Tuesday, 18 August 2015

बारिश ,धान ,किसान ,नेता और बदलता समाज !!!

"सावन  भादउवा के शुभ रे महिनवा ,चल हो गोरिया आईल  धनवा के रोपनिया चल हो गोरिया।
टेढ़ी मेढ़ी अरिया के टेढ़ी रे कियारयिया ,ठेस ना लागे तोरा बाली रे उमिरिया ,चल हो गोरिया 
आईल बरखा के दिनवा चल हो गोरिया ,आईल धनवा के रोपनिया चल हो गोरिया।।"
ये एक भोजपुरी रोपनीगीत (लोकगीत) की कुछ लाइन है।जिसमे किसान अपनी पत्नी से कहता है।चलो बहुत शुभ सावन भादो का महीना आया है।बारिश हुई है।धान की बोआई करते है।साथ में अपनी पत्नी को कहता है ,खेत के रास्ते टेढे -मेढ़े है ,ठीक से चलना वरना ठेस लग जाएगी। 
गाने से मुझे याद आया ,एक बार मैं धान की बोआई के समय गाँव गई थी।वैसे हमलोग ज्यादातर गाँव छठ पूजा या होली में जाते थे।कभी -कभार किसी की शादी -ब्याह या मृत्यु हो तो अलग बात थी।मैं शायद आपने मुंडन या किसी के मरने पर गई थी।कारण सावन भादो में ब्याह तो होते नही।मुझे ठीक -ठीक याद नही।मेरा गाँव  पश्चिमी चंपारण में है।वही चंपारण जहां से ग़ांधी जी ने सत्याग्रह आंदोलन शुरू किया था।वही चंपारण जो कवि गोपाल सिंह नेपाली का जन्मस्थल है।जो लोग गोपाल सिंह नेपाली को नही जानते ,उनके लिए प्रकाश झा फिल्म निर्माता और मनोज वाजपई अभिनेता भी चंपारण के ही है।चंपारण में धान की खेती बहुत होती है।एक ऐसा वक़्त था ,जब हम गाँव जाते तो हमे ,नाश्ते में भात (चावल) ,खाने में भात ,शाम का नाश्ता भी चावल का भुजा और रात का खाना भी भात मिलता।हमलोग परेशान हो जाते।हमलोग को सुबह -सुबह उठा कर दादी कहती ,जा बाबू नास्ता कर ल ,सब लइका (बच्चा ) खा लेलस।मेरे भाई की तो हँस -हँस के हालत ख़राब,कहता दादी भात से नास्ता।मतलब चावल ही जीवन था।हर जगह चावल का इस्तेमाल ,चाहे पूजा के अक्षत के रूप में , दान के रूप में ,भोजन के रूप में ,भिक्षा देने में ,या फिर कुछ सामान खरीदने के लिए भी।हो भी क्यों ना ,उस वक़्त चावल की कमी भी तो नही थी।हमारे बाबाजी (दादा जी )की अकेले की फसल कम से कम 200 किवंटल  होती थी।मैं धान की बोआई के बारे में जो जानती हूँ, आपलोगो को बता रही हूँ ।धान बोआई जुलाई ,अगस्त में शुरू होती है।फसल की कटाई नवंबर /दिसंबर के आस -पास होती है।बोआई से लेकर फसल पकने और कटने तक ,किसान के घर में त्योहारो सा मौसम होता है।हमारे यहाँ जिस दिन बोआई थी , घर में सबको सुबह -सुबह उठा दिया गया।मेरे लिए सब कुछ नया था।मैंने दादी से पूछा आज कोई त्यौहार है क्या ? दादी बोली की आज खेत का पूजा होगा।सबलोग नहा कर नए कपडे पहनेगे,पूजा करेंगे।मैंने देखा बाबाजी भी नए कुरता -धोती पहन कर सिर पर गमछा रख के पूजा के लिए तैयार हो गए।दादी -बाबाजी ने मिल कर कुल देवता ,हनुमान जी के धजा और घर के आगे दुर्गा मंदिर में पूजा की।इसके बाद बाबाजी -दादी ने मिलकर "हल " (खेत जोतने के काम आता है ) की पूजा की।फिर दादी घर में आ गई।बाबाजी पूजा की थाल ,जिसमे अक्षत ,दुभ ,फूल ,गुड ,सिंदूर ,हल्दी ,दही ,अगरबती ,दिया ,लोटे में जल और लड्डू होते ,लेकर खेत पर चले गए।वहां सब मजदुर बाबाजी का इंतज़ार कर रहे थे।खेत के किनारे ,पूरब दिशा की ऒर ,मुख कर बाबाजी पूजा किया।कुछ देर आँखे बंद कर प्रार्थना की।शायद मन में यही प्रार्थना कर रहे होते ,"हे धरती माँ हर साल की तरह इस बार भी मेरी फसल अच्छी हो। मैं अपने परिवार की सारी जरूरते इस फसल से पूरा कर सकूँ।हे वरुण देव फसल के अनुरूप ही बरसना।फसल पर ही मेरे परिवार की खुशियाँ निर्भर करती है।आपका आशीर्वाद बना रहे।इसके बाद बाबाजी 5 या 7 धान के बीज को बोया और थोड़ी देर रुक कर घर आ गए।धान बोन वाले मजदुर भी, धरती माँ और बीज को प्रणाम कर बोआई शुरू करते।धान की बोआई पुरे दिन चलती है।ऐसे में मजदुर लोक -गीत गाते हुए ,खुशियाँ मानाते हुए रोपनी करते।उस दिन घर पर अच्छे -अच्छे पकवान बने।पर यहाँ भी पकवान में पुआ -पूड़ी नही।चावल दाल ,कई तरह की सब्जियाँ ,पकौडे पापड़ बना।शाम को बोआई के बाद सारे मजदूरो को खाना खिलाया गया।फिर कुछ दिनों बाद फसल की हरियाली देख कर परिवार में खुशी का माहौल होता।समय के साथ फसल पक के तैयार हो जाती है।फसल कटनी के वक़्त ,फिर से हँसुआ (लोहे की अवजार जिससे फसल काटते है ) की पूजा होती।फसल को प्रणाम कर कटाई शुरू होती।उनकी बालियों को लेकर कुलदेवता पर चढ़ाया जाता है।उस दिन फिर अच्छा खाना बनता है।फिर से मजदूरो को ख़ुशी में खिलाया जाता है।भगवान की कृपा से फसल भी अच्छी होती थी।फसल से धान निकाल कर घर के बाहर  "बेढी "  में और कुछ बचे हुए धान घर के अंदर  "डेहरी" में रखते थे।बेढी और डेहरी की तस्वीर ये रही

निचे वाली तस्वीर डेहरी की है।जिसे घर में रखते थे।पर हमारे यहां इसके ऊपर "दौरी" (मुंज से बुनी )जो कटोरे जैसा दिखता है ,रखते थे।अब तो घर के अंदर डेहरी की जगह बड़े -बड़े स्टील के ड्रम ने ले ली है।शुक्र है भगवान का की, बेढी अब तक दरवाजे की शान बढ़ा रहा है।पहले ऐसे कहते थे ,जिसके दरवाजे पर जितनी बेढी उतना बड़ा जमींदार।अब तो जमींदारी भी नही रही।ले दे के 3 /4 बेढी रह गई है।जो अभी भी हमारी फसलो का अहसास दिलाती है।एक वक़्त था ,जब मेरे बाबाजी ने सेक्रिटेरियट की नौकरी छोड़ ,खेती करवाने का फैसला लिया।एक आज का वक़्त है ,की सारे खेत बटइयादार के पास है।सब लोग खेती छोड़ नौकरी पेशा हो गए।हमारी पीढ़ी के जवानो को खेती से कोई लगाव नही।हमारे क्या हमारी माँ या चाचियों को भी याद नही की रोपनी गीत क्या था ? सारे पारंपरिक, मिटटी से जुड़े रिवाज ख़त्म हो रहे है।जिन बटइयादार को जमीन दी गई है ,खेती के लिए।उनकी हालत तो और भी ख़राब है।सोचती हूँ वो क्या रिवाजो के अनुसार पूजा करके ,गीत गा कर खेती करते होंगे ? एक तो ,गरीबी उसपर फसल बोअनी के लिए नए कपडे कहाँ से ला पायेगे ?कहाँ से पकवान बनवायेगे ? अब तो गाँव में  मजदुर भी नही मिलते।सब पंजाब /दिल्ली /मुंबई कमाने चले गए।मशीन से खेती महंगी हो गई है।उसपर बारिश का कहर।कल ही माँ से बात हुई ,बोली बटइयादार का फ़ोन आया था।फसल पानी बिना ख़राब हो रही है।माँ भी दुखी हो कहती है ,पूरा सावन बीत गया पर बारिश नही हुई।इस कठिन हालत में भी बटइयादार को फसल का आधा हिस्सा देना पड़ता है।आपलोग सोच रहे होंगे कितने निर्दयी हमलोग है।गरीब से आधा फसल ले लेते है।पर हमलोग भी क्या करे ?खेत ऐसे छोड़ने से बंजर हो जाएगी।अगर जमीन बेचते है ,तो इनलोगो की और भूखो मरने वाली हालत हो जाएगी।गाँव के लोग कहते है ,तुमलोग अपनी फसल का हिसाब समय से नही करते ,देखो तुम्ही आधी फसल में से भी बटइयादार ने चुरा लिया।हमे थोड़ा गुस्सा आता है ,फिर सोचते है।इतने महीने उसने मेहनत की।मौसम की मार सही।कितनी बार भूखे रह कर खेत में पानी पटवाया होगा।थोड़ा चुरा ही लिया तो क्या किया ? हमसे अगर मांगता तो शायद हम दे भी देते।लेकिन उसे डर होता की ,कही अगली बार खेत न छुड़ा ले।इनसब के बीच एक आशा की किरण दिखी थी ,"स्वामी नाथन आयोग "के रूप में।जिसमे किसान को फसल की लागत के मूल्य का डेढ़ गुना मिलता।पर ये भूल गई चुनाव में ज्यादातर सपने दिखाये जाते है।जिसमे सरकार द्वारा लिखित वायदा किया गया।जीतने के बाद ,खुद ही कबूल किया गया कि अपना वादा पूरा नही कर सकते।मैं किसी भी पार्टी के पक्ष में नही।बस यही कहना चाहती हूँ ,किसी तरह किसान किसानी ना छोड़े।गाते हुए खेत बोये ,गाते हुए फसल काटे।नही तो कुछ समय बाद खेती करने वाला कोई नही बचेगा।खेत बंजर हो जायेंगे।हमलोग भी चावल - दाल छोड़ नूडल्स ,पिज़्ज़ा ,बर्गर पर जीने लगेगें।या फिर चाइना की प्लास्टिक मिले हुए चावल खाएंगे।जैसे अभी मैं आपलोग को बता रही हूँ, की कैसे खेती होती थी।कुछ सालो बाद लिखना पड़ेगा ऐसे किसान होते थे। 

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