुना जितना कभी नहीं सुना होगा। मुझे अमीन चाचा याद आये, याद आए कुमार गंधर्व, कबीर, कौशल्या के राम, माणिक वर्मा और शर्मा बंधु के गाए भजन। 

अब देखिये ना,  कहाँ मैं आपसे अपने जीवन का एक क़िस्सा शेयर कर रही थी और इसी भजन की अगली लाइन ध्यान में आती, 

“ अंजन विद्या, पाठ-पुराण, अंजन घोकतकत हि ग्यान रे!” 

अर्थात्मा- “माया ही विद्या, पाठ और पुराण है।  यह व्यर्थ का वाचिक ज्ञान भी माया ही है।” 

और इसी माया और व्यर्थ का वाचिक ज्ञान के मोह में फँसी तपस्या एक दिन एक आइलैंड पर पहुँच जाती है। जहाँ उसे किसी देवी-देवता की उम्मीद ना थी। वहाँ उसे राम-सीता की मूर्ति दिखती है। यह अचरज से भरा था। 

नोट- मैक्निक आइलैंड अमेरिका के सबसे खूबसूरत स्थानों में से एक है। एक ऐसी जगह जहाँ पेट्रोल-गैस से चलने वाला कोई वाहन नहीं।कोई भी दूरी आपको, पैदल, साइकिल या घोड़े गाड़ी से तय करनी होगी। इस आइलैंड और इस राम की मूर्ति के मिलने का क़िस्सा पहले भी लिख चूँकि हूँ। आज याद करती हूँ तो सब माया ही लगता है। 

हाँ, राम के जो भजन मुझे पसंद हैं, उनका लिंक कमेंट बॉक्स में है। मन करे तो सुने। 

Thursday, 16 November 2023

मालिनी राजूरकर !

6 सितंबर 2023 को कृष्णाअष्टमी थी। कृष्ण भजन के साथ जाने कब ऑटो प्ले से, “ होली खेलने को चले कन्हाई…” बजने लगा। मेरे साथी ने टोका भी,  “आज होली नहीं, जन्माष्टमी है तपस्या।”

मुस्कुरा कर मैंने कहा- “कुछ भी है, कृष्ण तो हैं।”

राग देश में ‘मालिनी राजूरकर’ जी की आवाज़ में मेरे घर में गूंज रही थी…और इधर मुझ अनजान को यह ख़बर तक ना थी कि आज ही मालिनी जी इस दुनिया को विदा कर गई…

शायद उन्हें मालूम हो कि झट से किसी की मौत पर तपस्या कुछ व्यक्त नहीं कर पाती चाहे वह कितना भी प्रिय हो। मुझे इस दुःख- दुविधा से बचाने के लिए चुपचाप दुनिया को विदा कर देना है…

सादगी और कला को समर्पित एक बेहद उम्दा कलाकार जाते-जाते अपनी स्वर की कृति हम नादानों के लिए छोड़ गई और साथ ही दान कर गई अपना शरीर हैदराबाद के उस्मानिया मेडिकल कॉलेज को। 

मैंने कई बार इनके बारे में लिखा है और हर बार मुझे भारत सरकार से इस बात की नाराज़गी रही की उन्हें कोई सम्मान भारत सरकार की तरफ़ से नहीं मिला जबकि उनके स्तर के कलाकार कम ही होते हैं। 

सरकार की क्या ही दुहाई दूँ, मैं ख़ुद इनके प्रति कहाँ पूरी तरह सुध में  थी…जब मन किया इन्हें सुन लिया, मिलने की आस लगा रखी पर कभी कोई प्रयास ही नहीं किया मिलने का… इतनी बेख़बर या बुरी हूँ कि मुझे इनकी मृत्यु की जानकारी 3 महीने बाद मिली…

 जबकि यह वह मालिनी राजूरकर रही, जिनकी संगीत की लिस्ट मेरी हिंदुस्तानी संगीत की प्ले लिस्ट में सबसे ऊपर है। ऐसा कभी नहीं होता जो महीने-दो महीने में मैं इन्हें ना सुन लूँ। हद तो यह कि मैंने दुर्गा पूजा के नव दिनों में भी इनकी गायी, “दुर्गा माता दयानी देवी” सुनी और तब भी यह ख़बर ना मिली। 

 बेख़बर, बेसुध, मैं दिवाली की सफ़ाई के साथ सुन रही थी, “ अब तो कहूँ ना जा रे, ये पिया मोरा…” और इसी के साथ याद आया सुनने को , “ काहे अब तुम आए हो मेरे द्वारे…” 

यु ट्यूब कई बार प्ले लिस्ट से गानो को जाने क्यों हटा देता है और खीजती मैं, सर्च करने लगे मालिनी राजूरकर , राग केदार। मुझे तभी यह ख़बर दिखी और मैं चौंक गई… तीन महीनें बीत गए … 

ग्लानि इतनी की शब्दों में बता नहीं सकती… आँखें नम थी और मैं यूँ ही जाने क्या-क्या सोचने लगी सब काम छोड़ कर… 

शायद इसे ही कहते है, कोई तुम्हारे बीच से चुपचाप उठ कर चला गया और तुम्हें ख़बर भी नहीं हुई… 

कैसी प्रेमी रही तुम तपस्या…

मुझे माफ़ कर दें, मालिनी राजूरकर जी। 

मुझे विश्वास है आप दूसरी दुनिया में भी अपनी सादगी और संगीत को समर्पित होंगी। गन्धर्वों के बीच होकर भी किसी कोने में अपने टप्पा से सबको मोहित कर रही होंगी। गा रही होंगी मुझे देख कर  अपनी प्यारी सी हँसी के साथ, 

“ऐसा तो मोरा सइयाँ निपट अनाड़ी भये”

Tuesday, 11 April 2023

एक खूबसूरत शहर “टूसोन” 

टूसोन,  एरिज़ोना राज्य का एक खूबसूरत शहर है। पहाड़ों के बीच बसा यह शहर मुझे कुछ-कुछ कोलोराडो, डेनवर की याद दिला रहा था। दोनों के बीच मुख्य अंतर मौसम और आर्किटेट का है। टूसोन गरम जगह है और डेनवर का मौसम अधिकतर ठंढा रहता है। हाँ डेनवर में हरियाली और कई छोटी-बड़ी नदियाँ दिख जायेंगी वहीं टूसोन मरूभूमि पर बसा है। टूसोन में स्पेनिश कल्चर का बड़ा प्रभाव दिखता है और डेनवर अमेरिका के आम शहर सा दिखता है।

टूसोन के रंग-बिरंगे घर, उन्में भी ज़्यादातर पीला-नारंगी मुझे अपनी ओर खींच रहे थे। मुझे इन रंगो से खास लगाव है। मेरा बचपन इन्हीं रंगों की कालोनी में बड़ा हुआ। 

यहाँ के म्यूज़ियम, चर्च,  दुकानें और घर , खूबसूरत स्पैनिश कॉलोनियल आर्किटेक्चर का बेहतरीन नमूना है। 

डाउनटॉउन थोड़ा तंग लगा मुझे पर बहुत ही खूबसूरत। तंग लगने का कारण जहाँ -तहाँ रोड बनने के लिए बैरिकेट। एक बार तो हमे समझ ही नही आया और गलत लेन में घुस गए। वह तो ग़नीमत रही कि उधर से कोई गाड़ी नही आ रही थी। गलत साइड से आगे बढ़ने के सिवा कोई चारा ना था। पीछे गाड़ी जा नही सकती थी। भगवान की कृपा रही की कोई गाड़ी नही आ रही थी। थोड़ी दूर पर हमें एक कट दिखा जो एक दुकान की तरफ़ जाता था। हम उधर ही मुड गए। गलत लेन में होने से थोड़ी घबराहट तो हो ही रही थी पर डर तब लगा जब बगल से एक पुलिस वाला गुजरा। हमे लगा कि अब तो पका फ़ाइन लगेगा पर वह आगे बढ़ गया। शायद रोड कंस्ट्रक्शन की  वजह से लोगों से यह भूल हो जा रही होगी, यह वह पुलिस वाला जानता होगा। 

ख़ैर, हम उस दुकान के आगे थोड़ी देर रुके। फिर जहाँ जाना था उसका मैप फिर से देखने लगे। स्पेनिश नाम होने की वजह से ऐड्रेस  ठीक से मिल नही रहा था। 

थोड़ी देर बाद, जी पी एस, “पीमा काउंटी कोर्टहाउस” दो मिनट की दूरी पर दिखा रहा था। हम चल पड़े… फिर पार्किंग और रोड की जाल में उलझ कर झल्ला उठे।

 मैंने उदास हो कर कहा- “ रहने दीजिए। चलते हैं, ऑल्ड टूसोन”

“अरे रुको भी , जब यहाँ तक आ गए हैं तो देख ही लो” कहते हुए साथी ने एक जगह कार पार्क की और कहा- “ गाड़ी वापस उस घनचक्कर में ले जाने की हिम्मत नही, तपस्या। तुम भाग कर जाओ, वह रहा पीमा। दो मिनट का वॉकिंग डिस्टेंस है।”

“अरे चलिए ना आप भी, जल्दी आ जाएँगे।” 

“नही, मैं गाड़ी में ही हूँ। यह पार्किंग आम पब्लिक की नही लग रही है। गाड़ी कहीं टो ना हो जाए। वैसे भी मुझे कॉर्ट हाउस में कोई रुचि नही।”  

रुचि तो मुझे भी नही पर इसकी बनावट देखनी थी। इसके ठीक पीछे का खूबसूरत बाग , ‘एल पर्सिडियो’ देखना था। इससे वॉकिंग डिस्टेंस पर स्थित आर्ट म्यूज़ियम देखना था। पर मैंने सिर्फ़ पीमा और एल पर्सिडियो देखा। वह भी भाग-भाग कर। मुझे साथी को अकेले छोड़ आने का मलाल हो रहा था। 

इसके बाद हम निकल पड़े, ‘ओल्ड टूसोन’ की तरफ़। यहाँ हमें देखना था एक थियेटर, ‘टीकेट्रो कारमेन’  एक ऐसा थियेटर जिसका बरसों का इतिहास रहा और सैकड़ों नाटक हुए यहाँ पर आज यह बंद है। बंद दरवाज़े की कुछ तस्वीर ली। आसपास थोड़ा पैदल-पैदल घूमे और चल पड़े , “मिशन सन ज़ेवियर डेल आइक” चर्च की तरफ़। 

मिशन सन ज़ेवियर डेल आइक, चर्च यहाँ से क़रीब बीस मिनट की दूरी पर है। हल्का पीला-सफ़ेद और ईंट के रंग से गढ़ा यह खूबसूरत भवन, बार- बार मेरी आँखों की चमक के साथ होठों के कोने को बड़ा करते जा रहा था।  खूबसूरती आँखों में भरती मैं आगे बढ़ रही थी कि तभी इसके एक गेट के पार एक कैक्ट्स दिखा। अकेला कैक्ट्स गेट के पार मानो मुक्त भाव से खड़ा था। थोड़ी देर मैं रुकी रही कि आगे चलने का वक्त हो आया। 

अंतिम ठिकाने पर हमें चार बजे से पहले पहुँचना था। अलरेडी ढाई बज गए थे और वह जगह यहाँ से क़रीब एक घंटे की दूरी पर था। जगह थी, एक आर्ट गैलरी। 

यहाँ के प्रसिद्ध आर्टिस्ट , “डी ग्रेजिया” की यह आर्ट गैलरी है। इसका नाम “गैलरी इन द सन म्यूज़ियम” है। सामने पहाड़ और उसके पीछे यह गैलरी उफ़्फ क्या सुंदर नजारा था … 

मन कह रहा था, टूसोन में मुझे एक और दिन मिलना चाहिए था पर लौटने की तारीख़ तय थी। 

इस शहर की कुछ तस्वीरें, 

पीमा कॉर्टहाउस 
पार्क 

थियेटर ,
चर्च 




जैमिनी रॉय !

 अमेरिका में मैंने कितने ही कलाकारों- लेखकों के घरों को म्यूज़ियम के रूप में देखा है। मुझे सच में नहीं मालूम की क्यों मैं इन्हें ढूँढ-ढूँढ कर देखने जाती हूँ। बस मुझे भीतर से बहुत अच्छा लगता है।

इंडियाना आने के बाद मैंने ओहायो राज्य के दो- तीन फेरे काटे सिर्फ़   “मैरी ऑलिवर” के घर को ढूढ़ने के लिए। उनका घर तो नहीं मिला पर गूगल को मेरा टेस्ट मालूम हो गया है। 

बीते महीनें मुझे एक ख़बर दिखी - प्रसिद्ध चित्रकार, “जैमिनी रॉय” के कोलकाता स्थित घर को संग्रहाल में बदला जाएगा। 

साल 2016-17 का वक्त था। हम स्टैमफ़ोर्ड, कनेक्टिकट के डाउनटाउन में रहते थें। वॉकिंग के आदि घूमते-फिरते कई बार मुख्य बाज़ार तक पहुँच जाते। यहाँ शाम को खूब चहल-पहल होती। एक छोटा सा पार्क उससे घिरे कई खाने-पीने की दुकान, ओपन में फूलों के डली से सजी कुर्सियाँ और उनके ऊपर झिलमिल रौशनी की छत जिससे आसमान झांकता, मुझे बड़ा सुंदर लगता। 

पार्क के सामने एक सिनेमाघर उससे थोड़ी दूर पर ही एक खूबसूरत पुस्तकालय, बग़ल में बैंक और कोने में एक चर्च। 

एक शाम घूमते हुए मुझे कुछ पेंटिंग दिखी, बैंक और पुस्तकालय के बीच। 



कनेक्टिकट  डाऊनटाउन में कुछ -कुछ जगहों पर लोहे की पत्तर जैसा बॉक्स बना हुआ है। हर कुछ महीनों में लोकल या इंटरनेशनल आर्टिस्ट यहाँ अपनी कला का नमूना लगाते हैं। 



हाँ, तो उन पेंटिंग को देख कर मैं चहक पड़ी, “अरे शतेश, यह तो किसी भारतीय की कला लग रही है।” पेंटिंग देख इतना तो मालूम हो गया की मधुबनी आर्ट है पर कलाकार का नाम नही मालूम हुआ। 



घर आ कर ली गई फोटो से मिलती-जुलती तस्वीर गूगल पर ढूढ़ने लगी। तब जा कर मालूम हुआ कि ये पेंटिंग , “जैमिनी रॉय” की है। उस दिन पहली बार मैंने इन्हें जाना। 

आज इनका जन्मदिन है और इनके घर को संग्रहालय में तब्दील करने की खबर ने खुशी को दुगना कर दिया है।

भारत में ऐसे और संग्रहालय होने ही चाहिए।





Friday, 7 April 2023

जन्मशताब्दी, कुमार गंधर्व !

 


आज से कुमार गंधर्व की जन्मशताब्दी वर्ष शुरू होने जा रही है।   “शिवपुत्र सिद्धरामैया कोमकाली” जिन्हें बचपन में उनकी गायन के लिए कुमार गंधर्व की उपाधि मिली और फिर वे समय के साथ “पंडित कुमार गंधर्व” हो गए। 

समय ने करवट ली और क्षय रोग से पीड़ित यह गंधर्व छह वर्ष तक गा नही पाए। पर जब किसी चीज में आत्मा बसती है ना ना तो वह लौट कर किसी भी रूप में आपके पास आती हीं है। इन्होंने ने अपनी एक नयी गायन शैली बना ली। 

कबीर का चिंतन और पंडित कुमार गंधर्व की गंभीर आवाज एक अलग ही आध्यात्म की अनुभूति। एक ऐसी दुनिया जहाँ से आप वापस आना ना चाहो। कबीर जहाँ स्वतंत्र चिंतक रहें वही दूसरी ओर पंडित जी बिना किसी घराने के बंधक। क्या अलौकिक मिलाप हुआ इनका… 

मैंने इन्हें पहली बार कब सुना उसका क़िस्सा बताती हूँ। 

पुणे की सुबह थी। मैं और मेरी दोस्त कैफेटेरिया में नस्ता कर रहे थें। रेडियो पर एक गीत बज रहा था और प्रशंसा(मेरी दोस्त) भावुक हो रही थी। यार तपस्या, इस गीत से बचपन की कितनी यादें जुड़ी हैं। हमारी सोसाइटी में एक आजोबा(दादा) थें। वे रोज सुबह मुहल्ले के बच्चों को दौड़, सूर्यनमस्कार को इकट्ठा करते। इसके बाद कुछ संस्कार-ज्ञान की बातें बताते। सुबह उठने में हम आलस करते पर वह छोटे से टेप रिकॉर्ड पर यही गीत बजाते हर बिल्डिंग के गेट पर थोड़ी देर रुकते और मम्मी जबरन हमे उठा कर नीचे भेज देती कि- हे उठ गे,  काकू, थामले आहे। 

तब मैं पुणे में नई थी। मराठी भी बहुत कम समझ पाती। मैंने कहा, मुझे तो कुछ समझ नही आ रहा और हँसने लगी। उसने मुझे तब इसका अर्थ बताया और कहा, यह भी शुद्ध ट्रांसलेशन नही। यह भाव भर है। इसका ट्रांसलेशन मैं ठीक से कर नही पाऊँगी हिंदी में। 

आज इस गाने को सुनकर और थोड़ा प्रशंसा को याद कर मैं अपने हिसाब से इस गीत का अर्थ पोस्ट के अंत में लगा दूँगी।वह भी भाव भर ही होगा… 

कुछ सालों बाद मैं और भाई दिल्ली में रहने लगे। तब भाई मेरा सरोद बजाना सीख रहा था। वह गीत-संगीत के कई क़िस्से बताता। बाबा अलाउद्दीन के तो जाने कितने क़िस्से… इसी बीच उसने कुमार जी के बारे में भी बताया पर उस वक़्त तो मैं किसी और दुनिया में मशगूल रहती थी। इस तरह की संगीत की ना तो समझ थी और ना ही सुनने की ईक्षा। भाई को भी कभी चिढ़ाती तो कभी लड़ती कि, क्या यह दिन भर आ -आ बजाते रहते हो ? 

धीरे -धीरे चिढ़ते -चिड़ाते,  मुझे भी मालूम नही कब "हिंदुस्तानी क्लासिकल "अच्छा लगने लगा। हालाँकि अभी भी इसमें मेरा ज्ञान काफी कम है पर मैं इसे अब घंटों सुन सकती हूँ। 

वो क्या है ना ,दावा कड़वी होती है पर असर तो करती ही है। यही हाल है हिंदुस्तानी क्लासिकल का। दिमाग और मन का टॉनिक है यह।

कुमार जी, उनके निर्गुण और गायन को आपने सुना ही होगा। मैंने भी पहले इस पर कई बार लिखा है। आज उसी मराठी गीत को साझा करती हूँ जिससे पहली बार इन्हें जाना। अपनी दोस्त को भी याद कर रहीं हूँ, जिसके साथ बहुत खूबसूरत पल गुजारे। मैं इस पल उसे कितना मिस कर रही हूँ और वह कमबख़्त जर्मनी में खर्राटे ले रही होगी। ख़ैर आप सुनिए यह मराठी गीत। और हाँ, कुमार जी का कितना सुंदर साथ दिया है वाणी जयराम जी ने। 

* गीत के भाव कुछ यूँ है, “ किसी से प्रेम का जो ऋण बंधा वह जन्मों जन्म तक चलता है। हर जन्म में हँसना, रोना, सुख-दुःख की गहरी फुसफुसाहट हो तो भी हमे उस ऋण को चुकाने, जन्म लेना हीं पड़ता है। वह सुंदर प्रेम में नाराज़ हो जाती और कभी उसके बिना मिलती भी नही। नाराज़गी में भी जब वह मुस्काती तो कितनी सुंदर लगती। नाराज़ होना, मुस्कुराना फिर नाराज़ होना कितना सुंदर है, मोहक है। इसी मुस्कुराने और नाराज़ होने के लिए जन्मों जन्म मिलता है हमें। 



Wednesday, 1 March 2023

प्रेम का महीना !

 “Love each other or perish.”

यह कथन है , “डब्लू एच ऑडेन” की लेकिन इसे पहली बार मैंने जाना,  tuesdays with morrie” किताब को पढ़ कर। तब से यह लाइन मन में घर कर गयी। 

महरौली में तब डेरा था। भाई-भईया के साथ साकेत पीवीआर में सिनेमा देखने गई थी। फ़िल्म के बाद मोमोज़ ऑर्डर हुए ही थे कि मेरी नज़र वहीं थोड़ी दूर पर लगे बुक स्टॉल पर गई, ‘150 रुपए में दो किताब।’ मैं आई के साथ मैं गई और दो किताबें ले आयी। 

पहली किताब मेरी जानकारी की, “द हंगरी टाइड” दिख गई पर दूसरी कौन सी लूँ, समझ ना आए। ऐसे में दुकानदार ने एक किताब देते हुए कहा, “मैडम, मेरे कहने से यह ले जाइए।” 

लड़के की तरफ़ देख कर मैंने पूछा , “आपने पढ़ी है ?”  

अरे मैडम, “हम तो ग्राहक के डिमांड से समझ जाते है कि कौन सी किताब कैसी है” और वह मुस्कुरा उठा। साथ ही बोला- आप ले जाइए इसे, नहीं पसंद आए तो दो दिन में बदल ले जाइएगा पर किताब नई जैसी चाहिए। 

मैंने हँसते हुए रुपए उसकी तरफ़ बढ़ाया, कहा- “आप बिना MBA किए मार्केटिंग के गुण जानते हैं।” 

वह किताब , “ tuesdays with morrie ” थी। बाद के दिनों में मैं कुछ एक बार उस स्टॉल पर गई। वही डेढ़ सौ में दो किताब ले आती। भाई मेरा मज़ाक़ उड़ाता कि सौ-डेढ़ सौ की किताब के फेर में 80 रुपए ऑटो का लगा देती है। पर उसे कौन समझाए कि मैं एक उम्मीद से जाती थी। उम्मीद यह कि, मेरा ऑटो का भाड़ा बर्बाद नहीं होगा।  अगर मेरी पसंद की किताब नहीं भी मिली तो वह लड़का ज़रूर कोई अच्छी बुक मुझे सुझाएगा। 

तब कितनी सहजता से लोगो पर विश्वास हो जाता। कभी किसी को यह नहीं कहा- तुम क्या हो ? तुम क्यों सलाह दे रहे हो ? 

यह शायद कुछ परवरिश थी तो कुछ ग़ालिब के उस शेर का असर, “हर एक बात पे कहते हो की तुम कि तू क्या है…” आज भी कोई बात बुरी लगी तो जबाब चुप्पी होती है।

वैसे ग़ालिब के समय में ही एक और शायर हुए, “हैदर अली  आतिश ” उनका कहना है , 

 “दोस्त हो जब दुश्मन-ए-जाँ तो क्या मालूम हो

आदमी को किस तरह अपनी कज़ा मालूम हो।” 

इनकी जन्मतिथि-पुण्यतिथि मालूम तो नहीं पर ऐसा लगता है कि इनका भी फरवरी से कोई सम्बन्ध होगा।  वैसे आदमी को कुछ मालूम हो या ना हो पर यह ज़रूर मालूम होना चाहिए कि, “ दुख और एकांत किसके साथ बाँटना है।” 

हम बात से भटक रहें हैं पर क्या करें, यह जो फ़रवरी, प्रेम का महीना है, वह जाने वाली है। इसी महीनें में ग़ालिब दुनिया से विदा हुए तो जगजीत सिंह आए। प्यार को समझाने वाले ऑडेन इसी 21 तारीख़ को जन्म लिए और आज फिर साकेत जाने का मन हुआ… बहुत सी किताबें पढ़नी बाक़ी है… दुनिया की समझ बाक़ी है।  

नोट- आज ग़ालिब के साथ आतिश को मिलाया है। ग़ालिब पर नसीरुद्दीन शाह की एक बहुत अच्छी सीरियल है। ना देखी हो तो ज़रूर देखें।



किताब की दुकान !


इन दिनों पुस्तक मेला, किताबों, दोस्तों,  पाठक और सेल्फ़ी के बीच लेखकों को देखती हूँ तो जाने क्यों यह खयाल दिमाग़ में आता है, “पुराना कोट पहनें और नई किताब खरीदें” 

अब पुराना कोट और नई किताब पर हर किसी का अपना मत हो सकता है। वैसे किताबों की दुनिया विशाल है…पर एक दो नए कोट तो होने ही चाहिए। पुराने कोट से मुझे नोचनी होने लगती है…

तो चलिए,  मैं पुरानी किताबें(नई जैसी) ख़रीदिए वाली जगह पर ले कर चलती हूँ। जगह यानि इस दुकान का नाम ‘गुडविल स्टोर’ है। यह एक नॉन प्रॉफ़िटेब संस्था द्वारा चलाई जाती है। इस स्टोर की कमाई का हिस्सा अयोग्य को योग्य बनाने के काम जाता है। मसलन किसी शारीरिक विकलांगता, पढ़ाई पूरी ना होना, किसी नशे आदि से मुक्ति के बाद नया जीवन शुरू करने की चाहत आदि-आदि जैसे व्यक्तियों को इस संस्था द्वारा काम मिलता है। 

गुडविल स्टोर के बारे में पहली बार मुझे जानकारी तब हुई जब टेक्सस(ह्युस्टन) से न्यू जर्सी मूव हो रही थी। घर के कुछ सामान जो थोड़े ख़राब हो गए थे, उन्हें यहाँ डोनेट करने को एक मित्र ने बताया। पहली बार यहाँ डोनेशन को गई तो डायरेक्ट सामने वाली गेट से भीतर चली गई पर वहाँ तो देखा बाक़ायदा एक छोटा सा सुपर मार्केट बना हुआ था। मैं चौंक गई। काउंटर पर जाकर पूछताछ की तो मालूम हुआ कि आप यहाँ से समान भी ख़रीद सकते है और वह भी काफी कम क़ीमत पर। डोनेशन वाली चीज़ें ही ठीक और साफ़  करके बेची जाती है। जैसे दिल्ली का सरोजनी या लाजपतनगर का मार्केट। बाक़ी डोनेशन के लिए बैक डोर पर जाना होता है। 

अच्छी बात यह कि आपको डोनेशन के बदले एक स्लिप मिलती है। इसमें आपकी दी हुई चीज़ों की क़ीमत आंकी जाती है। और उतनी क़ीमत का आप टैक्स में छूट पा सकते हैं। 

यह सब जानकारी लेने के बाद मैं स्टोर का एक चक्कर लगाने लगी। यहाँ कपड़े-जूते से लेकर घर के समान, बच्चों के खिलौने और किताबों के साथ मूवीज़ के कैसेट भी बहुत कम क़ीमत पर मिल रहे थे। किताबों का सेक्शन देख कर तो मेरा मन खुश हो गया। जो किताबें बार्नेस एंड नोबल, अमेजन या दूसरे बुक स्टोर पर $15-20 में मिलती वह यहाँ सिर्फ़ $1.99- 2.99 की। और किताबें भी नई सी। हाँ, यह है कि किताबों की संख्या थोड़ी कम होती है और हर बार आपकी पसंद की किताब नहीं मिलती। 

न्यू जर्सी के प्रिंसटन में यह स्ट्रोर दूर था घर से, वही हाल फिलिडेल्फिया और कनेक्टिकट में पर जब से इंडियाना मूव हुई यहाँ जाना फिर से शुरू हो गया।  कारण यह कि यहाँ यह स्टोर “पटेल ब्रदर्स( किराना दुकान) के बगल में ही है। पर कोरोना ने वह भी सिलसिला तोड़ दिया।