बड़ी उमस थी आज। ऐसा लग रहा था कि सब कुछ उतार कर फेंक दिया जाए। ऐसा लग रहा था कि कुछ बारिश की बूँदे काश पड़ जाती उनके मन पर तो क्या हीं होता ?
बारिश हुई और ख़ूब हुई। दोनो के मन की उमस अब शांत थी। उन्हें मिलना था उसी जगह जहाँ दो नीले-पीले रट्टामल तोता उनका हमेशा की इंतज़ार कर रहें थे।
वे आए और कुछ इस तरह से बैठे कि तोते से इस बार अपनी पीठ ना सटा सकें। अच्छा हुआ जो तोता से सटे नही... वरना कुछ बूँदे जो उसपर चिपकी थी इनसे चिपक जाती।
यादों की कई बारिश उनको भींगो जाती। फिर वहीं तोते वाली छूत “रटा-रटाया जीवन”
वे कुछ ऐसे बैठे जैसे आगे ज़मीन की तरफ़ झुके जा रहे हो। कुछ ऐसे बैठे कि दोनों के पैर गुना-भाग मे लगे हुए हो।
कुछ दूर पर एक पेड़ के नीचे एक बूँद। एक पत्ते पर ऐसे पड़ी थी जैसे मानो वो उस पेड़ की वो आख़री बूँद हो। एक पत्ती की नोक के सहारे झूल रही थी कब से। काँप रही थी हल्की हवाओं से। “पर सुई के नोक पर प्रेम कैसे टिकता ?”
बूँद एक हल्के से हवा के झोंके के साथ एक कटे-फटे पत्ते पर आ गिरी। ख़ुद को बिखरने के पहले समेटने लगी। ख़ुद को समेट कर गोल मोती सी बनी सिर उठाया तो देखा, दो आधे-आधे लोग उसमें एक हो रहें है। उनकी परछाईं उसमें पूरी हो रही है।
वो इतराई, मुस्कुराई। उस नुकीली पत्ती की तरफ़ ऊपर देखा तभी सामने उन चार पैरों में से दो उसकी तरफ़ बढ़े। उसे आधा घसीटते हुए आगे बढ़ चले। आधी बची हुई बूँद, दर्द से भरी फिर ख़ुद को समेटने लगी, मोती बनाने की कोशिश करने लगी। तभी बचे हुए दो दूसरे पैर फिर उससे घसीटते आगे बढ़ चुकें हैं। बूँद अब आधी-आधी उन जोड़ा पैरों के नीचे थी...
उन पैरों का रास्ता वहीं था “गुना-भाग” वाला। बूँद दो अलग-अलग क़दमों में पसरी कुछ इस तरह घसीटी जा रही थी मानो, उसे जीवन का रहस्य मिल गया हो। दर्द में भी अब वो मुस्कुरा रही थी। आज उसे अंतत: अपना सच्चा प्रेमी मिल रहा था।
आज उसका “भू” उसके इंतज़ार में बिछा हुआ था।
आज से वो धरणी हो जाएगी...
धरणी।
बारिश हुई और ख़ूब हुई। दोनो के मन की उमस अब शांत थी। उन्हें मिलना था उसी जगह जहाँ दो नीले-पीले रट्टामल तोता उनका हमेशा की इंतज़ार कर रहें थे।
वे आए और कुछ इस तरह से बैठे कि तोते से इस बार अपनी पीठ ना सटा सकें। अच्छा हुआ जो तोता से सटे नही... वरना कुछ बूँदे जो उसपर चिपकी थी इनसे चिपक जाती।
यादों की कई बारिश उनको भींगो जाती। फिर वहीं तोते वाली छूत “रटा-रटाया जीवन”
वे कुछ ऐसे बैठे जैसे आगे ज़मीन की तरफ़ झुके जा रहे हो। कुछ ऐसे बैठे कि दोनों के पैर गुना-भाग मे लगे हुए हो।
कुछ दूर पर एक पेड़ के नीचे एक बूँद। एक पत्ते पर ऐसे पड़ी थी जैसे मानो वो उस पेड़ की वो आख़री बूँद हो। एक पत्ती की नोक के सहारे झूल रही थी कब से। काँप रही थी हल्की हवाओं से। “पर सुई के नोक पर प्रेम कैसे टिकता ?”
बूँद एक हल्के से हवा के झोंके के साथ एक कटे-फटे पत्ते पर आ गिरी। ख़ुद को बिखरने के पहले समेटने लगी। ख़ुद को समेट कर गोल मोती सी बनी सिर उठाया तो देखा, दो आधे-आधे लोग उसमें एक हो रहें है। उनकी परछाईं उसमें पूरी हो रही है।
वो इतराई, मुस्कुराई। उस नुकीली पत्ती की तरफ़ ऊपर देखा तभी सामने उन चार पैरों में से दो उसकी तरफ़ बढ़े। उसे आधा घसीटते हुए आगे बढ़ चले। आधी बची हुई बूँद, दर्द से भरी फिर ख़ुद को समेटने लगी, मोती बनाने की कोशिश करने लगी। तभी बचे हुए दो दूसरे पैर फिर उससे घसीटते आगे बढ़ चुकें हैं। बूँद अब आधी-आधी उन जोड़ा पैरों के नीचे थी...
उन पैरों का रास्ता वहीं था “गुना-भाग” वाला। बूँद दो अलग-अलग क़दमों में पसरी कुछ इस तरह घसीटी जा रही थी मानो, उसे जीवन का रहस्य मिल गया हो। दर्द में भी अब वो मुस्कुरा रही थी। आज उसे अंतत: अपना सच्चा प्रेमी मिल रहा था।
आज उसका “भू” उसके इंतज़ार में बिछा हुआ था।
आज से वो धरणी हो जाएगी...
धरणी।
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