छोटे से ब्लॉक बसंतपुर में मनोरंजन के लिए आज तो तीन -तीन सिनेमाघर है ,पर कभी (90 's )में सिर्फ एक सिनेमाघर था "मनोज टाकीज " इसके अलावा दो -तीन वीडिओ घर भी थे।सिनेमाघर घर और वीडिओघर में सिर्फ स्क्रीन और टिकट का ही फर्क था। बाकी तो बैठने के लिए दोनों ही जगहों पर बेंच ही थे।दीवारें दोनों की पान और गुटके से रंगी थी ।मेरी खुशकिस्मती कि ,मुझे इन दोनों जगहों पर एक -एक फिल्म देखने का मौका मिला।वैसे तो इन दोनों जगहों पर महिलाएं कम ही जाती थी। कोई बहुत अच्छी या धार्मिक फिल्मों के लगने पर ही मिहिलाओं का जाना होता।माँ तो बिल्कुल नहीं जाती थी ।मैं कॉलोनी की महिलाओं और बच्चों के साथ कभी -कभी चली जाती। भला हो पड़ोस वाली आंटी और उनकी बेटी का ।उनकी वजह से मुझे विडिओ घर भी देखने को मिला ।सिनमा घर तक ठीक था पर ,माँ वीडीयो घर कभी जाने ना देती। पड़ोस वाली आंटी की बेटी से मालूम हुआ कि ,वो लोग दिलवाले दुल्हनियाँ ले जायेंगे देखने जा रहे है। मैं आंटी के पीछे पड़ गई ।बोला आंटी माँ से बात कीजिये ना ।मैं भी चलूंगी ।मुझे मालूम था ।मुझे तो माँ मन ही करेंगी ।आइडिया तो काम कर गया ।।बाद में मैंने जो डाँट खाई की ,फ़िल्म देखने का सारा नशा काफ़ूर हो गया ।माँ को लग गया था कि ,मैं ही आंटी को बुला लाई थी ।उसके बाद कभी वीडिओ हॉल का नाम नहीं लिया ।वहीं मनोज टाकीज में ज़्यादातर बी ग्रेड की फिल्में लगती थी। छोटी जगह होने की वजह से नयी फिल्मों के रील दो -तीन महीनें बाद आते।मैंने मनोज टाकीज का श्री गणेश बॉर्डर मूवी देख कर की थी।वो भी गर्ल्स गैंग के साथ।सबसे मज़ेदार बात ये होती ।जब भी कोई अच्छी या हिट फिल्म आती ,एक आदमी रिक्से पर बैठ कर उसका प्रचार करता। रिक्से के तीनों तरफ फिल्म के पोस्टर लगे होते।जो आदमी प्रचार कर रहा होता वो बीच -बीच में उस फिल्म का थोड़ा गीत बजा देता।इससे लोगो में फिल्म देखने की ईक्षा और बढ़ जाती। साथ ही पुरे बसंतपुर में फिल्म के पोस्टर चिपका दिए जाते।हमलोग बसंतपुर के गंडक कॉलोनी में रहते थे। गंडक कॉलोनी की बॉउंड्री बड़ी होने की वज़ह से लाइन से पोस्टर चिपके हुए रहते। कई बार ,स्कूल या बाजार जाते वक़्त मेरी नजर इन पोस्टर्स पर पड़ती।मैं इनको पढ़ कर थोड़ी कंफ्यूज हो जाती।पोस्टर पर लिखा होता -रोमांच और मनोरंजन से भरपूर ,फलाना सिनेमा आपके सिनेमा घर में।साथ ही लिखा होता सिर्फ "वयस्कों "के लिए।टाइमिंग मॉर्निंग और लेट नाईट की। मुझे पता नहीं किस बात की जल्दी होती।मैं इसको ऐसे पढ़ती -रोमांच और मनोरंजन से भरपूर ,फलाना सिनेमा आपके सिनेमा घर में। सिर्फ "वैश्याओं " के लिए।मै सोच -सोच के परेशान ।एक दिन मैंने अपने भाई से पूछा -भाई बसंतपुर में इतनी वैश्यायें हैं क्या ,जिनके लिए अलग से फ़िल्में लगती हैं।मेरा भाई हँस -हँस के पागल।पूछा कहाँ देखा तुमने ?मैंने पोस्टर वाली बात बताई तो वो हँसते हुए बोला। ठीक से पढ़ना बोकी ,"वैश्याओं नहीं वयस्कों "लिखा होता है।
फोटो क्रेडिट -विष्णु नारायण
फोटो क्रेडिट -विष्णु नारायण