Sunday 30 April 2017

वैश्याओं नहीं वयस्कों !!!

छोटे से ब्लॉक बसंतपुर में मनोरंजन के लिए आज तो तीन -तीन सिनेमाघर है ,पर कभी (90 's )में सिर्फ एक सिनेमाघर था "मनोज टाकीज " इसके अलावा दो -तीन वीडिओ घर भी थे।सिनेमाघर घर और वीडिओघर में सिर्फ स्क्रीन और टिकट का ही फर्क था। बाकी तो बैठने के लिए दोनों ही जगहों पर बेंच ही थे।दीवारें दोनों की पान और गुटके से रंगी थी ।मेरी खुशकिस्मती कि ,मुझे इन दोनों जगहों पर एक -एक फिल्म देखने का मौका मिला।वैसे तो इन दोनों जगहों पर महिलाएं कम ही जाती थी। कोई बहुत अच्छी या धार्मिक फिल्मों के  लगने पर ही मिहिलाओं का जाना होता।माँ तो बिल्कुल नहीं जाती थी ।मैं कॉलोनी की महिलाओं और बच्चों के साथ कभी -कभी चली जाती। भला हो पड़ोस वाली आंटी और उनकी बेटी का ।उनकी वजह से मुझे विडिओ घर भी देखने को मिला ।सिनमा घर तक ठीक था पर ,माँ वीडीयो घर कभी जाने ना देती। पड़ोस वाली आंटी की बेटी से मालूम हुआ कि ,वो लोग दिलवाले दुल्हनियाँ ले जायेंगे देखने जा रहे है। मैं आंटी के पीछे पड़ गई ।बोला आंटी माँ से बात कीजिये ना ।मैं भी चलूंगी ।मुझे मालूम था ।मुझे तो माँ मन ही करेंगी ।आइडिया तो काम कर गया ।।बाद में मैंने जो डाँट खाई की ,फ़िल्म देखने का सारा नशा काफ़ूर हो गया ।माँ को लग गया था कि ,मैं ही आंटी को बुला लाई थी ।उसके बाद कभी वीडिओ हॉल का नाम नहीं लिया ।वहीं मनोज टाकीज में ज़्यादातर बी ग्रेड की फिल्में लगती थी। छोटी जगह होने की वजह से नयी फिल्मों के रील दो -तीन महीनें बाद आते।मैंने मनोज टाकीज का श्री गणेश बॉर्डर मूवी देख कर की थी।वो भी गर्ल्स गैंग के साथ।सबसे मज़ेदार बात ये होती ।जब भी कोई अच्छी या हिट फिल्म आती ,एक आदमी रिक्से पर बैठ कर उसका प्रचार करता। रिक्से के तीनों तरफ फिल्म के पोस्टर लगे होते।जो आदमी प्रचार कर रहा होता वो बीच -बीच में उस फिल्म का थोड़ा गीत बजा देता।इससे लोगो में फिल्म देखने की ईक्षा और बढ़ जाती। साथ ही पुरे बसंतपुर में फिल्म के पोस्टर चिपका दिए जाते।हमलोग बसंतपुर के गंडक कॉलोनी में रहते थे। गंडक कॉलोनी की बॉउंड्री बड़ी होने की वज़ह से लाइन से पोस्टर चिपके हुए रहते। कई बार ,स्कूल या बाजार जाते वक़्त मेरी नजर इन पोस्टर्स पर पड़ती।मैं इनको पढ़ कर थोड़ी कंफ्यूज हो जाती।पोस्टर पर लिखा होता -रोमांच और मनोरंजन से भरपूर ,फलाना सिनेमा आपके सिनेमा घर में।साथ ही लिखा होता सिर्फ "वयस्कों "के लिए।टाइमिंग मॉर्निंग और  लेट नाईट की। मुझे पता नहीं किस बात की जल्दी होती।मैं इसको ऐसे पढ़ती -रोमांच और मनोरंजन से भरपूर ,फलाना सिनेमा आपके सिनेमा घर में। सिर्फ "वैश्याओं " के लिए।मै सोच -सोच के परेशान ।एक दिन मैंने अपने भाई से पूछा -भाई बसंतपुर में इतनी  वैश्यायें हैं क्या  ,जिनके लिए अलग से फ़िल्में लगती हैं।मेरा भाई हँस -हँस के पागल।पूछा कहाँ देखा तुमने  ?मैंने पोस्टर वाली बात बताई तो वो हँसते हुए बोला। ठीक से पढ़ना बोकी ,"वैश्याओं नहीं वयस्कों "लिखा होता है।
फोटो क्रेडिट -विष्णु नारायण

Thursday 27 April 2017

यादों के जंगली फूल !!!

 ठंढ के लगभग जाते ही ,जहाँ एक ओर न्यूयोर्क से वाशिंगटन तक चेरी ब्लोसम वाले फूल होते है।वही दूसरी तरफ टेक्सास में ब्लूबोनेट्स के फूल खिले होते है।चेरी ब्लोसम के फूलों पर पहले भी लिख चकी हूँ।आज बात जंगली फूलों की ,ब्लूबोनेट्स की।
ये एक तरह के जंगली फूल ही हैं ,फिर भी इनकी सुंदरता किसी गार्डन के फूलों से बिल्कुल कम नहीं। यहीं वजह है कि कई जोड़े इन फूलों के बीच शादी भी कर लेते है।हैं ना कमाल की बात।
टेक्सास में ली दूसरी जो तस्वीर है।उन फूलों को देख कर मुझे मेरा बचपन याद आ जाता है। कुछ इसी तरह के जंगली फूलों से हमलोग खूब खेला करते थे।शुरू से ही मुझे फूलों से बड़ा लगाव रहा है।बसंतपुर में हमारे सरकारी आवास के आस -पास अच्छी खासी खाली जगह है।मैं जब भी समय मिलता ,उसमे फूल लगाना ,पौधों को पानी देना ,उनकी कटाई -छटाई  में लग जाती। कई बार माँ नाराज भी हो जाती। कहती हाथ ख़राब हो जायेंगे। दिन भर खुरपी ,कुदाल चलाओगी तो।वहीं कॉलोनी की चाचीलोग ,मेरे बागान को सीता जी की वाटिका कहती।इन्ही फूलों के बीच कुछ जंगली फूल उग आते।कभी मैं उनको रहने देती ,कभी उखाड़ फेंकती।इन फूलों में ज्यादातर के तो नाम भी नहीं मालूम होते। खुद से कभी भुइया फूल तो कभी कटैला फूल नाम दे देते हमलोग।जाने इनका नाम क्या है ? नाम जो भी हो पर इन्हे भूलना इतना आसान भी नहीं।मेरे प्यारे जंगली फूल तुम्हारी तस्वीरों को मुश्किल से ढूंढा है।अब तुम सदा मेरे साथ रहोगे। तस्वीरों को देखें।शायद आप भी इन्हे पहचानते हो।इन्हे जानते हो। 
वैसे तो इंग्लिश में इन पौधों को सोरेल पलांट /ओक्सालिस कहते है।हमलोग तो इनको भटकोवा के फूल कहते।भटकोवा खाते भी थे।

इन फूलों को खटमिट्ठी 
के फूल कहते। इनकी पत्तियां खट्टी मीठी होती हैं।इनको भी हमलोग खाते और माँ से पेट में दर्द होने का उलाहना सुनते। 




Monday 24 April 2017

गला सुख जाने तक पुकारूँगा !!!

माँ चिठ्ठी पढ़ते -पढ़ते उदास हो गई।मैंने पूछा क्या हुआ माँ ? माँ बोली कुछ नहीं।ये लो बाबाजी की चिठ्ठी आई है।तुमलोगो के बारे में पूछा है।मैं खुश हो गई।बाबाजी ज़्यादातर जो माँ को चिठ्ठी लिखते ,उसी में हम भाई -बहन के लिए चार -पाँच लाइन लिख देते।मैं चिठ्ठी भगा -भगा के पढ़ती।जहां से प्रियंका (मैं )और त्रिपुरारी (मेरा भाई ) शुरू होता ,वहां से आराम से पढ़ती।कारण बाबाजी माँ को भोजपुरी में लिखते। उसे पढ़ने में थोड़ी दिक्कत होती।पढ़ने के क्रम में एक लाइन आई -बड़की दुल्हिन ,अबकीयो बरखा न भईल ठीक से।लगभग सारा खेत सुख गइल बा।पम्पी सेट से केतना पटवन होइ। मुझे उस वक़्त इन चीज़ो से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता था।इसलिए फिर से प्रियंका कहाँ लिखा है ढूंढने लगी।पर मेरी माँ उदास थी।पड़ोस के अमिन चाचा ,जो हमारे गाँव के तरफ से ही थे।माँ से पूछे -घर से चिठ्ठी आई है देवी जी।खेती गिरहस्ती का क्या हाल है।माँ उदास होकर बोली -अमीन साहब क्या कहे ?इस बार भी सूखा पड़ गया है।माँ और अमीन चाचा दोनों दुखी थे।मुझे ये समझ नहीं आया कि माँ क्यों परेशान है ?कभी भी बाढ़ या सूखे की वजह से घर पर कोई भी भूखा नहीं रहा। फिर ये दुःख ये चिंता क्यों ? ख़ास कर माँ को।हमलोग तो ज़्यादातर खरीद के ही आनाज खाते थे।बसंतपुर से बेतिया की दुरी की वजह से बाबा जी हर बार अनाज नहीं भेज पाते।अब समझ आया कि ,किसान की खेती उससे जुड़े हर इंसान की दुःख और ख़ुशी की वजह हो सकती है।मैं तो सोच के परेशान हूँ ,जब संपन्न किसान इतने दुःखी होते है ,तो जो गरीब है उनकी क्या दशा होगी ? आज बाबा जी होते तो ,जो दिल्ली में किसानों के साथ हुआ उस पर यही कहते।(बाबा जी ने नौकरी छोड़ कर किसान बनने का फैसला लिया था )

हाँ,
यह रास्ता
मैंने ही चुना था

इस पर चलते हुए
कब
मैं दलदल में
भीतर तक उतर गया
पता ही नहीं चला
और
जब मैंने महसूसा कि
मैं धँसा जा रहा हूँ
तब
मेरे पास केवल हाथ बचे थे
जिन्हें जीने की चाहत में
भरसक कोशिशों की तरह
मारता रहा इधर-उधर
नतीजा
मैं धँसता ही गया और अधिक,
यह दलदल
ऊपरी सतह पर
कुछ गाढ़ा ही था
लेकिन नीचे पतला रहा होगा
तभी तो मैं समाता रहा
लगातार...
बाहर निकलने को
की गई
हर मशक्कत में बहे पसीने ने
मुझे थका दिया
लेकिन 
इसका हौसला
मेरे पसीने की गंध पा
और बढ़ गया
मैं धँसा जा रहा हूँ
लगातार
पर जानता हूँ
शायद नहीं बचूँगा किन्तु
मेरे हाथ अब भी बाहर हैं
गला सुख जाने तक
तुम्हें पुकारूँगा
शायद मेरी आवाज
तुम्हारे प्रमोदरत कानों में
कभी पड़े!

Friday 7 April 2017

मारखाय गाय बनो ना !!!


गाय माता कल न्यूज़ में पढ़ा ,आपके डकार से पृथ्वी को खतरा है।आपके डकार से कुछ गैस -गुस निकलता है। वहीं है खतरे का कारण। हे गाय माता ! माफ़ करना ,आपने तो हर तरफ से खलबली मचाई हुई है।क्या आपको मालूम है इस बात का ? आप क्यों भोली -भाली गाय बनी है ? अपना मरखाह वाला रूप दिखाना शुरू कीजिये ना।जो मारे आपको उसको भी मारिये और जो बचाने का खेल खेल रहे है उन्हें भी ।आपको याद है ,बचपन में खेलते हुए हमलोग कहते थे  -गाय हमारी माता है ,हमको कुछ नहीं आता है।आज ये बात कितनी सार्थक लग रही है ना। आपके बारे में सच में हमें कुछ नहीं आता।खैर मरना तो सबको है ,पर माँ कहके जरिया आपको बना रहे है। वही धक से लगता है। माँ और मौत का खेल आह । खैर जो है सो तो है ही। राम जी गाड़ी वाले तो गाड़ी हाँक ही रहे है। सब देख रहे है। चलिए माता कबीर जी को सुने।आपको भी शांति मिलेगी। 

Thursday 6 April 2017

राजा गोपीचंद और मैं !!!!

मेरी और भाई की जब भी लड़ाई होती ,भाई को कूटने के बाद माँ एक कहावत कहती -सबका दुअरिया जइह ये गोपीचंद बहिना दुअरिया जनी जा। ये कहावत भाई की कुटाई के बाद ,माँ की सिम्पैथी होती ।अब कहावत सुनकर साफ़ -साफ़ यही लगता की बहन को भाई के यहां या पास नहीं जाना चाहिए। इतने साल से हम दोनों भाई बहन यही सुनते आ रहे हैं।एक आध बार माँ से ये सुना था कि ,पहले योगी लोग आते थे। गोपीचंद की कहानी को गीतों का रूप देकर गाते फिरते। ये कहावत उसी का हिस्सा है।इतने दिनों से जो कहावत की  ग़लतफ़हमी में हम भाई -बहन जी रहे थे ,उसका भेद योगी जी के मुख्यमंत्री बनने पर खुला। हुआ यूँ कि ,योगी जी से गोरखनाथ और ,गोरखनाथ से गोपीचंद याद आ गए।फिर क्या था गूगलिंग शुरू।जब सही जानकारी मिली हँस -हँस के हालात खऱाब। भाई को कॉल लगाया -भाई रे भाई धोखा हुआ है हमलोगों के साथ। माँ ने इतने सालों बेवकूफ़ बनाया। वो जिस संदर्भ में हमें कहावत को कहती ये तो ठीक उसके विपरीत है।भाई भी हँसने लगा। बोला हो सकता हो माँ के पास जो योगी आते हो वो अधूरी बात बताते हो या यही तक माँ ने सुना हो।अब इस बात की पुष्टि कैसे हो ? मैंने तुरंत माँ को कॉल लगाया। माँ घबड़ा गई। बोली सब ठीक हैं ना ? इतनी रात को कॉल ? मैंने कहा सब छोडो ,जो गोपीचंद का कहावत तुम कहती थी उसका मतलब क्या है ? माँ ये सुनकर और परेशान। पूछने लगी क्या हुआ ? फिर भाई -बहन में झगड़ा हुआ क्या ? कितना दिन तक हम फैसला करते रहेंगे ? मैंने कहा माता श्री कुछ नहीं हुआ।ये बताओ तुमने इतने दिन तक हमें अँधेरे में रखा। तुम्हे सचाई मालूम है कि क्या हुआ था गोपीचंद और उसकी बहन के बीच ?  माँ बोली हाँ ,और जो मैंने गूगल किया था वही लगभग बताई। हँसते हुए माँ  पूछी तो ये जानने के लिए तुमने इतनी रात कॉल किया है। मैंने कहा सालों से मैं इस ग्लानी में थी कि ,बहन दुस्ट होती है। भाई की उसे परवाह नहीं होती। चुलबुल भी ३/4 दिन फोन ना करो तो कह देता है। मस्ताना की माई अब तुम्हे मेरी फ़िक्र नहीं।माँ ठीक ही कहती है -बहिना दुआरे जन जाईए ये गोपीचंद। आज जब सचाई सामने आई तो चुप कैसे रहती ? माँ बोली बाऊवो ,तुमलोग का फरियवता ख़त्म नहीं होने वाला। वो तो मैं इसलिए कहती कि ,इतना बहन को भाई से प्रेम था फिर भी उसके दरवाज़े पर भाई उपास था।मैं थोड़ा झल्लाई ,तो पहले क्यों नही पूरी बात बताई। माँ हँसने लगी।बोली अच्छा बउओ रात बहुत हो गई है सोने दो।माँ सोने चली गई और मैं एक बार फिर से हँस पड़ी। मेरे और भाई की कहानी कुछ ज़्यादा हो गई ,इसलिए गोपीचंद जी की कहानी में काट -छाँट कर के सुनती हूँ :) कहानी कुछ इस तरह है -

गोपीचंद धौरागढ़ के राजा थे। उनकी सोलह सौ रानियाँ और सवा हज़ार कन्यायें थी। एक दिन गोपीचंद की प्रिय रानी रत्नकुवंर ने बुरा सपना देखा।रानी का मन व्याकुल था ,इसलिए सेवक को भेज राजा को दरबार से महल में बुलाया।राजा महल में आये तो रानी ने सपने की बात बताई।राजा हँस पड़े। रानी को समझा बुझा के दरबार जाने लगे।फिर सोचा जब अभी आया हूँ तो अपनी माँ से भी मिलता हुआ चलूँ।राजा अपनी माँ के पास पहुँचे।उन्हें देख कर उनकी माँ रोने लगी। माँ को रोता देख राजा पूछते है -माँ क्यों रो रही हो ? क्या मेरी रानियों ने कुछ कहा है ? माँ बोली नही बेटा। मैं तो तुम्हे देख कर रो रही हूँ। कितना सुन्दर मेरा बेटा। इतना बड़ा राजा फिर भी काल इसे नही छोड़ेगा।एक दिन अपने पिता की तरह तुम्हे भी मौत आ जाएगी।राजा हँस पड़ा। बोला माँ ये तो प्रकृति का नियम है। जो आया है ,उसे एक न एक दिन जाना ही है। इसमें रोना कैसा ? माँ बोली नही बेटा एक उपाय है। तुम वैराग धारण कर लो। गोरखनाथ जी के शरण में चले जाओ।फिर तुम्हे मृत्यू नहीं आएगी। माँ की ऐसी बात सुनकर गोपीचंद बोले ठीक है माँ।तुम कहती हो तो मैं जाता हूँ वैराग को ,पर मेरे बाद मेरी राज्य को ठीक से संभालना। मुझे कोई पुत्र भी नही जो राज्य संभाले। मेरी रानियों का ख़्याल रखना और मेरी बेटियों का अच्छे घर में विवाह कर देना।माँ ये सब सुनकर दुखी हो गई। कहने लगी ये क्या कर दिया मैंने। मत जाओ गोपीचंद वैराग को।गोपीचंद बोले माँ मुझे ज्ञान देकर ,अब मुझे मत रोको। ऐसा कह कर गोपीचंद वही से गोरखनाथ की खोज में निकल गए। रास्ते में उन्हें उनके मामा मिले ,जो गोरखनाथ के शिष्य थे। राजा ने मामा से ज़िद की गोरखनाथ से मिलवाने की।मामा गोपीचंद को बहुत समझये ,नहीं मानने पर थक हार के गोपीचंद को गोरखनाथ जी के पास ले गए। गोरखनाथ जी  ने कहा गोपीचंद वापस लौट जाओ। तुम्हारा परिवार तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है। गोपीचंद बोले नही भगवान अब मैं आपकी शरण में रहूँगा।तब गोरखनाथ बोले अच्छा ठीक है। तुम हमारे साथ रह सकते हो पर इसके लिए तुम्हे अपनी प्रिय रानी से माँ कह कर भिक्षा लानी है।गोपीचंद महल वापस आये और योगी के रूप में रानी से भिक्षा मांगी। रानी राजा के हठ के आगे झुक गई और पुत्र कहकर भिक्षा दे दिया। गोपीचंद अपनी माँ से भी भिक्षा लेने गए। माँ ने भी भिक्षा दे दी।इसके साथ चेतावनी दी सब जगह जाना पर अपने बहन के यहां मत जाना। वहीँ बात जो ,कहावत के रूप में मेरी माँ कहती है।गोपीचंद अपनी माँ से पूछे -ऐसा क्यों  माँ ? क्यों बहन के यहां न जाऊँ ? माँ बोली - बेटा तुम्हारी बहन तुमसे बहुत प्यार करती है।तुम्हारी ऐसी हालत देख के वो मर जाएगी।गोपीचंद हैरान। बोली मेरी इतनी रानियां ,इतनी बेटियां तुम माँ होकर नहीं मरी तो बहन क्या मरेगी ? फिर भी मुझे इसकी जांच करनी है।राजा बहन के यहां गए।बहन ने दासी से भिक्षा भेजवा दी। गोपीचंद बोले नहीं मुझे रानी से ही भिक्षा चाहिए।योगी के जिद्द के आगे रानी को बाहर आना पड़ा। अपने भाई की हालत देख कर रानी सच में मर गई।भाई भी दुखी होकर गोरखनाथ को पुकारने लगे।गोरखनाथ आये और राजा के बहन को जीवन दान दिया। तो इस तरह खीसा गइल बन में सोचा अपना मन में।और अब जब भी कोई कहावत सुने नहीं समझ आये तो पूछ जरूर ले :)

Tuesday 4 April 2017

किशोरी अमोनकर जी की यादें !!!!

"किशोरी अमोनकर "जी हमारे बीच नही रही।ये दुखद खबर सुनते ही सबसे पहले भाई का ख़्याल आया। सोच रही थी , दुःखी होगा ख़बर सुनकर।बात करती हूँ, पर मीर मस्ताना की वजह से कॉल नही कर पाई।देर रात उसको कॉल लगाया पर लगा नही।फ़ोन हाथ में था ,और मन नेहरू पार्क में। हाँ वहीं दिल्ली का नेहरू पार्क।जहाँ पहली बार मुझे किशोरी अमोनकर जी को सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। हुआ यूँ था ,"स्पीक मैके " की तरफ से "म्यूजिक इन पार्क " आयोजित किया गया था। इस प्रोग्राम में काफी बड़े -बड़े कलाकार अपनी प्रस्तुति दे रहे थे।पर नौकरी और  महरौली से नेहरू पार्क की दुरी ,इनके चक्कर में हम भाई -बहन कुछ ही प्रोग्राम के साक्षी बने।नेहरू पार्क के लिए मेहरौली से कोई डायरेक्ट बस भी नही थी।ऑटो वाले हमारी मज़बूरी का फायदा उठाने की कोशिश करते। कहते भाई साहब शाम का समय है ,उधर से सवारी नही मिलेगी।खाली आना होगा ,ज्यादा नही माँग रहे। हमलोगों ने तय किया कि कोई बात नही हम जायेंगे बस बदल -बदल कर। आते समय ऑटो कर लेंगे।इन प्रोग्राम में आने -जाने की स्टोरी भी बहुत मज़ेदार है। कभी और लिखूंगी ,अभी किशोरी जी के बात की जाय।हमलोग  नेहरू पार्क पहुँच गए। पार्क के एक कोने में एक स्टेज बना था।स्रोतागण के लिए एक तरफ दरी और दूसरी तरफ कुर्सी लगी थी।स्वेक्षा से कोई कही भी बैठ सकता था। हमलोग थोड़ी देर से पहुंचे थे। आगे की लाइन भर गई थी।कुछ कुर्सियां खाली थी ,पर भाई बोला नही दरी पर ही बैठते है।हमलोग पीछे जा के बैठ गए।अब तक किशोरी जी स्टेज पर नही आई थीं।थोड़ी देर बाद अनाउंस हुआ -जानी मानी ख़्याल ,ठुमरी भजन गायिका  किशोरों अमोनकर  जी स्टेज पर आ रही है।इनके बारे में जितना कहा जाय कम होगा। और भी बहुत कुछ जो और अंत में स्वागत कीजिये पद्म भूषण किशोरी अमोनकर हमारी किशोरी ताई जी का। मैं बहुत एक्ससिटेड हो गई।पहली बार किसी कलासिकल प्रोग्राम को लाइव सुनने जा रही थी।बहुत -बहुत प्यार मेरे भाई ,तुम्हारी वज़ह से मैंने कितने अच्छे पल जिए है।ख़ैर किशोरी जी ने गाना शुरू किया।हमलोग तक आवाज़ ठीक से पहुँच नही रही थी।शायद उनको भी माइक्रोफोन में कुछ गड़बड़ी लग थी थी।उन्होंने प्रोग्राम अरेंज कराने वाले को माइक ठीक करने को कहा। तबतक मेरा भाई उठकर आगे कुछ जगह ढूंढ आया बैठने के लिए।आकर बोला चलो दीदी ,आगे जगह है।हमलोग आगे जाके बैठ गए।इसी बीच  माइक भी ठीक हो गया था ,पर किशोरी जी झल्ला गई थी। बोली समय बर्बाद कर दिया। खैर उन्होंने पानी पिया और गाना शुरू किया।सच बताऊँ तो मुझे कुछ समझ नही आ रहा था।आवाज़ भी इतनी कुछ ख़ास नही लग रही थी।मैंने भाई से धीरे से कहा -इनकी तुम इतनी तारीफ करते हो। मुझे तो कुछ ख़ास नही लग रहा। भाई बोला लगता है "ताई " की आवाज़ थोड़ी ख़राब है आज।राग भी कठिन छेड़ा है इसलिए तुम्हे अच्छा नही लग रहा। सुनो बाद में बताऊंगा।हमलोग सुनने लगे।किशोरी जी को गाते कुछ समय ही हुआ होगा ,कि उन्होंने सामने लाइव वीडियो बनाने वाले को डाँटा। विडियो शायद प्रोग्राम की मेमोरी के लिए बनाया जा रहा था।वीडियो वाला बोला -मैडम ये प्रोग्राम कराने वाले बनवा रहे है। किशोरी जी ने कहा ,मुझे इससे कोई मतलब नही। विडियो बंद करो ,वरना मैं गाऊँगी नही।कुछ लोग आवाज़ सुनकर ,बैक स्टेज से आगे आये।वीडियो बंद किया गया।तब जाके किशोरी जी ने गाना शुरू किया।इसी बीच मैंने भाई को कहा -गाती तो कुछ ख़ास नही। ड्रामा कितना है।बात -बात पे झल्ला जा रहीं है। ड्रामा शब्द सुनकर मेरा भाई मुझपर बिगड़ गया। बोला चुपचाप सुनो।समझ नही आता क्या बोलना चाहिए। किशोरी जी थोड़ा गुस्सा कर जाती है ,पर हर आर्टिस्ट का अपना स्वभाव होता है। इनको चलता - फिरता ऑडियंस नही पसंद। रास्ते में इनके बारे में बताऊँगा।फिलहाल प्रोग्राम शुरू हो गया।सुनो ध्यान से ,और वो सुनने लगा। जानकारी के आभाव में काफी देर बाद मुझे अच्छा लगना शुरू हुआ। या यूँ कहे तो प्रोग्राम ख़त्म होने के  20 /25  मिनट पहले से। घर आते वक़्त भाई ने किशोरी जी की कई बातें बताई। मसलन -उनकी आवाज़ चली गई थी जो  बाद में काफी ईलाज़ के बाद आई। किशोरी जी कई प्रोग्राम को बीच में छोड़ के चली गई है ,अगर ऑडिशन्स उनके मन लायक नही हो तो।हर प्रोग्राम में भी नही जाती। अपनी माँ जो उनकी पहली गुरु थी ,उनकी वज़ह से इन्होंने फिल्मों में गाना बंद कर दिया। वैसे तो किशोरी जी की शुरुआत तो जयपुर घराने से हुई थी ,पर उन्होंने ख़ुद को किसी घराने से नही बाँधा।वो कहती थी घराना कुछ नही है। बस संगीत ही सब कुछ है। इसे किसी बंधन में ना बाँधा जाय। आज आप हमारे बीच नही रही ,पर आपका संगीत हमेशा -हमेशा हमारे बीच रहेगा ताई। नेहरू पार्क की अपनी अज्ञानता के लिए मैं शर्मिंदा हूँ। माँ सरस्वती की कृपा ही रही जो मुझे आपको सुनने का आशीर्वाद प्राप्त हुआ। कोटि-कोटि प्रणाम आपको।