Friday 11 December 2015

कबीर और मेरी कल्पना का विद्रोही !!!

कबीर और  गोरखनाथ जी की रचनाओं को ,"पंडित कुमार गन्धर्व "जी की आवाज में सुनना हमेशा से आत्मा को तृप्त करने जैसा होता है।ऐसा लगता है, मानो मन का ,कानो का एक अद्भुत ऑरगिज़म हो रहा हो।एक नशा जैसा हो जाता है।एक बार सुन लिया तो बार -बार एक ही गाने को प्ले करती रहती हूँ।आँखों से आँसू बहते रहते है।ये आँसू दुःख के कारण नही ,मन में त्याग और समर्पण के भाव के कारण आते है।आज मैं "युगन युगन हम जोगी" और "शून्य गढ़ शहर " सुन रही थी।पर आज इनको सुनने के बाद मन थोड़ा व्याकुल है।बार -बार मन रमाशंकर यादव  "विद्रोही " जी की तरफ चला जाता है।मेरा और विद्रोही जी का साथ सिर्फ एक -आध सप्ताह का ही रहा।एक दो सप्ताह पहले से ही ,मैंने उनके बारे में जाना ,पढ़ा (धन्यवाद गर्वित ,धन्यवाद विष्णु)।पर अब वे मेरी कल्पनाओं में है।अब तक सिर्फ जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्याल तक सिमटा एक वक्ति हर तरफ पन्नो पर क्यों रंगा है ?क्या ये सब पाने के लिए मरना जरुरी था ? क्या दुनिया में आपकी पहचान मरने के बाद ही मिलती है ?हो सकता हो जीते -जी उन्हें भी इन सब की ईक्षा ना हो।या "हो" जो ना मिल पा रही हो ,तो जोगी सा भेष बना लिया।मन को सबसे परे कर लिया।बस अपने आप में खोये रहे।ना समाज का डर ना परिवार का मोह।मन के गुस्से,पीड़ा को कविताओं का रूप दे दिया।मनमौजी जैसी जिंदगी जी।इसी ख्याल में कि कुछ नही तो कम से कम कोई पागल ,कोई फक्कड़ ,कोई विद्रोही ,तो कोई जोगी की तो उपमा जरूर देगा।अंततः आपको वो सब मिला।कही आप परेशान तो नही थे ? कही आपको ऐसा तो नही लगा कि, यहाँ किसान मर रहे है ,और मैं सिर्फ आसमान में धान बोन की बात करता हूँ।क्यों ना वहाँ जाके मैं सच में धान बोऊ।विद्रोही जी आप वहाँ धान बोइए।मै अपनी खिड़की से आसमान में लहराते आसमानी तो कभी सिंदूरी तो कभी काले धान के पौधो को देखूंगी।कबीर की भाषा मेरे कल्पना का एक जोगी एक "विद्रोही "
अवधूता युगन युगन हम योगी
आवै ना जाय मिटै ना कबह
सबद अनाहत भोगी
सभी ठौर जमात हमरी
सब ही ठौर पर मेला
हम सब माय सब है हम माय
हम है बहुरी अकेला 
हम ही सिद्ध समाधि हम ही
हम मौनी हम बोले
रूप सरूप अरूप दिखा के
हम ही हम तो खेलें
कहे कबीर जो सुनो भाई साधो
ना हीं न कोई इच्छा
अपनी मढ़ी में आप मैं डोलूं
खेलूं सहज स्वेच्छा
अंत में कबीर की ही कुछ पंक्तियाँ "विद्रोही "जी के शुभचिंतको ,दोस्तों और परिवार जनो के लिए,

भक्त मरे क्या रोइये, जो अपने घर जाय। रोइये साकट बपुरे, हाटों हाट बिकाय ||
(जिसने अपने कल्याणरुपी अविनाशी घर को प्राप्त कर लिया, ऐसे सन्त भक्त के शरीर छोड़ने पर क्यों रोते हैं? बेचारे अभक्त - अज्ञानियों के मरने पर रोओ, जो मरकर चौरासी के बाज़ार मैं बिकने जा रहे हैं| ) 

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