Monday, 24 June 2019

इंद्रधनुष और प्रेम का पुल !!!

तीसरी  मंज़िल  की खिड़की और पीछे हम दोनो। काँच के इस तरफ़ से चार आँखे नीचे की तरफ़ देख रहीं थी। एक की नज़र जहाँ कार पर थी वहीं दूसरे की नज़र उसके पास खड़े दो लोगों पर। दो ऐसे लोग जो विदा के इस पल को सह नही पा रहें थे। बार-बार एक दूसरे से गले मिल रहें थे, एक दूसरे को चूम रहे थे।

मैं उनके इस एकांत की अकेली गवाह नही थी। उनके साथ एक तीसरी महिला और पूरा परिवेश था , जो उनके विदा से दुखी हो रहा था। तभी तो कुछ पल के लिए बदली सी घिर आई थी। उनके इस विदा को देख मेरा मन भी दुखी हो रहा था, वह भी कह रहा था, “ ये जो भी हों अलग ना हो”

मेरी नज़रों के नीचे एक सोलह-सत्रह साल का लड़का खड़ा था, जो  किसी महिला को जाने से पहले विदा दे रहा था। महिला की पीठ मेरी तरफ़ थी। ऐसे में मैं समझ नही पा रही थी कि ये किस उम्र की होगी। शरीर से थोड़ी ज़्यादा, हल्के लाल छोटे-छोटे केश। काली जैकेट के साथ घुटने तक की नीली पैंट में लिपटी उस महिला को लड़का बार-बार गले लगा रहा था। उसके माथे को चूम रहा था। महिला भी प्रतिरूप अपना प्यार लूटा रही थी। कभी उसके बाज़ुओं को चूम तो कभी उसके गालों को। कभी दोंनो अपने आँखों के किनारे पोंछते। बार-बार लड़का गाड़ी तक जाता फिर आकर उसे गले लगा लेता। ऐसा देख मुझे लगा ये शायद लड़के की दादी या नानी होगी।

अंतत: एक दूसरी महिला जो लड़के की माँ जैसी लग रही थी, चलने का इशारा करती है। गाड़ी से निकल कर वो दूसरी महिला को गले लगा कर, ड्राइविंग सीट पर बैठ जाती है। लड़का भी गाड़ी में बैठ जाता पर जबतक उसकी माँ शायद अड्रेस लगा रही थी तबतक वो उतर कर उस महिला को फिर से गले लगता है। उसके सिर के साथ इस बार होंठों को भी चूमता है। महिला भी वैसा हीं करती है पर ये चुम्बन देखने में कुछ ऐसा लगा जैसे किसी ने फूलों को होंठों से छुआ हो।
इसके बाद मुझे लगा, हो सकता है ये उस लड़के की दोस्त हो, प्रेमिका हो। इतना दुःख अलग होने का ओह! जाने दोनो कौन थे ? उनके बीच जो भी रिश्ता हो, बड़ा हीं पवित्र लग रहा था। इस प्रेमपूर्ण वियोग की घड़ी में मैं भी बहे जा रही थी कि, सत्यार्थ बोल पड़ा पानी-पानी।

सत्यार्थ को पानी देकर मैं यहीं सोचने लगी कि यहाँ लोग प्यार को भी कितने प्यार से करतें हैं। अपनी प्रेमिका के बालों को ऐसे सहलाते हैं जैसे वो कोई रेशम हो। उसके हाथों को अपने हाथ में ऐसे लेते हैं जैसे किसी मासूम बच्चा के हाथ हों।उसके होंठों को ऐसे चूमतें हो जैसी उसकी आत्मा को चूम रहें हो।

शायद यहीं आत्मा का वियोग इतना बढ़ा गया था कि शाम को ख़ूब बारिश हुई और एक ऐसा इंद्रधनुष उगा जो मानो मेरे नीचे के माले से लेकर उस लड़के के पड़ाव तक जुड़ गया हो। मानो इस इंद्रधनुष ने संदेश दिया हो कि मैंने सारे रंगो के पुल बना दिया है तुम्हारे लिए अब सफ़र तुम ख़ुद तय करो।




No comments:

Post a Comment