Friday, 31 October 2025

दवा !

 मध्यप्रदेश और राजस्थान से हृदय विदारक खबर पढ़ने को मिली। कुछ बच्चें कफ़ सीरिप की वजह से इस दुनिया से चले गए। भारत में चिकित्सा और दवाइयां सस्ती हैं पर उनमें लापरवाही बहुत है। मेरा अनुभव अपने बच्चों को लेकर एक दो बार ठीक नहीं रहा है।अमेरिका से भारत यात्रा के दौरान अमूमन बच्चों को फ़ूड पॉज़िनिंग हो जाती है। ऐसे में उल्टी के साथ पेट भी ख़राब हो जाता है। डॉक्टर को दिखाओ तो पाँच-सात दवाइयां लिख देंगे। अब बच्चों की और हालत ख़राब। दवा की गर्मी, ज़्यादा उल्टी आदि की समस्या। भारत में मैंने पाया है जो डॉक्टर जितनी दवा लिखेगा उतना अच्छा। गाँवों में तो पाया है बिना सुई लगाए या पानी चढ़ाए इलाज ही पूरा नहीं होता । हालांकि लोग अब जागरूक हो रहे हैं। यह अब यह कम हो रहा है। 

अमेरिका में दवा और डॉक्टर के साथ बड़ी सख्ती है। यही वजह है की एक डॉक्टर अगर दूसरे मर्ज का इलाज भी जानता है तो आपको बताएगा नहीं। कहेगा उससे रिलेटेड डॉक्टर के पास जाओ। कई बार यह परेशान करने वाला होता है। फिर खास कर बच्चों के मामले में यहाँ कोई डॉक्टर किसी तरह का रिश्क नहीं लेता। 

अमेरिका के स्वास्थ्य विभाग की एजेंसी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (FDA) के मुताबिक़ ज़्यादातर मामलों में जुकाम का बच्चों पर गंभीर असर नहीं होता। ऐसे में पहली बार में डॉक्टर, पानी, वॉर्म लिक्विड, वॉर्म वाटर बाथ, और रेस्ट रहने की सलाह भर देते हैं। कई मामलों में बच्चे ख़ुद ठीक हो जाते हैं। और कई बार ओवर द काउंटर मामूली डोज की दवा रिमेंड करते हैं। 

वहीं अगर बच्चे का जुकाम-खाँसी एक सप्ताह से ज़्यादा है और वह सुस्त हो रहा है तो, सेलाइन नोज़ ड्रॉप या स्प्रे नाक की सलाह देते हैं। इसके साथ कूल मिस्ट ह्यूमिडीफाइर की सलाह दी जाती है। वहीं अगर बच्चा एक साल से कम उम्र है और जुकाम-खांसी से परेशान है तब बल्ब सिरींज का इस्तेमाल करने की सलाह देते हैं। 

वहीं चार साल से कम उम्र के बच्चों के लिए कफ सीरिप रिकमेंड नहीं है। ओवर द काउंटर हनी-जिंजर/ लेमन आदि सीरिप नेचुरल/हर्बल मिलता है। उसे लेकर आप दे सकतें हैं। 

कुल मिला कर यहाँ बेहद बेसिक और कम डोज़ की दवा ही आप ख़ुद से ख़रीद सकतें हैं। बाक़ी के लिए आपको डॉक्टर प्रिस्क्रिप्शन की ज़रूरत होगी। और ध्यान रहे वह महंगी होगी। इसलिए यहाँ डॉक्टर भी प्रारंभिक लक्षण में आराम, लिक्विड डाइट आदि की सलाह देते हैं। दवा का नंबर बाद में आता है। 

Thursday, 16 October 2025

हेमिंग्वे का बिल्लियों वाला घर!

 हेमिंग्वे के जन्मस्थान इलिनॉय जब जाना हुआ तब मालूम  हुआ की   उनका एक घर फ्लोरिडा में भी है जहाँ उन्होंने कई महत्वपूर्ण किताबें लिखीं। तब बहुत अफ़सोस हुआ की ओह! फ़्लोरिडा जा कर भी वहाँ तक नहीं पहुचीं। यहाँ तक पहुँचने में क़रीब पाँच साल बीत गए…  सबसे शुरुआती बार, साल 2014 मैं इनके इस घर के दूसरे मोड़ से गुज़र चुकी थी पर तब मालूम नहीं था की कोई हेमिंग्वे यहाँ रहते थें। जब तक इन्हें पढ़ा फ़्लोरिडा दूर थी।

हेमिंग्वे जब फ्लोरिडा आए तो रहने के लिए उन्होंने की वेस्ट को चुना। समंदर से थोड़ी दूर, लम्बें पेड़ों और खूब सारी बिल्लियों से घिरा यह घर बहुत सुंदर है। तीन तरफ़ से बड़े शीशे की बनी खिड़कियों के बीच इनका बाथरूम मुझे बहुत पसंद आया। मानों गुनगुने बाथटब में लेटे, आसमान को निहारते कितने किस्से बुने जा रहे होंगे। 

हालाँकि मुझे इस घर में एक चीज खटकी, यहाँ संगीत का कोई स्थान ना। वहीं जन्मस्थान पर सुंदर सा एक पियानों रखा था। शायद समय के साथ रुचि बदल गई हो। वैसे, यहाँ सिनेमा की खूब बातें थीं। कई वाल पर हीरो-हीरोइन के साथ इनकी तस्वीरें फ्रेम थीं। 

इनके इस घर में लिखने के लिए एक अगल से दूसरा कॉटेज भी है। जहाँ सिर्फ़ लिखने के कुछ सामान और एक टेबल चेयर था। 

घर के आलवा आस-पास ठीक-ठाक जगह है तो अब इसमें एक बुक स्टोर खुल गया है। एक जगह को सजा कर प्राइवेट इवेंट के नाम कर दिया गया है। यहाँ कहीं भी शादी करने का खूब चलन है। साथ ही बिल्लियों की एक छोटी सी सिमेट्री भी जिसपर से गुजरने के बाद मुझे आख़िरी पत्थर पर गुदा,” कैट सिमेट्री” दिखा। अफ़सोस के साथ मैंने दिवंगत बिल्लियों की आत्मा से माफ़ी माँगी। 

हेमिंग्वे अब रहे नहीं। लोग आते हैं उन्हें यहाँ ढूँढने… हर तरह के लोग। 

चलते-चलते यह बता दूँ की अब यह घर एक म्यूजियम है। टिकट का दाम 19 डॉलर है। साथ ही यह स्ट्रॉलर या व्हीलचेयर फ्रेंडली नहीं हैं। हाँ, अगर बिल्लियों से एलर्जी है तो बिल्कुल मत जाए। 

Thursday, 2 October 2025

पंडित छन्नूलाल मिश्र नहीं रहे। यह ख़बर पढ़ते ही सबसे पहले एक सोहर ध्यान में आई, “सखी सब गावेली सोहर, रतिया मनोहर” यह सोहर गीत अपने गर्भावस्था के दिनों में मैं खूब सुना करती थी। मन थोड़ा उदास हुआ की इनसे मिलने की आस थी वह भी अब टूट गई। इन दिनों बुद्ध को पढ़ रही हूँ पर जीवन-मरण के खेल से मुक्त हो पाऊँ अभी वैसी अवस्था तक नहीं पहुची। 

बीते दिनों ही बेटे का जन्मदिन बिता और इनका गाया सोहर फिर से सुना। तब कहाँ मालूम था की ये अस्पताल के बिस्तर पर लेटे, दिगम्बर को याद कर रहे होंगें। श्याद मन ही मन गुनगुना रहे होंगे, “खेले मसान में होरी दिगंबर, खेले मसान में होरी” 

मैं इनके गायन को याद करती हूँ तो कोयल की एक कूक कान से गुजरती है, “कोयल तोरी बोलिया” गाते हुए वे कितना समझाते हैं कि कोयल की मीठी आवाज से भी प्रेमी जाग सकता है। कई बार गीतों के बीच मुझे उनका यह समझना अखरता था। सोचती थी की बिना लय तोड़े ये गाते क्यो नहीं ? आकांक्षा लगातार सुनने की होती। फिर बाद में लगा यह भी ठीक है। सार्वजनिक स्थल पर गायन हो रहा है। हर तरह के श्रोता मौज़ूद हैं। और फिर जिस तरह से संगीत की दुनिया बदल रही है, संगीत का ककहरा तो नई पीढ़ी को समझ में आनी चाहिए तभी तो वे रूचि ले पायेंगे। वे संगीत के एक पूर्वज की तरह लोकगीतों की धरोहर को आने वाली पीढ़ी को सौपना चाहते थें। 

आपकी गाई गंगा स्तुति के माँ गंगा से प्रार्थना है की आपकी आत्मा को शांति दें,


जय जय भगीरथ-नंदिनी, मुनि-चय चकोर-चन्दिनी,

नर-नाग-बिबुध-वंदिनी, जय जह्नुबालिका।

जय जय भगीरथ-नंदिनी...




आई वह गायन करते हुए श्रोताओं से संवाद बहुत करते थे। ख़ास कर उस दौर में जब संगीत की समझ फ़िल्मी संगीत की ओर जा रही थी, यह संवाद आवश्यक था कि जो गाया जा रहा है, उसका अर्थ क्या है। वह खुद ही व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि एक गायक पाँच मिनट तक सिर्फ़ पंचम और निषाद लगाते रहे पनि, प नि, प नि.... इतने में श्रोता एक गिलास पानी लेकर आ गए कि लगता है पंडित जी को पानी चाहिए। इसलिए पहले यह समझाना जरूरी है कि प और नि है क्या। वह चैती गाने से पहले बताते कि चैती कब गाया जाता है, अक्सर 'हो रामा' जैसी टेक क्यों लगती है, होरी का चलन क्या है, बल्कि कुछ सुनकारों को परेशानी भी होती कि पंडित जी गाते कम हैं, बोलते अधिक हैं। लेकिन यह संवाद कितना आवश्यक है, यह पंडित रविशंकर या वर्तमान समय में शुजात ख़ान जैसों से भी समझा जा सकता है। यह मान कर चलना होगा कि सामने बैठे लोगों को कुछ समझ नहीं है, उन्हें थोड़ा-बहुत बताना होगा कि क्या गाया-बजाया जा रहा है। अगली बार जब वह सुनने आएँगे, ।

Thursday, 6 March 2025

 

छह मार्च को “गेब्रियल गार्सिया मार्ख़ेज” का जन्मदिन है। इस नोबेल प्राइज विजेता लेखक को मैंने पहली बार कॉलेज के दिनों में जाना। हुआ यूँ कि कॉलेज की मेरी प्रिय दोस्त और इनका जन्मदिन एक ही तारीख़ को पड़ता है। और मेरी प्रिय दोस्त इस बात को बड़ा इठला कर उन दिनों सबको बताती। उन दिनों आधे दोस्तों को तो उसी ने बताया होगा इस स्पैनिश लेखक के बारे में। वैसे कमाल की बात यह रही कि उसने फ़्रेंच भाषा में डिप्लोमा किया था पर जाने कहाँ से उसे उस वक़्त स्पैनिश मार्खेस के बारे में मालूम था। 


मैं तो बिहार के सिवान ज़िले एक ब्लॉक बसंतपुर से गई थी, पुणे पढ़ने। मैंने तो सिर्फ़ प्रेमचंद, रेणु, हजारी प्रसाद द्विवेदी, सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, अमृता प्रीतम आदि की कुछ किताबें या कहानियाँ पढ़ रखी थी। हाँ, अंग्रेज़ी में भी कुछ कहानियाँ सिर्फ़, “रस्कीन बॉण्ड” की पढ़ रखी थी। पर उपन्यास तब कोई नहीं पढ़ी थी। ऐसे में मार्ख़ेस को पढ़ते हुए मैं बहुत चकित होती कि दुनिया में कोई ऐसा भी देश है भारत के अलावा जहाँ भूत-प्रेत में विश्वास है। 

ख़ैर धीरज की कमी और पात्रों के नाम ने तब किताब पूरी नहीं होने दी और किताब दोस्त को वापस कर दी गई। 

अमेरिका आने के बाद जब लाइब्रेरी में कुछ दिनों काम किया तब इस किताब की देख कर फिर से पढ़ने की इक्षा जागृत हुई। किताब घर ले आयी पर इस बार भी इतनी बोझिल -पेचीदा और पात्रों के नाम की मिलावट ने इसे पूरा ना होने दिया और किताब लौटना का दिन आ गया।

एक दिन प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी गई तो वहाँ इस किताब पर कोई चर्चा होने वाली थी, ऐसा बैनर लगा था नोटिस बोर्ड पर। फिर एक बार इस किताब का भूत चढ़ा मुझ पर। इस बार मैंने सोचा की किताब खरीद ही ली जाए और आराम-आराम से पढ़ी जाए बिना लौटने की तारीख़ को ध्यान में रखते हुए। 

किताब मैंने पहली बार “थ्रेफ्ट बुकस” से ली। यानि सेकेंड हैंड किताबों की ऑनलाइन दुकान। इस स्टोर के बारे में लाइब्रेरी में काम करने वाली एक लड़की से ही मालूम हुआ। अच्छी बात यह हुई कि जहाँ किताब स्टोर या अमेजन पर $ 15-25 के बीच मिल रही थी, थ्रेफ्ट बुक्स से $4.99 में मिल गई। थ्रेफ्ट बुक्स ने सबसे पुरानी एडिशन मुझे भेजा था। किताब से अजीब सी ख़ुशबू आ रही थी, पन्ने भी ज़र्द पीले। कवर का कोना मानों सात समुंदर लांघ आया हो… मुझे ऐसा लग रहा था कि जादू की दुनिया की यह किताब, सच में सौ साल पुरानी तो नहीं… रिश्तों की उलझ से यह क़रीब तार-तार सी ही दिख रही थी। मन उचट रहा था इसे देख कर ही। 

कई बार होता है ना, कुछ चीजें बहुत इम्तेहान लेती हैं। उसी इम्तेहान और शुरुआती कुछ ऊह-पोह के बाद किताब पटरी पर आ गई और फिर 383 पन्नों की एक जादुई किताब पूरी हुई।

वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ़ सॉलिट्यूड” नामक यह किताब आपकी धर्य की परीक्षा लेती है। पर एक बार आप पास हुए तो इसके जादू से बंध जाते हैं। 

Thursday, 27 February 2025

पातालेश्वर शिव मंदिर

जंगली महाराज रोड यानी “जे एम रोड” पुणे के व्यस्तम इलाके में से एक है। लोगों की चहल-पहल से सजी यह सड़क नाम है, रंग-बिरंगे दुकानों का, स्वादिष्ट भोजनों का, बालगंधर्व रंगमंदिर का, संभाजी पार्क का और जंगली महाराज मंदिर का। 

इन सब से इतर यह नाम है, “पातालेश्वर मंदिर” का। कमाल की जगह है यह। एक बार को यक़ीन नहीं होता कि शहर के व्यस्ततम इलाक़े के बीच इतना सुकून भरा है।  

महादेव का यह मंदिर इस भीड़भाड़ वाले इलाक़े में होते हुए भी सुकून से भरा है। बरगद के पेड़ों की आड़ में, ज़मीन के गर्भ में बैठा यह अद्भुत मंदिर है। जंगली महाराज मंदिर से ठीक सटे पीछे की तरफ स्थित यह मंदिर एक बार को लगता ही नहीं की जे एम रोड़ में है। इतनी शांति, इतना सुकून की मन बस आने को ही ना करे। 

यह मंदिर ज़मीन के नीचे है शायद इसलिए इसे पातालेश्वर मंदिर कहा गया।

16 स्तंभों पर खड़ा यह मंडप सिर्फ़ एक पत्थर को काट कर बना, अनोखे शिल्प का उदाहरण देता है। कहते हैं कि इसका निर्माण पांडवों ने किया है। मगर इतिहासकारों का मत है कि 8वीं शताब्दी के आसपास इसे राष्ट्रकूट वंश के राजाओं ने बनवाया है। 
आर्केओलॉजी के विशेषग्यों के अनुसार यह  मंदिर क़रीब 400 साल से भी ज़्यादा पुरानी है और सन् 1977 में यह खुदाई के दौरान मिली।

इस मंदिर के पुजारी के अनुसार इसे, “पशुपथ संप्रदाय” के लोगों ने बनाया है। क्योंकि गुफाओं में शिवालय बनाने की शुरुआत इसी संप्रदाय ने शुरू की थी। उन्होंने यह भी बताया कि इसकी संरचना अजंता- एलोरा- एलिफेंटा की गुफाओं से मिलती-जुलती है।

इतनी जानकारी पा कर मन शांत नहीं होता। थोड़ा और पढ़ने पर, ढूँढने पर मालूम होता है कि पांडव तो हिमालय के गाँवों तक छाए हुए हैं। सोचती हूँ, कहाँ कुरुक्षेत्र, कहाँ काम्यकवन, कहाँ महाराष्ट कहाँ हिमालय… यही होता है जब आदमी ना घर का ना घाट का। 
वैसे भी उन्हें वनवास में जीना था और करने को था क्या ? घूमते रहे, रुकते रहे, छिपते रहे, मंदिर बनाते रहें और राजस्थान से महाराष्ट्र पहुँच गए। महाराष्ट्र में उनकी बनायी कई मंदिरें हैं। 

पतालेश्वर मंदिर में एक संग्रहालय भी है। इसे गिनीज बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में स्थान भी मिला है। ऐसा पुजारी ने ही बताया था। हम कुछ देरी से पहुँचे थें। तब तक संग्रहालय बंद हो गया था। और अफ़सोस के साथ, हम इसका मुख्य आकर्षण वह चावल नहीं देख पाए जिस पर लगभग 5000 अक्षर अंकित हैं। 

इस मंदिर के पुजारी मिलनसार और समझदार है। समय लगभग हो जाने पर भी किसी को भगाते नहीं आराम से बाहर जाने को कहते हैं। 
मंदिर सुबह 8.00 बजे से शाम 5.30 बजे तक खुला रहता है। आम मंदिरों की तुलना में यहाँ भीड़ बहुत कम देखने को मिली। इसका कारण बहुत कम लोगों का इसे जानना भी हो सकता है। मैं ख़ुद सालों पुणे रह कर भी इसे कहाँ जान पायी थी ?  वह तो माँ और उसके भोलेनाथ…  

भारत यात्रा के दौरान मैं “त्र्यंबकेश्वर और घुश्मेश्वर/ घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग” के दर्शन को भी गई। लेकिन जो सुकून यहाँ मिला वह इनसब में नहीं पाया। 



Friday, 26 January 2024

राम !

“राम निरंजन न्यारा रे, अंजन सकल पसारा रेऽऽऽ … आहा, राम निरंजन…”

अमीन चाचा झूम-झूम कर गा रहे थे। आस-पास खड़े लोग उनका मज़ाक़ उड़ाते हुए कह रहे थे-“ ई अमीन साहेब नू, कहीं आपन नाच-गान शुरू कर देनी।”

हमारी कोलोनी रंग-बिरंगी थी। तरह-तरह के फूल-फलों, जीव-जंतु, जात-कुजात, हिंदू-मुस्लमान, सुंदर-कुरूप, बाल-गोपाल सब से लदी-फदी। सब एक साथ रहते। एक दूसरे से खूब हँसी-मज़ाक़ करते। 

अमीन चाचा, जाति से अहीर होने के बावजूद जनेव पहनते। खूब पूजा-पाठ करते। धार्मिक किताबें पढ़ते। खाने से पहले भगवान को भोग लगाते। एक भी एकादशी या कोई व्रत-उपवास नहीं छोड़ते। कई बार लोग मज़ाक़ में कह भी देते- “बे महाराज, रऊरा त बाभन होखे के चाहीं।” 

अमीन चाचा, क़िस्सों की खान और मैं उनकी चेली। जब वे इस भजन को गा कर झूम रहे थे, हम कुछ बच्चें भी अपना खेल छोड़ इस नाटक का हिस्सा हो लिए। जब उनका झूमना ख़त्म हुआ तो मैंने इसका अर्थ पूछा।  हँसते हुए वे बोले- “ जाओ-जाओ खेलों अभी प्रियंका, रात को आराम से इसका अर्थ बताऊँगा।”

हर रात खाने के बाद अमीन चाचा, 100 कदम चलते और हम कॉलोनी के बच्चों को भी चलने को कहते। इसी बीच क़िस्से-कहानी, गीत-भजन कुछ पढ़ाई की बातें,कुछ दुनिया के क़िस्से साथ चलते रहते । 

अब जिस भजन पर झूमते अमीन चाचा को देखने के लिए कॉलोनी में भीड़ लगी थी और कॉलोनी के जिस वाक्या ने उन्हें यह भजन गाने पर मज़बूर किया। वह वाक्या यह रहा , 

हुआ यूँ था कि हमारी कोलनी के एक घर की सीढ़ी टूट गई। सीढ़ी क्या, घर में घुसने को तीन-चार ईंट जोड़ी पैयदान। उनमें से दूसरे नंबर वाली सीढ़ी से सीमेंट की एक परत निकल गई। ईट साफ़ दिखाई देने लगा और साफ-साफ दिखाई देने लगा उसपे उकेरा ''राम'' नाम। उस  परिवार वालों की मुश्किल कि राम के नाम पर पैर धर के उतरे कैसे ? हालाँकि इसी पायदान पर पैर रगड़ -रगड़ वे बरसों उतरते -चढ़ते रहें थें।  तय हुआ की इन चुन्नू -मुन्नू सीढ़ियों को फान  कर घर में घुसा जाए। अब सरकारी मकान की मरम्मत अपने पैसा से कौन करवाये ? अगले साल फ़ंड आएगा तब बन ही जाएगा।

घर के लोग राम को फान -फान कर घर में घुसते रहें।  कॉलोनी के बच्चों का तो यह खेल बन गया था। बहाना ढूंढते रहते सब उस घर में प्रवेश पाने की।  

ऐसे में एक दिन उस परिवार की मालकीन का पैर इस कूद-फान के फेर में मुचक गया। तब वक़्त था की कोई छींक भी दे तो मोहल्ला उमड़ पड़ता देखने और मदद करने को। 

ऐसे में मिलने, हाल -चाल जानने वाले तबियत से इतर कुछ ईंट तो कुछ राम नाम का भेद मिटाने का उपाय भी बताते जातें। कुछ लोगों ने कहा- “अरे महाराज,  तबतक ईंटे को मिट्टी से लीप दीजिए।” 

कुछ ने कहा- “यह ईंटा ही उखड़वा डिज़ाइये और सब बराबर कर दीजिए।” 

कुछ ने कहा- “भगवान के नाम पर पैर रख के उतरते थे, ऐसा तो होना हो था।”

किसी ने कहा- “कोई बात, भगवान कहाँ नहीं, फिर कितना ईंटा निकलवाइयेगा ? यह सब वहम है, विश्वास रखिए।”  

किसी ने कहा- “अब तक तो पैर रख कर उतर ही रहे थे, क्या अहित हुआ ? भगवान सब माफ़ कर देते हैं। ज़्यादा सोचिए मत।”

 यही सब हो-हल्ला को सुनकर अमीन चाचा अपने रौ में बह निकले। एक क़िस्सा सबको सुनाया और कबीर का यह भजन झूम-झूम कर गाने लगे थे। 

उनका क़िस्सा यह था-  अपने काम के सिलसिले में, नहर की नापी-जोखी में उसके किनारे की कच्ची सड़क की नापी कर रहे थे। नहर के किनारे नेटूआ(एक अति पिछड़ा समुदाय ) सब झोपड़ी बना लिया था। ईंटाकरण पर ही बकरी-बासन सब होता था उनका। एक औरत उसी सड़क पर गोबर के उपले पाथ रही थी। अमीन साहब ने देखा तो हँसते हुए कहा- “का हो, गणेश जी के माथे गोबर पाथ देलू …” उस ईंटाकरण वाली सड़क के ईट पर गणेश गुदा था। उस भोली महिला ने कहा-“ का करीं साहेब, इहे भगवान के मर्जी त हमार का दोष ?”

ख़ैर, रात के भोजन के बाद टहलते हुए उन्होंने भजन का अर्थ बताया- “प्रियंका, कबीर साहब कहते हैं- “ यह समस्त संसार माया का ही पसारा है। माया रहित राम सारे जगत से परे, भिन्न है।” 

राम के नाम पर लात रखने से पाप लग जायेगा बताओ ? और राम को उखाड़ फेकने पर या उसपर सीमेंट पोतने से पाप नहीं लगेगा ? बच्चा, राम कहाँ नहीं ? सब मन का माया है… माया!” 

बीते दिनों मैंने इतना राम का नाम सुना जितना कभी नहीं सुना होगा। मुझे अमीन चाचा याद आये, याद आए कुमार गंधर्व, कबीर, कौशल्या के राम, माणिक वर्मा और शर्मा बंधु के गाए भजन। 

अब देखिये ना,  कहाँ मैं आपसे अपने जीवन का एक क़िस्सा साझा कर रही थी और इसी भजन की अगली लाइन ध्यान में आती, 

“ अंजन विद्या, पाठ-पुराण, अंजन घोकतकत हि ग्यान रे!” 

अर्थात्मा- “माया ही विद्या, पाठ और पुराण है।  यह व्यर्थ का वाचिक ज्ञान भी माया ही है।” 

और इसी माया और व्यर्थ का वाचिक ज्ञान के मोह में फँसी तपस्या एक दिन एक आइलैंड पर पहुँच जाती है। जहाँ उसे किसी देवी-देवता की उम्मीद ना थी। वहाँ उसे राम-सीता की मूर्ति दिखती है। यह अचरज से भरा अनुभव था। 

नोट- मैक्निक आइलैंड अमेरिका के सबसे खूबसूरत स्थानों में से एक है। एक ऐसी जगह जहाँ पेट्रोल-गैस से चलने वाला कोई वाहन नहीं। कोई भी दूरी आपको, पैदल, साइकिल या घोड़े गाड़ी से तय करनी होती है। अमेरिका के इस हिस्से में किसी दुकान पर राम की मूर्ति बिकना सच में माया ही था।  

Thursday, 16 November 2023

मालिनी राजूरकर !

6 सितंबर 2023 को कृष्णाअष्टमी थी। कृष्ण भजन के साथ जाने कब ऑटो प्ले से, “ होली खेलने को चले कन्हाई…” बजने लगा। मेरे साथी ने टोका भी,  “आज होली नहीं, जन्माष्टमी है तपस्या।”

मुस्कुरा कर मैंने कहा- “कुछ भी है, कृष्ण तो हैं।”

राग देश में ‘मालिनी राजूरकर’ जी की आवाज़ में मेरे घर में गूंज रही थी…और इधर मुझ अनजान को यह ख़बर तक ना थी कि आज ही मालिनी जी इस दुनिया को विदा कर गई…

शायद उन्हें मालूम हो कि झट से किसी की मौत पर तपस्या कुछ व्यक्त नहीं कर पाती चाहे वह कितना भी प्रिय हो। मुझे इस दुःख- दुविधा से बचाने के लिए चुपचाप दुनिया को विदा कर देना है…

सादगी और कला को समर्पित एक बेहद उम्दा कलाकार जाते-जाते अपनी स्वर की कृति हम नादानों के लिए छोड़ गई और साथ ही दान कर गई अपना शरीर हैदराबाद के उस्मानिया मेडिकल कॉलेज को। 

मैंने कई बार इनके बारे में लिखा है और हर बार मुझे भारत सरकार से इस बात की नाराज़गी रही की उन्हें कोई सम्मान भारत सरकार की तरफ़ से नहीं मिला जबकि उनके स्तर के कलाकार कम ही होते हैं। 

सरकार की क्या ही दुहाई दूँ, मैं ख़ुद इनके प्रति कहाँ पूरी तरह सुध में  थी…जब मन किया इन्हें सुन लिया, मिलने की आस लगा रखी पर कभी कोई प्रयास ही नहीं किया मिलने का… इतनी बेख़बर या बुरी हूँ कि मुझे इनकी मृत्यु की जानकारी 3 महीने बाद मिली…

 जबकि यह वह मालिनी राजूरकर रही, जिनकी संगीत की लिस्ट मेरी हिंदुस्तानी संगीत की प्ले लिस्ट में सबसे ऊपर है। ऐसा कभी नहीं होता जो महीने-दो महीने में मैं इन्हें ना सुन लूँ। हद तो यह कि मैंने दुर्गा पूजा के नव दिनों में भी इनकी गायी, “दुर्गा माता दयानी देवी” सुनी और तब भी यह ख़बर ना मिली। 

 बेख़बर, बेसुध, मैं दिवाली की सफ़ाई के साथ सुन रही थी, “ अब तो कहूँ ना जा रे, ये पिया मोरा…” और इसी के साथ याद आया सुनने को , “ काहे अब तुम आए हो मेरे द्वारे…” 

यु ट्यूब कई बार प्ले लिस्ट से गानो को जाने क्यों हटा देता है और खीजती मैं, सर्च करने लगे मालिनी राजूरकर , राग केदार। मुझे तभी यह ख़बर दिखी और मैं चौंक गई… तीन महीनें बीत गए … 

ग्लानि इतनी की शब्दों में बता नहीं सकती… आँखें नम थी और मैं यूँ ही जाने क्या-क्या सोचने लगी सब काम छोड़ कर… 

शायद इसे ही कहते है, कोई तुम्हारे बीच से चुपचाप उठ कर चला गया और तुम्हें ख़बर भी नहीं हुई… 

कैसी प्रेमी रही तुम तपस्या…

मुझे माफ़ कर दें, मालिनी राजूरकर जी। 

मुझे विश्वास है आप दूसरी दुनिया में भी अपनी सादगी और संगीत को समर्पित होंगी। गन्धर्वों के बीच होकर भी किसी कोने में अपने टप्पा से सबको मोहित कर रही होंगी। गा रही होंगी मुझे देख कर  अपनी प्यारी सी हँसी के साथ, 

“ऐसा तो मोरा सइयाँ निपट अनाड़ी भये”