हर साल की तरह इस बार भी बिहार में बाढ़ आई है, और इस बार इसने बिहार की राजधानी पर जम कर राज किया है। मानवीय भावना कह रही है कि, क्या हुआ तपस्या जो तुम इतनी क्रूर हो रही हो ? बाढ़ के राज पर जम शब्द का प्रयोग कर रही हो ?
अब क्या बताऊँ कि मैं इस पीड़ा को हर साल मानसिक तौर पर झेलती हूँ। मेरी माँ , मेरे परिवार के लोग, मेरा गाँव हर साल इस त्रासदी को झेलता है। तब तो कोई मंत्री-संतरी सुध नही लेते। आज उनका घर डुबा तो चंद घंटो में उन्हें निकाल लिया गया। उन परिवार का क्या, जिनके घर से हर साल कोई ना कोई इस बाढ़ की बलि चढ़ता है.......
हर साल मालूम रहता है कि बाढ़ आएगी पर सुरक्षा का इंतज़ाम खाना-पूर्ति भर होता है। सरकारी राहत दल भी अति की स्थिति में हीं पहुँचती है। वो तो धन्य है बिहार के लोग और उनका साहस कि बिना सरकारी मदद के वे हज़ारों जान हर साल बचाते है। पर आख़िर कब तक ये लोग, लोगों का जान बचाते रहेंगे ?
आख़िर कब तक सामाजिक सहयोग से “चमकी बुखार” का ईलाज होता रहेगा? क्या ने इतने सालों से चली आ रही बाढ़ का कोई निदान भी सरकार सोचती है या यूँ ही हर साल सरकारी ख़ज़ाने से बस मुआवज़ा तक हीं सोचा है ?
मुझे पुरा यक़ीन है कि इस बार भी बाढ़ के जाने के बाद फैली महमारी का कोई इलाज बिहार सरकार के पास ना होगा....
मेरा गाँव तो ख़ैर बरसों से बाढ़ सहने मे अब निपुण हो गया है। उसे बहुत ज़्यादा जान की चिंता नही होती। हाँ फ़सलों के जाने का दुःख सबसे ज़्यादा होता है। अगर बाढ़ से बच गए तो साल भर परिवार का पेट कैसे भरेगा ये चिंता ज़रूर होती है। हालाँकि गाँव-देहात की यहीं तो ख़ूबसूरती है कि यहाँ भूखे कोई नही मरता.....
बिहार के महामहिम और कुछ मंत्री साहिबान ने कहा, “ नेचर पर किसी का वश नही और सब “हथिया नक्षत्र” का दोष है।
माननीय महामहिम, हम जनता भले साल दर साल हर तरह की त्रासदी से जूझते हैं पर हमारे दिमाग़ में गोबर-कादो नही भरा.....
हम अच्छी तरह जानते है कि इस आपदा में हमारा भी कहीं ना कहीं हाथ है। हम अपने ज़रूरतों के आगे चंपारण के वन को बली देते जा रहें है, नदियों को भरते जा रहें हैं, तालाब को ढँकते जा रहें हैं पर सब कुछ केवल नक्षत्र पर छोड़ देना ये हमारे संस्कार नही।
हम किसान तो हथिया नक्षत्र को फसल के लिए वरदान मानते है। हमें तो इसके आगमन का इंतज़ार होता हैं। तभी तो कहते है,
“जब ना बरसीहें हस्त (हथिया) त का करिहें गिरहस्त”
इस बार से तो कुछ सीख ले। अबकि आपका भी घर डुबा है। बेकार का रोना-धोना छोड़ कर कम से कम इस दिशा में कोई कारगर उपाय कीजिए मंत्री महोदय। ख़ाली पर्यावरण विद बनने और ज्ञान देने से कुछ नही होगा।
जाते -जाते आपको बता दूँ कि, आपकी दया रूपी दी हुई बाढ़ पीड़ित राशि से कुछ नही होता। गाँव के लोग उससे मोबाईल फ़ोन और रंगीन टीवी ख़रीद लेते है।
क्यों?
क्योंकि सब को मालूम है, “अगले साल भी तो यहीं होना है”
अब क्या बताऊँ कि मैं इस पीड़ा को हर साल मानसिक तौर पर झेलती हूँ। मेरी माँ , मेरे परिवार के लोग, मेरा गाँव हर साल इस त्रासदी को झेलता है। तब तो कोई मंत्री-संतरी सुध नही लेते। आज उनका घर डुबा तो चंद घंटो में उन्हें निकाल लिया गया। उन परिवार का क्या, जिनके घर से हर साल कोई ना कोई इस बाढ़ की बलि चढ़ता है.......
हर साल मालूम रहता है कि बाढ़ आएगी पर सुरक्षा का इंतज़ाम खाना-पूर्ति भर होता है। सरकारी राहत दल भी अति की स्थिति में हीं पहुँचती है। वो तो धन्य है बिहार के लोग और उनका साहस कि बिना सरकारी मदद के वे हज़ारों जान हर साल बचाते है। पर आख़िर कब तक ये लोग, लोगों का जान बचाते रहेंगे ?
आख़िर कब तक सामाजिक सहयोग से “चमकी बुखार” का ईलाज होता रहेगा? क्या ने इतने सालों से चली आ रही बाढ़ का कोई निदान भी सरकार सोचती है या यूँ ही हर साल सरकारी ख़ज़ाने से बस मुआवज़ा तक हीं सोचा है ?
मुझे पुरा यक़ीन है कि इस बार भी बाढ़ के जाने के बाद फैली महमारी का कोई इलाज बिहार सरकार के पास ना होगा....
मेरा गाँव तो ख़ैर बरसों से बाढ़ सहने मे अब निपुण हो गया है। उसे बहुत ज़्यादा जान की चिंता नही होती। हाँ फ़सलों के जाने का दुःख सबसे ज़्यादा होता है। अगर बाढ़ से बच गए तो साल भर परिवार का पेट कैसे भरेगा ये चिंता ज़रूर होती है। हालाँकि गाँव-देहात की यहीं तो ख़ूबसूरती है कि यहाँ भूखे कोई नही मरता.....
बिहार के महामहिम और कुछ मंत्री साहिबान ने कहा, “ नेचर पर किसी का वश नही और सब “हथिया नक्षत्र” का दोष है।
माननीय महामहिम, हम जनता भले साल दर साल हर तरह की त्रासदी से जूझते हैं पर हमारे दिमाग़ में गोबर-कादो नही भरा.....
हम अच्छी तरह जानते है कि इस आपदा में हमारा भी कहीं ना कहीं हाथ है। हम अपने ज़रूरतों के आगे चंपारण के वन को बली देते जा रहें है, नदियों को भरते जा रहें हैं, तालाब को ढँकते जा रहें हैं पर सब कुछ केवल नक्षत्र पर छोड़ देना ये हमारे संस्कार नही।
हम किसान तो हथिया नक्षत्र को फसल के लिए वरदान मानते है। हमें तो इसके आगमन का इंतज़ार होता हैं। तभी तो कहते है,
“जब ना बरसीहें हस्त (हथिया) त का करिहें गिरहस्त”
इस बार से तो कुछ सीख ले। अबकि आपका भी घर डुबा है। बेकार का रोना-धोना छोड़ कर कम से कम इस दिशा में कोई कारगर उपाय कीजिए मंत्री महोदय। ख़ाली पर्यावरण विद बनने और ज्ञान देने से कुछ नही होगा।
जाते -जाते आपको बता दूँ कि, आपकी दया रूपी दी हुई बाढ़ पीड़ित राशि से कुछ नही होता। गाँव के लोग उससे मोबाईल फ़ोन और रंगीन टीवी ख़रीद लेते है।
क्यों?
क्योंकि सब को मालूम है, “अगले साल भी तो यहीं होना है”