Monday, 30 September 2019

बाढ़!!!

हर साल की तरह इस बार भी बिहार में बाढ़ आई है, और इस बार इसने बिहार की राजधानी पर जम कर राज किया है। मानवीय भावना कह रही है कि, क्या हुआ तपस्या जो तुम इतनी क्रूर हो रही हो ? बाढ़ के राज पर जम शब्द का प्रयोग कर रही हो ?
अब क्या बताऊँ कि मैं इस पीड़ा को हर साल मानसिक तौर पर झेलती हूँ। मेरी माँ , मेरे परिवार के लोग, मेरा गाँव हर साल इस त्रासदी को झेलता है। तब तो कोई मंत्री-संतरी सुध नही लेते। आज उनका घर डुबा तो चंद घंटो में उन्हें निकाल लिया गया। उन परिवार का क्या, जिनके घर से हर साल कोई ना कोई इस बाढ़ की बलि चढ़ता है.......

हर साल मालूम रहता है कि बाढ़ आएगी पर सुरक्षा का इंतज़ाम खाना-पूर्ति भर होता है। सरकारी राहत दल भी अति की स्थिति में हीं पहुँचती है। वो तो धन्य है बिहार के लोग और उनका साहस कि बिना सरकारी मदद के वे हज़ारों जान हर साल बचाते है। पर आख़िर कब तक ये लोग, लोगों का जान बचाते रहेंगे ?
आख़िर कब तक सामाजिक सहयोग से “चमकी बुखार” का ईलाज होता रहेगा? क्या ने इतने सालों से चली आ रही बाढ़ का कोई निदान भी सरकार सोचती है या यूँ ही हर साल सरकारी ख़ज़ाने से बस मुआवज़ा तक हीं सोचा है ?
मुझे पुरा यक़ीन है कि इस बार भी बाढ़ के जाने के बाद फैली महमारी का कोई इलाज बिहार सरकार के पास ना होगा....

मेरा गाँव तो ख़ैर बरसों से बाढ़ सहने मे अब निपुण हो गया है। उसे बहुत ज़्यादा जान की चिंता नही होती। हाँ फ़सलों के जाने का दुःख सबसे ज़्यादा होता है। अगर बाढ़ से बच गए तो साल भर परिवार का पेट कैसे भरेगा  ये चिंता ज़रूर होती है। हालाँकि गाँव-देहात की यहीं तो ख़ूबसूरती है कि यहाँ भूखे कोई नही मरता.....

बिहार के महामहिम और कुछ मंत्री साहिबान  ने कहा, “ नेचर पर किसी का वश नही और सब “हथिया नक्षत्र”  का दोष है।
माननीय महामहिम, हम जनता भले साल दर साल  हर तरह की त्रासदी से जूझते हैं पर हमारे दिमाग़ में गोबर-कादो नही भरा.....
हम अच्छी तरह जानते है कि इस आपदा में हमारा भी कहीं ना कहीं हाथ है। हम अपने ज़रूरतों के आगे चंपारण के वन को बली देते जा रहें है, नदियों को भरते जा रहें हैं,  तालाब को ढँकते जा रहें हैं पर सब कुछ केवल नक्षत्र पर छोड़ देना ये हमारे संस्कार नही।

हम किसान तो हथिया नक्षत्र को फसल के लिए वरदान मानते है। हमें तो इसके आगमन का इंतज़ार होता हैं। तभी तो कहते है,

“जब ना बरसीहें हस्त (हथिया)  त का करिहें गिरहस्त”

इस बार से तो कुछ सीख ले। अबकि आपका भी घर डुबा है। बेकार का रोना-धोना छोड़ कर कम से कम इस दिशा में कोई कारगर उपाय कीजिए मंत्री महोदय। ख़ाली पर्यावरण विद बनने और ज्ञान देने से कुछ नही होगा।

जाते -जाते आपको बता दूँ कि, आपकी दया रूपी दी हुई बाढ़ पीड़ित राशि से कुछ नही होता। गाँव के लोग उससे मोबाईल फ़ोन और रंगीन टीवी ख़रीद लेते है।
क्यों?
क्योंकि सब को मालूम है, “अगले साल भी तो यहीं होना है”

Friday, 13 September 2019

मिलवाकी आगे की यात्रा !!!

पितरपक्ष शुरू हो इससे पहले मैं अपनी मिल्वॉकी का सफर आपके साथ पूरा कर लूँ। कारण इस ट्रिप पर भी हमने साईकिल की सवारी की और इसे करते समय आचानक मैं गुनगुनाने लगी “ पिया मेंहदी लिया द मोती झील से जाके साईकिल से ना”
पिया मेरे, मुझ नादान पर हँसे की,
 “सुनअ हमरी तपस्या ! रानी हमरी तपस्या, माँग बड़ा बा जी राउर अजीब जी, ई त लेक मिशिगन जी ना “

तो भादो की मेंहदी के साथ आगे बढ़ते हैं। आर्ट म्यूजियम से निकल कर हमलोग डाउनटाउन की तरफ़ चल पड़े। पैदल चल सकतें हों तो, सबकुछ क़दम नापने की दूरी भर था। आर्ट म्यूजियम के ठीक सामने “बरुइंग हाउस” था जो आज बंद था। यहाँ का डाउनटाउन पुराने नए बिल्डिंग और कुछ आर्ट पिसेज से सज़ा था। साथ हीं यहाँ के बैंक की बिल्डिंग बड़ी ख़ूबसूरत-ख़ूबसूरत थी। कई तो महल जैसी।

डाउनटाउन के बाद हमलोग “पब्लिक मार्केट” गए। एक छत के नीचे तमाम खाने-पीने की चीज़ें पर वेज के आइटम काफ़ी कम। यहाँ हमने बहुत कम समय गुजारा। बस एक चक्कर भर मुश्किल से लगा पाए, कारण सत्यार्थ भीड़ और कम जगह की वजह से परेशान कर रहा था। बाहर निकल कर हम डंकीन डोनट पहुँचे। वहाँ फिर से कॉफ़ी और हैस ब्राउन लिया। थोड़ा सिर दुखने लगा था। एक छोटे से कॉफ़ी -पान के ब्रेक के बाद हम आगे की ओर निकल पड़े।
घड़ी पर नज़र गई तो स्मार्ट रानी आज अभी हीं, सोलह हज़ार कुछ क़दम बता चुकी थी। सत्यार्थ भी थक कर सो गया था।

हमलोग  “समरफ़ेस्ट” के लिए रास्ता ले चुके थे। ये एक सालाना होने वाला म्यूजिक फ़ेस्टिवल था। जैसा कि कल मैंने बताया था। यहाँ टिकेट $23 पर पर्सन। बच्चे की इंटरी फ़्री थी पर उनका स्ट्रोलर लेना था अलग से । जिसका रेंट अलग से  $20 लग रहा था।
मैं टिकेट काउंटर से कुछ दूर खड़ी थी। शतेश मुझसे पूछने आए कि क्या करना है स्ट्रोलर का ?  तभी एक पतला -दुबला अफ़्रीकन-अमेरिकन आदमी आया “क्या आपको इंटरी टिकेट चाहिए ? “
इन्होंने पूछा कितने का ?
जबाब मिला बीस डॉलर का। और इस तरह हमने अमेरिका में पहली बार ब्लैक टिकेट ख़रीदा। साथ ही इंटरी गेट पर हमने अपने स्ट्रोलर का साईज छोटा बता कर उसे अंदर ले जाने की अनुमति भी ले ली।

 अंदर लोग हीं लोग। कई जगह स्टेज बने थे। खाने-पीने के स्टोल के साथ बच्चों के कुछ गेम भी थे। सामने लेक में एक बड़ी सी गुलाबी यूनिकॉर्न तैर रही थी। आज शुक्रवार होने की छः बजे तक हीं संगीत का प्रोग्राम था। उसके बाद आप यूँ ही मेला घूमिए। कुछ लोकल आर्टिस्ट को सुनिए। हमने डेढ़-दो घंटा यहाँ बिताया और फिर निकल पड़े गाड़ी पार्किंग की तरफ़।
बाहर निकलने कर पैदल जाते समय एक आदमी इसी मेला का $14 का टिकेट बेच रहा था :)
हम लेक के किनारे बने पवमेंट से गुज़रते हुए यहीं बात करते जा रहें थे की आख़िर इस मेला का सही टिकेट कितने का होगा? इस आदमी ने कितने में लिया होगा ? उसे इस कम क़ीमत पर क्या फ़्यादा होगा वैगरा -वैगरा...
तभी हमारी नज़र इस पवमेंट से गुज़रती कुछ साईकिल पर पड़ी।

अभी अंधेरा नही हुआ था। साथ हीं हमारे पास समय भी था तो सोचा होटेल जाने से अच्छा साईकिल की सवारी कर लिया जाए। हालाँकि जब हम साईकिल रेंट करने पहुँचे तो मालूम हुआ की ये लास्ट ट्रिप है और 45 मिनट के अंदर हमें साईकिल लौटानी होगी। कारण आठ बजे इनका दुकान बंद हो जाता है।
मज़े की बात ये कि ये दुकान सिर्फ़ तीन लड़कियाँ संभाल रही थी। साईकिल निकालना, स्टैंड में लगाना, दुकान में रखना सब यहीं कर रही थी।

वैसे अंतिम यात्री होने की वजह से हमें साईकिल आधे क़ीमत पर रेंट पर मिल गई। पूरे दिन का किराया कुछ $28 था। हमें $14 में मिली गई।
वैसे हर तरह की साईकिल की रेंट अलग थी। इनके पास पाँच लोगों को एक साथ चलाने वाली तक साईकिल थी।

और इस तरह साईकिल से उतर कर हम कार तक पहुँचे। डाउन टाउन से थोड़ी दूर एक हिंदुस्तानी रेस्तराँ में ज़बरदस्त खाना खाया और होटेल पहुँच गए। अब आप भी आराम कीजिए। तस्वीरों के साथ आँखों से सैर कीजिए:) 

Thursday, 12 September 2019

मिल्वॉकी !!!!

 इधर कई महीनों से मैं अकेली हीं घूम रही हूँ आपलोग पीछे छूटते जा रहें है। तो चलिए आज “विस्कॉन्सिन राज्य” के “मिल्वॉकी” शहर की सैर पर चलते है।
लेक मिशिगन के पश्चमी छोर पर बसा ये शहर मुझे बड़ा ख़ूबसूरत लगा। इसकी ख़ूबसूरती मुझे सबसे अलग इस मामले में लगी कि, शहर का एक भाग बहुत पुराना है तो दूसरा चमचमता। मानो दो सदी को आप एक साथ देख रहे हो। सड़के यहाँ की उतनी ठीक नही कारण यहाँ बर्फ़ बहुत पड़ती है। साथ ही कई इमारतों की मरम्मत भी हो रही थी जो कि, ठंड आने के पहले की तैयारी जैसी लग रही थी।

हमलोग यहाँ “जुलाई पाँच” को गए थे। उस वक़्त यहाँ सालाना होने वाला म्यूज़िक फ़ेस्टिवल चल रहा था। जिसने मानो शहर भर में रौनक भर दिया हो। ग्यारह दिन चलने वाला ये फ़ेस्टिवल पूरे दिन चलते रहता है। शाम को छः बजे इसका समापन होता है। तो हमने सोचा पहले बाक़ी की चीज़ें जैसे “आर्ट म्यूजीयम”  “हार्ली  डेविड्सॉन म्यूजीयम ” और “मिल्वॉकी पब्लिक मार्केट” घूम ले फिर आराम से संगीत का आनंद लिया जाए।

शिकागो से हमलोग हार्ली- डेविड्सॉन म्यूज़ीयम का अड्रेस लगाकर निकले। क़रीब डेढ़ घंटा का सफ़र था। शहर में पहुँच कर हमने सबसे पहले एक गुजराती रेस्ट्रोरेंट में पेट पूजा की। पर ना तो इसमें पूजा का कही पता था ना पेट का। खाना बड़ा बेकार । पानी पी -पी कर कुछ कौर अंदर भेजा और निकल पड़े मोटर साईकिल की भीड़ में।

हार्ली- डेविड्सॉन म्यूज़ीयम में तीन तरह की टिकेट मिल रही थी। पहला ऑडीओ गाइड $4 , दूसरा हाइलायट टूर $8 पर पर्सन और तीसरा पूरे म्यूज़ीयम का टूर $22 पर पर्सन।
हमारे पास सिर्फ़ एक दिन था घुमने को तो हमने तीन घंटा यही ना बिताना का सोच कर हाइलायट टूर किया। अंदर कुछ गाड़ी और उसके  अस्थि -पंजर , कुछ तस्वीरें,  कुछ ड्राइवर के कपड़े और कई सारी  पुरानी नई गाड़ी रखी थी। यहाँ कुछ हमने डेढ़ घंटा बिताया और फिर निकल पड़े आर्ट म्यूज़ीयम की तरफ़।

आर्ट म्यूज़ीयम यहाँ से बाई कार कुछ बीस मिनट की दूरी पर है। इसकी पार्किंग आज म्यूज़िक फ़ेस्टिवल को लेकर बड़ी महँगी थी। $35 पूरे दिन की। हमारा तो लगभग आधा दिन कट गया था। आधे के लिए इतना देना मुझे ठीक नही लग रहा था। मैंने शतेश को गाड़ी मुड़ाने को कहा। ये थोड़े झल्लाए कि ये भी पार्किंग चली जाएगी तुम्हारी बचत के फेर में। पर मैंने कहा कोई बात नही थोड़ा आस-पास देख तो ले, नही कहीं पार्किंग मिला तो ठीक है दूर हीं कहीं पार्क करके आयेंगे। और देखिए हमारी ख़ुशक़िस्मती की, ठीक इस म्यूज़ीयम के पीछे $10 की पार्किन मिल गई। थोड़ा पीछे होने से शायद लोगों को इस पार्किंग का मालूम कम था। यहाँ कई जगह भी ख़ाली थी। मेरा तो मन कर रहा था मैं उस पार्किंग के गेट के पास खड़े होकर लोगों को बताऊँ की पीछे चले जाओ। उधर जगह भी है और सस्ता पार्किंग भी।

ख़ैर यहाँ से गाड़ी पार्क कर हमलोग पीछे के रास्ते आर्ट म्यूज़ीयम पहुँचे। चिड़िया के पंख सा बना ये म्यूज़ीयम बड़ा हीं सुंदर था अंदर से। वैसे ऐसी ठीक आकृति न्यू यॉर्क के 9/11 मेमोरीयल की भी बनी है। इसका टिकेट पर पर्सन $19 है। तीन-साढ़े तीन घंटा काफ़ी है इसे देखने के लिए। बाक़ी आप कला प्रेमी है तो पूरा दिन भी गुज़ार सकतें है।
 मुझे यहाँ के “ग्लास वाले आर्ट “ ज़्यादा अच्छे लगे। साथ हीं ऐसा मैंने यहाँ बहुत कम हीं देखा था। बाक़ी सब दूसरे आर्ट म्यूज़ीयम जैसा हीं था। कुछ पेंटिंग, कुछ लोहे के ड्रेस या मुखौटा, कुछ लकड़ी और पत्थर के आर्ट, कुछ रेड अमेरिकन कल्चर की चीज़ें आदि।

इस बिल्डिंग की ख़ास बात ये थी कि, इसके अंदर की दीवारें बिल्कुल सफ़ेद दूधिया सी और इनसे जुड़े शीशे सी ग्रीन से। साथ ही बाहर लेक का नज़ारा एक अद्भुत वातावरण बना रहा था। ऐसा लग रहा था अंदर और बाहर आप समुन्दर के बीच खेल रहे हो।
यहाँ पर खाने-पीने की अच्छी सुविधा थी। बक़ायदा ऊपर नीचे फ़्लोर पर रेस्ट्रोरेंट खुले थे। हमने तो सिर्फ़ कॉफ़ी और ओनियन रिंग ली। आराम से कॉफ़ी को चाय समझ चुस्की लेते रहे और बाहर देखते रहें। सत्यार्थ सामने सोफ़ा पर कूदता रहा, ओनियन रिंग कुतरता रहा......
आज आप लोग भी यहीं आराम करें, कल आगे.....

Wednesday, 11 September 2019

धरणी !!!

बड़ी उमस थी आज। ऐसा लग रहा था कि सब कुछ उतार कर फेंक दिया जाए। ऐसा लग रहा था कि कुछ बारिश की बूँदे  काश पड़ जाती उनके मन पर तो क्या हीं होता ?
बारिश हुई और ख़ूब हुई। दोनो के मन की उमस अब शांत थी। उन्हें मिलना था उसी जगह जहाँ  दो नीले-पीले रट्टामल तोता उनका हमेशा की इंतज़ार कर रहें थे।

वे आए और कुछ इस तरह से बैठे कि तोते से इस बार अपनी पीठ ना सटा सकें। अच्छा हुआ जो तोता से सटे नही... वरना कुछ बूँदे जो उसपर चिपकी थी इनसे चिपक जाती।
यादों की कई बारिश उनको भींगो जाती। फिर वहीं तोते वाली छूत  “रटा-रटाया जीवन”
वे कुछ ऐसे बैठे जैसे आगे ज़मीन की तरफ़ झुके जा रहे हो। कुछ ऐसे बैठे कि दोनों के पैर गुना-भाग मे लगे हुए हो।

कुछ दूर पर एक पेड़ के नीचे एक बूँद। एक पत्ते पर ऐसे पड़ी थी जैसे मानो वो उस पेड़ की वो आख़री बूँद हो। एक पत्ती की नोक के सहारे झूल रही थी कब से। काँप रही थी हल्की हवाओं से। “पर सुई के नोक पर प्रेम कैसे टिकता ?”

बूँद एक हल्के से हवा के झोंके के साथ एक कटे-फटे पत्ते पर आ गिरी। ख़ुद को बिखरने के पहले समेटने लगी। ख़ुद को समेट कर गोल मोती सी बनी सिर उठाया तो देखा, दो आधे-आधे लोग उसमें एक हो रहें है। उनकी परछाईं उसमें पूरी हो रही है।
वो इतराई, मुस्कुराई। उस नुकीली पत्ती की तरफ़ ऊपर देखा तभी सामने उन चार पैरों में से दो उसकी तरफ़ बढ़े। उसे आधा घसीटते हुए आगे बढ़ चले। आधी बची हुई बूँद, दर्द से भरी फिर ख़ुद को समेटने लगी, मोती बनाने की कोशिश करने लगी। तभी बचे हुए दो दूसरे पैर फिर उससे घसीटते आगे बढ़ चुकें हैं। बूँद अब आधी-आधी उन जोड़ा पैरों के नीचे थी...

उन पैरों का रास्ता वहीं था “गुना-भाग” वाला। बूँद दो अलग-अलग क़दमों में पसरी कुछ इस तरह घसीटी जा रही थी मानो, उसे जीवन का रहस्य मिल गया हो। दर्द में भी अब वो मुस्कुरा रही थी। आज उसे अंतत: अपना सच्चा प्रेमी मिल रहा था।
आज उसका “भू” उसके इंतज़ार में बिछा हुआ था।
 आज से वो धरणी हो जाएगी...
धरणी। 

Monday, 9 September 2019

राधे-राधे !!!!

बीते शुक्रवार को राधाष्टमी थी। पर एक भी पोस्ट इस सिलसिले मे सोशल मीडिया पर नही दिखा। ये कुछ नया नही था मेरे लिए।  राधा को लोग कृष्णा अष्टमी के दिन हीं याद कर के कोटा पुरा कर लेते। इसी तरह रामनवमी को राम के साथ सीता का भी खाना पूर्ति कर दिया जाता है। सीता के जन्म पर तो बहुत ही कम लोग उत्सव मनाते है। नेपाल और बिहार के कुछ राज्यों में, अपनी बेटी होने का दवा कर पूजन कर लिया जाता है। उसी तरह मथुरा-वृंदावन- बरसाना के साथ इस्कौन राधा का जन्म मना कर अपना धर्म भर निभा लेता है। तभी तो जहाँ कृष्ण के जन्म पर दिन-रात का जश्न होता है राधा का जन्म को दोपहर तक निपटा लिया जाता।

वहीं कई बार देखती हूँ कि, कृष्ण के जन्म पर छोटी-छोटी  बच्चियों को भी कृष्णा बनाया जाता। इसमें कोई बुराई नही, अच्छा हीं लगता हैं देख कर पर क्या उनके माता-पिता को राधा की याद नही रहती ? या फिर उनको कृष्ण के व्यक्तित्व से ज़्यादा प्यार है। या वे नही चाहते कि उनकी बेटी का जीवन राधा जैसा हो। या फिर उन्हें नटखट कान्हा, जिसका सारा गोकुल दीवाना था, वैसी हीं छवि कहीं ना कहीं अपनी बेटी में पाना चाहते हो।
अगर ऐसा है तो फिर, उसी बेटी के एक -दो दीवाने को भी वे कैसे नही बरदस्त कर पाते। फिर क्यों उस बेटी को राधा  जैसा दंड दे दिया जाता है?

अपने इन अजीब सवालों से अलग मुझे उन मजनुओं के बारे में ख़्याल आ रहा है, जो कृष्ण को सिर्फ़ इसलिए पूजतें हैं कि, वे प्रेम के देवता हुए। पर उन्मे से किसी ने ये नही सोचा कि,  किसी के प्रेमिका को भाव नही दोगे तो वो मित्र होकर भी अपनी प्रेमिका के पीछे हीं भगेगा, तुम्हारा साथ छोड़ देगा। ये तो जग जाहिर है।
चाहें तो वें अपना ख़ुद का उदाहरण ले सकतें है।

ख़ैर, हर साल की तरह मैं त्योहार मानने के बाद पोस्ट लिख रहूँ हूँ। इस बार तो सत्यार्थ मेरा कृष्णा बना हीं नही तो राधा क्या हीं बनता। चलिए इसकी पुरानी तस्वीर हीं लगा देती हूँ। पर याद रखिए राधे के बिना श्याम आधे वाली बात....
राधे-राधे..... राधे-कृष्णा.....

Saturday, 7 September 2019

दोस्तों आज मैं आपको ऐसी जगह ले जाने वाली हूँ जहाँ जा कर आप थोड़ी देर के लिए निराशा से बाहर आ जायेंगे। हालाँकि इस जगह और जिस चीज़ को मैं देखने पहुँची थी इसके बारे में लोगों की अनभिज्ञता जान कर लगा ये सब कुछ पल का शोर-शराबा है। बाद- बाक़ी कुछ हीं लोग इसके बारे में तन्मयता से सोचते है।

ये जगह इंडियापोलिस के स्टेट कैपिटल बिल्डिंग का पार्क है। जहाँ पर आपको ढूँढने पर मिलेगा “मून ट्री”
जी हाँ मून ट्री। इसका क़िस्सा कुछ यूँ है-

जब  “अपोलो 14 मिशन 1971”  में किया जा रहा था तब अंतरिक्ष यात्री “स्टूअर्ट रोज़ा”  अलग -अलग प्रजाति के कुछ 500 पड़ो के बीज लेकर चाँद पर गए थे। वैज्ञानिक दल ये देखना चाह रहें थे कि माइक्रोग्रेविटी का पेड़-पौधों पर क्या प्रभाव पड़ता है। 
चंद्रमा से आने के बाद इन कुछ बचे हुए 100 बीजों का वैज्ञानिको ने अध्यन किया और फिर 1975-1976  के बीच इनको अंकुरुरित किया जाने लगा। फिर बाद में इन पौधों को जाँच परख कर अमेरिका के भिन्न राज्यों में भेजा। अमेरिका के अलावा  दूसरे देशों को भी उपहार के रूप में कुछ पेड़ दिए गए । 

अमेरिका के जिन राज्यों में ये पेड़ पहुँचे  उसमें एक राज्य इंडियापोलिस भी है। हालाँकि दुःख की बात ये है कि, 238,855 miles का सफर कर आए इन पेड़ों को अब कम लोग जानते है। यहाँ तक कि बड़ी मुश्किल से हम इसे ढूँढ पाए। ढूँढने से पहले मैं कुछ 10-11 लोगों से इसका पता पूछ चुकी थी। पर निराशा मिली। ऑनलाइन मैप से उस जगह तो पहुँच गए थे पर सामने खड़े चार पेड़ों ने कन्फ़्यूज़ कर दिया था कि, इनमे से कौन सा मून ट्री है। 

फिर यहाँ भी मैंने आते-जाते कुछ लोगों से पूछा पर किसी ने भी “मून ट्री” जैसा कुछ नही सुना था। एक ग्रूप जो स्टेट बिल्डिंग देखने आया था, मुझे लगा उसके गाइड को तो मालूम हीं होगा। दौड़ कर मैं उसके पास गई पर मालूम हुआ उनका कोई गाइड हीं नही था वे लोग किसी कैम्प के साथी थे और ख़ुद ही घूम रहे थे। उन्मे से एक लड़की ने झट से फोन निकाला और मून ट्री गूगल करने लगी तो मैंने कहा इसके बताए अनुसार मैं यहाँ तक पहुँच चुकी हूँ धन्यवाद आपका। अब लगता है आगे का रास्ता मुझे ख़ुद हीं तय करना होगा। वो मुस्कुरा कर बोली बेस्ट ओफ लक। और हाथ हिलाते हुए विदा के साथ मैं दौड़ कर पति और पुत्र के पास पहुँची। 

तबतक शतेश कुछ वीडीयो देख रहे थे। ये वीडीयो मून ट्री का था। जिसको तीन-चार बार देख कर हमने उन चार पेड़ों में से इस “चिनार” के पेड़ को ढूँढ लिया। और इस तरह हमारा मिशन मून ट्री पूरा हुआ।

कौन जाने “विक्रम” का भी सम्पर्क इसरो से हो जाए। अगर ना भी हो तो हमारे वैज्ञानिकों ने कोशिश तो की।होल-हल्ला से इतर मेरा मन रो पड़ा इसरो के वैज्ञानिको को रोता देख। उनको कैसा लगता होगा उसका अनुमान हम एक पोस्ट या चार बातों से नही लगा सकतें।

तो चलिए इसी के साथ आप कम से कम मून ट्री के दर्शन कर लीजिए। क्या पता कल ये ना रहें और हमें मालूम हीं ना हो की कहीं मून ट्री भी था।