Tuesday, 26 April 2016

शाम की सैर और ग़ालिब का ख़ुमार !!!

तपस्या - हाथ खींचती हुई ,चलो तो कुछ नहीं होता।एक -आध बार तो जा ही सकते है।
शतेश - देखो तो कौन जा रहा है उधर ?जिनको भी जाना होता है उस तरफ ,उनके लिए वाकिंग ट्रेल बनी है।वैसे भी उधर के घास थोड़े बड़े है।
तपस्या -तो क्या हुआ जूते तो पहने है।और ऐसा नहीं है ,मैंने कभी -कभार लोगो को उधर जाते देखा है। 
शतेश - तुम मानोगी नहीं ?
तपस्या -नहीं ना। 
शतेश -तो फिर चलो।
सिगनल पर खड़े होकर हमदोनो रेड लाइट के वाइट होने तक हाँ -ना करते रहे।अमेरिका में पैदल चलने वालो को क्रॉसिंग के समय एक बटन दबाना होता है।ये बटन हर कोने पर एक खम्भे से जुड़ा होता है।आप बटन दबाओ ,थोड़ी देर में सफ़ेद लाइट सिगनल बोर्ड पे दिखेगी।फिर आप आराम से क्रॉस कीजिए।आपके लिए तबतक गाड़ियाँ रुकी रहेंगी।पैदल चलने वालो की भी यहाँ बहुत इज़्ज़त है भाई।क्रॉस करके हमदोनो पैदल चलने वाले रास्ते पे ना जा के उसके उल्टा घास पे चलने लगे।तक़रीबन रोज शाम की चाय के बाद टहलने निकलते है हमदोनो।इन तीन सालों में एक यही एक्सरसाइज है जिसे हमने दिल से किया है।सैर के वक़्त कितनी कहानियाँ हमने कही -सुनी होंगी।आज की कहानी कुछ यूँ है - मेरा कई दिनों से वॉकिंग ट्रेल के दूसरी तरफ जो जंगली घास थे ,उनपे चलने का मन था।अपने तर्क या ,यूँ कहे प्यार से मैंने शतेश को मना लिया ,उधर चलने को।दोनों हाथ पकड़ कर चले जा रहे थे।रास्ता थोड़ा लम्बा था।मौसम भी मेहरबां।हल्की -हल्की हवा चल रही थी।वो थोड़े लम्बे घास हवा के साथ हमारे पैरो से लिपट रहे थे।हमदोनो हमेशा की तरह बातों में गुम थे।चलते हुए शतेश पूछते है -ये बताओ तपस्या तुम्हे ये ऊटपटांग चीज़े ही क्यों अच्छी लगती है ? कभी तुम्हे मिट्टी के मटके फोड़ने होते है।कभी तुम सड़क के किनारे लगे बलून को फोड़ने की बात करती हो।कभी रोड पे पड़े खाली केन के ऊपर कूद के आवाज़ निकलती हो।कभी कहती हो -शतेश ये जो बड़ी वाली ग्लास की बल्डिंग है ,उसपे पत्थर मरू तो सारे एक साथ भररा जायेंगे क्या ? मूवी की तरह।तुम्हे तोडना -फोड़ना अच्छा लगता है क्या ? मैंने कहा नहीं तो ,देखो तुम तो सही -सलामत हो :) शतेश फिर बोले ,अच्छा छोड़ो ,ये बताओ कल हमलोग मंदिर गए थे।वहाँ एक जोड़ा सगाई कर रहा था।तुम मुझे लेके चली गई उनको बधाई दिलवाने।जबकि हमलोग उन्हें जानते तक नहीं थे।मुझे थोड़ा अजीब लग रहा था।मैंने हँसते हुए कहा -यू नो हार्मोनल चेंजेज।वैसे तो ये हर महिला की समस्या है।पर मेरे साथ कुछ ज्यादा ही इमबलनेंस है।हमें पता नहीं होता कि कब गुस्सा आ जाये ,कब प्यार।पल में हँसी तो अगले पल रोना।वैसे कल मुझे उन दोनों को देख के बुरा लग रहा था।सोचो उनकी लाइफ का इतना महत्वपूर्ण दिन और सिर्फ तीन लोग।वो भी उनकी उम्र के।माँ -बाप ,रिश्ते -नाते वाले कोई थे ही नहीं।दोनों रिंग पहनाने के बाद ,सिर्फ फोटो खिचवाये जा रहे थे।साफ़ लग रहा था कुछ मिसिंग था।तुमने देखा जब हमने उन्हें बधाई दी।दोनों कितने खुश हुए।उनके चेहरे की चमक बढ़ गई थी।कोई जरुरी नहीं ख़ुशी देने के लिए जान पहचान होनी चाहिए।शतेश मेरे हाथ को और जोर से पकड़ते हुए बोले -तपस्या आई लव यू डिअर।मैंने कहा डिट्टो और दोनों हँस पड़े।शतेश बोले दो दिन से तुम ग़ालिब के बारे में देख रही हो ,कुछ बताओ मुझे भी।वो ऐसा है कि, शतेश नावेल या आर्ट मूवी कम ही देखते या पढ़ते है।कभी कोई क़िताब ली भी तो चार पन्नो के बाद ,बाबू बहुत पढ़ लिया।थक गया हूँ।और फिर किताब रख देते है।पर कहानी सुनना पसंद है इन्हे।तो तय हुआ कि, मैं जो भी किताब पढ़ूँ या अच्छी मूवी देखूँ उसकी कहानी इन्हे सुना दिया करूँ।चलते -चलते हमदोनो को  15 -20 मिनट हो गए थे।जंगली घास का रास्ता भी ख़त्म हो चूका था।सामने एक आर्टिफीसियल लेक के किनारे लगे बेंच पर हमदोनो बैठ गए।बैठे -बैठे मैं गुनगुनाने रही थी।शतेश बोले तो बताओ आज की ताज़ा ख़बर।मैं सामने पानी में तैरते वुड डक के झुण्ड को देख रही थी।गुनगुना रही थी।शतेश बोले अरे बोलो भी।मैंने हँसते हुए कहा -"हम है मुश्ताक और वो बेजार या इलाही ये माजरा क्या है"।शतेश बोले कुछ समझ नहीं आया।मैंने कहा समझ तो मुझे भी ग़ालिब के कई शब्द नहीं आये।आज पुरे दिन गूगल किया शब्दों का।इसका मतलब है -मै हूँ परेशान और तुम शांत/आराम से हे भगवान् ये क्या हो रहा है।ये गज़ल अभी के लिए ठीक हुई ना ,मैं गुनगुना रही हूँ और तुम सवाल पूछ रहे हो :) काश मैंने कुछ उर्दू /फ़ारसी सीखी होती तो बात -बात में गूगल नहीं करना पड़ता।एक तो चुलबुल भी ना जब कुछ पूछना हो तो फ़ोन आउट ऑफ़ रीच हो जाता है उसका।आपको बताया था ना एक दोस्त है।उससे पूछूंगी शब्दों का मतलब,पर वो तो मुझसे भी बोका निकला।बोलता है इरादा क्या है उर्दू /फ़ारसी सिखने का ? इसकी बहुत लम्बी कहानी है।शतेश बोले कोई बात नहीं।बहुतों को नहीं मालूम होता ,जैसे की मुझे या फिर वक़्त नहीं होता इतना समझाने का।इसमें बुरा क्या मानना।वैसे भी तुम मेरी गूगल रानी हो।नहीं कोई तो वही से सीखो -समझो।मैंने कहा हाँ वो तो है।अच्छा जाने दो इसे पर ,मुझे एक बात समझ नहीं आई शतेश चुलबुल के पास ढ़ेरो किताबें थी ,पर उसमे ग़ालिब कही नहीं थे।ना ही उसने कभी ग़ालिब के बारे में मुझे बताया।हालांकि कई बार उसने बेग़म अखतर की आवाज में -ये ना थी हमारी क़िस्मत के विसाल -ए -यार ( प्रेम से मिलना )होता ,अगर और जीते रहते ,यही इंतज़ार होता ,सुनाया था।मुझे दो दिन पहले ही मालूम हुआ कि ,ये ग़ालिब की रचना है।मालूम है ,पहले मै कई बार चीड़ जाती थी कि ,क्यों पका रहे हो भाई।ऑफिस से आओ और दिन भर की किचकिच के बाद आ -आ सुनो।कितनी पागल थी ना मैं।शतेश हँसते हुए बोले और अब।मैंने कहा जो भी है ,एक बात तो है मेरे ज्ञान का आधा श्रेय मेरे भाई को जरूर जाता है।वैसे इसमें दिल्ली का भी बहुत योगदान है।कई बार बिजली ना होने पर दोनों भाई -बहन छत पर घूमते थे।उसी दरमियान चुलबुल मुझे बहुत कुछ सुनाता ,बताता।आपको मालूम है चुलबुल  गाता भी बहुत अच्छा है।पकड़ -पकड़ के मुझे  "सुन ना बहिन" देखो ये ऐसे कवी, ये वो शायर ,ये हिन्दुस्तानी क्लासिकल ,तो ये सूफ़ी के मज़ार के पीछे की कहानी ,तो कभी अमृता प्रीतम ,तो कभी पकिस्तान बटवारा ,कभी बाबरी कांड ,कभी किताबी बाते तो कभी एक साथ बैठ के आर्ट मूवीज़ देखना ,फिर लड़ना ओह ! क्या वक़्त था वो।मैं थोड़ी इमोशनल हो गई।मुझे अपनी तरफ खींच के हँसने हुए शतेश बोले क्या हुआ फिर से हार्मोनल चेंजेज।मैंने कहा चलो अब घर चले।देर हो गई।लौटते वक़्त हमलोग वॉकिंग ट्रेल से आ रहे थे।रास्ते में मुझे ग़ालिब के जो एक दो शेर याद थे ,शतेश को सुनाए जा रही थी।"हज़ारो ख़्वाहिशें ऐसे की हर ख़्वाहिश पे दम निकले ,बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले"।मतलब ये कि -मेरी बहुत सी इक्षाये पूरी हुई लेकिन बहुत सी अभी बाकी है शतेश बाबू।शतेश बोले जैसे की ? मैंने कहा मेरे भाई का यहाँ ना होना।शतेश ने कहा उदास ना हो।उज्जवल जरूर आयेगा,नहीं तो हम तो जायेंगे ही।कुछ और याद है तो सुनाओ।मैंने कहा तो सुनो -"ग़ालिब ने यह कह कर तोड़ दी तस्बीह (माला ) गिनकर क्यों नाम लू उसका जो बेहिसाब देता है"।और तो देखो शतेश आज के माहौल के हिसाब से ग़ालिब ने 100 साल पहले ही क्या लिख दिया था-"जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौज़ूद, फिर ये हंगामा ये खुदा क्या है"
ग़ालिब की रचनाएँ तो अनमोल है।एक और शेर है जिसे सुनकर मै रोई थी शतेश फिल्म देखते वक़्त -"तेरे वादे पर जिए हम तोह यह जान झूठ जाना ,कि ख़ुशी से मर ना जाती अगर ऐतबार होता"।इसका मतलब ये कि ,ये ना समझो कि मैं तुम्हारे वादे पर जी रही थी।अगर मुझे तुम्हारा यकीन होता तो ख़ुशी से मर गई होती।
जो मुझे सबसे ज्यादा पसंद आई वो कुछ इस तरह थी -
 * "हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है ,तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़ -ए -गुफ़्तगू (बात का तरीका ) क्या है ? 
जला है जिस्म जहाँ दिल भी, जल गया होगा, कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजु (खोज,ढूँढना )क्या है ?
रगों में दौडते फिरने के हम नहीं कायल ,जब आँख से ही न टपका तो ,फिर लहू क्या है ?
चिपक रहा है बदन पर लहू से पैरहन (कपडा,शर्ट )हमारी जेब(शर्ट का कॉलर )को अब हाज़त -ये -रफू क्या है " 
आख़िर में सारे दोस्तों के नाम ग़ालिब का एक पैगाम मेरे कलम से -"रफ्तार कुछ जिंदगी की यूँ बनाये रख ग़ालिब कि ,दुश्मन भले आगे निकल जाये पर दोस्त कोई पीछे ना छूटे"।

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