माँ चिठ्ठी पढ़ते -पढ़ते उदास हो गई।मैंने पूछा क्या हुआ माँ ? माँ बोली कुछ नहीं।ये लो बाबाजी की चिठ्ठी आई है।तुमलोगो के बारे में पूछा है।मैं खुश हो गई।बाबाजी ज़्यादातर जो माँ को चिठ्ठी लिखते ,उसी में हम भाई -बहन के लिए चार -पाँच लाइन लिख देते।मैं चिठ्ठी भगा -भगा के पढ़ती।जहां से प्रियंका (मैं )और त्रिपुरारी (मेरा भाई ) शुरू होता ,वहां से आराम से पढ़ती।कारण बाबाजी माँ को भोजपुरी में लिखते। उसे पढ़ने में थोड़ी दिक्कत होती।पढ़ने के क्रम में एक लाइन आई -बड़की दुल्हिन ,अबकीयो बरखा न भईल ठीक से।लगभग सारा खेत सुख गइल बा।पम्पी सेट से केतना पटवन होइ। मुझे उस वक़्त इन चीज़ो से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता था।इसलिए फिर से प्रियंका कहाँ लिखा है ढूंढने लगी।पर मेरी माँ उदास थी।पड़ोस के अमिन चाचा ,जो हमारे गाँव के तरफ से ही थे।माँ से पूछे -घर से चिठ्ठी आई है देवी जी।खेती गिरहस्ती का क्या हाल है।माँ उदास होकर बोली -अमीन साहब क्या कहे ?इस बार भी सूखा पड़ गया है।माँ और अमीन चाचा दोनों दुखी थे।मुझे ये समझ नहीं आया कि माँ क्यों परेशान है ?कभी भी बाढ़ या सूखे की वजह से घर पर कोई भी भूखा नहीं रहा। फिर ये दुःख ये चिंता क्यों ? ख़ास कर माँ को।हमलोग तो ज़्यादातर खरीद के ही आनाज खाते थे।बसंतपुर से बेतिया की दुरी की वजह से बाबा जी हर बार अनाज नहीं भेज पाते।अब समझ आया कि ,किसान की खेती उससे जुड़े हर इंसान की दुःख और ख़ुशी की वजह हो सकती है।मैं तो सोच के परेशान हूँ ,जब संपन्न किसान इतने दुःखी होते है ,तो जो गरीब है उनकी क्या दशा होगी ? आज बाबा जी होते तो ,जो दिल्ली में किसानों के साथ हुआ उस पर यही कहते।(बाबा जी ने नौकरी छोड़ कर किसान बनने का फैसला लिया था )
हाँ,
यह रास्ता
मैंने ही चुना था
इस पर चलते हुए
कब
मैं दलदल में
भीतर तक उतर गया
पता ही नहीं चला
और
जब मैंने महसूसा कि
मैं धँसा जा रहा हूँ
तब
मेरे पास केवल हाथ बचे थे
जिन्हें जीने की चाहत में
भरसक कोशिशों की तरह
मारता रहा इधर-उधर
नतीजा
मैं धँसता ही गया और अधिक,
यह दलदल
ऊपरी सतह पर
कुछ गाढ़ा ही था
लेकिन नीचे पतला रहा होगा
तभी तो मैं समाता रहा
लगातार...
बाहर निकलने को
की गई
हर मशक्कत में बहे पसीने ने
मुझे थका दिया
लेकिन
इसका हौसला
मेरे पसीने की गंध पा
और बढ़ गया
मैं धँसा जा रहा हूँ
लगातार
पर जानता हूँ
शायद नहीं बचूँगा किन्तु
मेरे हाथ अब भी बाहर हैं
गला सुख जाने तक
तुम्हें पुकारूँगा
शायद मेरी आवाज
तुम्हारे प्रमोदरत कानों में
कभी पड़े!
हाँ,
यह रास्ता
मैंने ही चुना था
इस पर चलते हुए
कब
मैं दलदल में
भीतर तक उतर गया
पता ही नहीं चला
और
जब मैंने महसूसा कि
मैं धँसा जा रहा हूँ
तब
मेरे पास केवल हाथ बचे थे
जिन्हें जीने की चाहत में
भरसक कोशिशों की तरह
मारता रहा इधर-उधर
नतीजा
मैं धँसता ही गया और अधिक,
यह दलदल
ऊपरी सतह पर
कुछ गाढ़ा ही था
लेकिन नीचे पतला रहा होगा
तभी तो मैं समाता रहा
लगातार...
बाहर निकलने को
की गई
हर मशक्कत में बहे पसीने ने
मुझे थका दिया
लेकिन
इसका हौसला
मेरे पसीने की गंध पा
और बढ़ गया
मैं धँसा जा रहा हूँ
लगातार
पर जानता हूँ
शायद नहीं बचूँगा किन्तु
मेरे हाथ अब भी बाहर हैं
गला सुख जाने तक
तुम्हें पुकारूँगा
शायद मेरी आवाज
तुम्हारे प्रमोदरत कानों में
कभी पड़े!
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