Thursday, 27 February 2020

ऐसे भी कोई करता है भला!!!

फ़ाइनली आज मेरी दूसरी इ -बूक, “ऐसे भी कोई करता है भला” लाइव हो गई अमेजन पर। 
लाइव-ज़िन्दा...

कहने को वो आज आपलोगों के लिए ज़िन्दा हुई पर मेरे साथ वो बीते कुछ सालों से जी रही है और आगे भी जीती रहेगी।
इस बार कहानी लिखना मेरे लिए ज़्यादा कठिन था  कारण, इसमें कल्पनाएँ कम रही।  कल्पना करके एक इंसान स्वर्ग तक पहुँच सकता है पर जीवन के नर्क को, स्वर्ग लिखना बेहद मुश्किल है....

कई रातें ऐसी हुई की मै ठीक से सो नही पाती। एक डर हमेशा मन मे रहता,  किसी को खोने देने का...बार- बार उठ कर गहरी नींद मे सोए हुए प्रेम को जगाती, “तुम ठीक हो?”
ऐसे मे “मनलहरी की सालगिरह” और फिर से शतेश ने मुझे दूसरी किताब की तरफ धकेला।

साथ ही मुझे याद आई एक मराठी फ़िल्म “फ़ाइअरब्राण्ड “ जिसमें नायिका को अपने डर से जीतने के लिए मनोचिकित्सक कहता है- अपने तकलीफ को रोज लिखो और उसे जोर से पढ़ो। इतनी बार लिखो- इतनी बार पढ़ो की वो बात आम बात लगने लगे तुम्हें। बस मैंने सोचा मै भी इसी बहाने एक किताब लिख डालूँ। कौन जाने प्यार याद रह जाए और बाक़ी सब बस कहने की बातें। 

वैसे तीन सप्ताह से भी कम समय मे किताब पूरी  करना अभी के लिए मुश्किल भरा रहा पर वहीं है, मेरी जिद्द कई बार मुझसे कुछ अच्छा करवा लेती है। 
भाई और शतेश कहते रहे की कोई डेड लाइन थोड़े है आराम से लिख कर पोस्ट करो, पर मुझे था की ये किताब इनके जन्मदिन तक उपलोड हो जानी चाहिए। चाहे मै रात के चार बजे तक क्यों ना जगूँ। कितने आँसू क्यों ना बहाऊँ...

ख़ैर किताब आपके बीच आ गई है। अमेजन से लेकर आप इसे “के डि पी” ऐप पर पढ़ सकते है। हाँ लिंक देने से पहले एक बात उन सभी दोस्तों से कहना चाहूँगी जिन्हें, मेरी यात्रा वृतांत मे आनंद आता रहा और मुझे इसे किताब की शक्ल देने को कहते रहे। तो ये रही प्रेम -दुःख-विश्वाश-ग़ुस्से मे डूबी यात्रा वृतांत....


Thursday, 20 February 2020

महाशिव रात्रि 2020

प्रकृति रंग बदल रही है धीरे -धीरे ...
ये कैसी घड़ी आइ है गौरी, जो मेरा मन व्याकुल हुआ जा रहा है। क्यों ऐसा लग रहा है कि वर्षों की तपस्या तुम्हारी नही मेरी थी, जो अब भी अनवरत चल रही है... तुम्हारी तपस्या तो विवाह तक आ कर पूरी हुई पर मेरे प्रेम की तपस्या तो अब शुरू हुई है।

अनेक देवों-दानवों के बीच मुझे अपने वर के रूप में चुनकर तुमने मेरा स्वभाग्य जगाया है। 

हे प्रिय ! इस घड़ी मेरा मन करता है कि, मैं तुम्हारी वैसी हीं वंदना करूँ जैसे गोपियाँ करतीं हैं कृष्ण को पाने के लिए,  जैसे सीता करतीं है राम को पाने के लिए। और कोमल हृदया तुम उन्हें, मन चाहा वर देती हो। 

हे जगत जननी ! ऐसा देख कर मेरे भी मन में भी इक्षा जागी है ऐसे वर की कि, मेरा प्रेम अद्वित्य हो... 
मै तुम्हारे माथे की सिंदूर से लेकर तुम्हारे चरणों की धूल तक में शामिल रहूँ। हे शैल पुत्री ! मुझे यह वर दो कि तुम्हारा प्रेम मेरे लिए अंतिम सत्य हो। हे शिव प्रिय ! अपने शिव की प्रार्थना स्वीकार करो ; 

हे श्रेष्ठ पर्वतों के राजा हिमाचल की पुत्री पार्वती! आपकी जय हो, हे महादेवजी के मुख रूपी चन्द्रमा की चकोरी! आपकी जय हो। हे जगज्जननी! हे बिजली सी कान्तियुक्त शरीर वाली! आपकी जय हो।

आपका न आदि है, न मध्य है और न अंत है। आपके असीम प्रभाव को वेद भी नहीं जानते। आप संसार को उत्पन्न, पालन और नाश करने वाली हैं। विश्व को मोहित करने वाली और स्वतंत्र रूप से विचरण करने वाली हैं

हे वर देने वाली! हे शिव प्रिय!  आपकी सेवा करने से चारों फल सुलभ हो जाते हैं। हे देवी! आपके चरण कमलों की पूजा करके देवता, मनुष्य और मुनि सभी सुखी हो जाते हैं

मेरे मनोरथ को आप भलीभाँति जानती हैं, क्योंकि आप सदा सबके हृदय रूपी नगरी में निवास करती हैं। 
 हे प्रिय ! इस कारण मैंने उसे पहले प्रकट नहीं किया। ऐसा कहकर शिव अपने माथे का चंद्रमा पार्वती के सिर पर सज़ा देते है, जैसे वो प्रेम का ताज हो। 

कोमल हृदय पार्वती अपने गले का हार शिव के गले में डाल कर मुसकाती है... कहती हैं, आपकी सारी मनोकामना पूरी होगी। 

हे शिव ! मैं आपके प्रेम की जोगन आपको क्या वर दूँ...
फिर भी आपकी स्तुति को स्वीकारना मेरा धर्म है। तो चलिए हमदोनो के इस सम्पूर्ण प्रेम के लिए, कभी अलग ना होने के लिए मैं सकुचाती हुई आपको “अर्धनारेश्वर” होने का वर देती हूँ। 

ऐसा होते ही ब्रह्मांड में प्रेम खिल उठता है। एक दूसरे के पास बैठे शिव पार्वती अपना स्वरूप आदान-प्रदान कर रहें हैं...
एक ओर शिव जहाँ इस पल शक्ती की भक्ति में डूब रहें है वहीं दूसरी ओर शक्ति, शिव होती आनंदित हो रही है। 

Sunday, 9 February 2020

मनलहरी और बुखार !!!

ताप देवी पिछले के पिछले साल भी मुझ पर चढ़ गई थीं। उन्हें मेरे भूरे- पसनैल देह से सच में प्रेम हो गया था।
और मुझे ?
मेरे मन पर इनका प्रेम कैसे चढ़ता जब प्रेम एकतरफ़ा था…..

मुझे इनका आना तनिक अच्छा नही लगता। ये इतनी दबंग प्रेमिका की आते हीं मेरा सब कुछ बंद करा देतीं। स्कूल जाना ,खेल -कूद, खाना -पीना तक बंद हो जाता। अपनी क़ैद मे मुझे रखना इन्हें अच्छा लगता पर मै इनकी क़ैद से तड़प उठता। आज़ाद होने की हर कोशिश करता पर प्रेमिका कैसी जो इतनी जल्दी हार मान लेती ?

रात भर मुझसे प्रेम करने के बाद दिन मे मुझे निढाल छोड़ जाती। दिन भर मै देह दर्द से कराहता रहता। माई कभी काढ़ा तो कभी जड़ी देती। उधर रात की थकान के बाद मुझमे सोई मेरी प्रेमिका मुझसे अपनी सास यानि की मेरी माँ के ज़ुल्मो का बदला अगली शाम मुझसे जोड़ कर लेती। 
दुगनी गति से अपने प्रेम का ताप मुझे देती। मेरे शरीर को ऐंठन देती और मै बेचैन हो उठता। 
लहक कर वो कहकहा लगाती और मेरे आँखो से पानी गिरने लगते.....
ताप देवी दबंग प्रेमिका हुई तो क्या हुआ, कही तो उनके भीतर भी एक नारी है तभी तो मेरे आँसू देख वो पिघल जातीं।

“जाने क्यों पुरुषों को रोते देख ये महिलायें मोम सी बन जातीं है।”

प्रेम से भरी ये मेरे माथे पर छोटे -छोटे गोल पानी की बूँदे बिखेर देतीं। फिर धीरे -धीरे वो बूँदे पसरती हुई मसान सी बन जाती जो कि मेरी पूरे शरीर को भीगो रही होती.....
प्रेम की ऐसी ठंढक पाकर मै पस्त हो जाता। मेरी आँखें बंद हो जाती और मै प्रेम के मसान- सागर में भींगा सा सो जाता। 

ऐसे में मुझे समझ नही आता कि देहिक प्रेम के लिए रात का ही समय क्यों निर्धारित है ?


ख़ैर मुझे प्यार करने बुखार रानी पिछले साल भी आई। इस  साल भी वादे के मुताबिक़ वो हाज़िर थीं। इस साल ताप देवी ज़्यादा ग़ुस्से में थीं। मुझे दर्द देती रही। आँखों मे जलन और आँसू देती रही। देह का ताप बढ़ा कर मानो मुझसे पूछ रहीं थीं कि ,”इतने महीने क्यों नही याद किया मुझे ?”
क्यों नही केला या अमरूद खा कर पानी पिए ? क्यों नही बर्फ खा कर नदी नहाने गये ? क्यों नही बारिश में भींगे ? क्यों नही सुबह की शीत मे बिना चादर के सोए ?

मै बड़बड़ा उठा “क्योंकि मुझे तुमसे प्रेम नही “

ऐसी अपमान भरी बात सुनते ही उसने देह का ताप ऐसा बढ़ाया कि मानो मैं झुलस जाऊँगा। उसके  ताप को सह नही पाउँगा। अंतिम समय को याद कर मैं माई -माई कराह उठा…. 
माई की आँखो में भी नींद कहा थी ? 
एक बार में हीं “माई” सुनकर भाग कर आई मेरे खटिए के पास।
बबुआ ! ये बबुआ ! का हुआ ? सपना रहे हो का ?

मै क्या कहता, मेरी ज़बान तो उसकी ताप बहू ने बंद कर रखी थी। किसी  तरह मैंने उसे ,उसके प्रेम का वास्ता देकर बोलने की अनुमति ली। सूखे  जीभ और दर्द भरे कंठ से मैं इतना ही बोल पाया “पानी”

अगली सुबह मेरी आँख रामनगर के सरकारी अस्पताल में खुली ।आँखो के सामने माई का फुला हुआ सा चेहरा था। लगता है किसी बिरनी ने कई जगह उसे  डंक मार दिया है।
मेरी आँख खुलते ही डंक का दर्द माई की आँखो में उतर गया। “मुझसे लिपट कर फूट -फूट कर रो पड़ी “बबुआ हो बबुआ…..
का हो गायल रहे हो बबुआ….

मैने महसूस किया की माई कि बहू का मिज़ाज अभी ठंडा है।
देह मेरा बर्फ़ जैसा हो रहा है। पसीना निकलने से शरीर से एक अलग ही ख़ुश्बू आ रही है।
ख़ुश्बू ?
हाँ, ख़ुश्बू ।
हमारे लिए तो बदबू जैसी कोई चीज़ ही नही होती और फिर इस ख़ुश्बू की तो अब आदत सी हो गई है।

Friday, 7 February 2020

द लॉब्स्टर !!!!

एक फ़िल्म है “द लॉब्स्टर” बेकार बैकग्राउंड म्यूज़िक के साथ बनी ये फ़िल्म थोड़ी डिप्रेसिंग भी है पर अगर थोड़ा टिक गए तो मज़ा आने लगेगा। अगर ढूँढे तो इसमें आपको ज़बरदस्त ह्यूमर भी मिलेगा। आप इसी सोच के साथ मुस्कुराते हुए आगे बढ़ते है कि, हे महादेव ! अगर इसका मेल नही मिला तो ये तो कुत्ता बन जाएगा।

ख़ैर , आज इस फ़िल्म के याद आने के पीछे का कारण “प्रेम दिवस” का आगमन है। जैसे गुलाब दिन पर गुलाब ना मिलने पर कई मासूम, कोमल हृदय  दुःख रो रहे होंगे, वैसे ही जैसे-जैसे खिलवना दिन, लेमनचूस दिन आएगा लोग की बेचैनी बढ़ती जाएगी। गले मिलन दिवस और प्रेम प्रदर्शन दिवस पर तो ये अपने चरम पर होगी।

क्या चरम पर होगी ?

वहीं दुःख और बेचैनी.....
पर क्यों भला ?

अरे भाई  कुछ तो हमारे ऑक्सीटोसीन हार्मोन का कमाल है आ कुछ सामाजिक प्रतिस्ठा का सवाल। इस में फँसी बेचारी प्रेमी जान....
फ़लाँ को ये मिला- चिलना को वो मिला, साथे-साथे बोयफ्रैंडो मिला गर्लफ़्रेंडो मिली आ एक हम है जो ताकते रह गए इसी दुःख -संताप से इतना ख़ूबसूरत महीना कलपते बीत जाता है। साला ई प्रेम ना हुआ डेड लाइन हो गया।

ठीक इस फ़िल्म की तरह की आपको “45दिन” के अंदर अपने मेल का पार्टनर खोजना है नही तो मामला गड़बड़ा जाएगा। आपको इंसान से जानवर बनना होगा।

वैसे एक तरह से सही ही तो दिखाया गया है इस फ़िल्म में। एक तय समय में अपने जैसा जीवन साथी चाहिए वरना आप समाज में रहने के लायक नही। भले उसमें प्रेम हो ना हो रूप-रंग मिलनी चाहिए, पसंद मिलनी चाहिए। बाक़ी तो मामला वही है “बिना प्रेम के आप दोंनो हीं सूरतों में जानवर बन जाते हो।”


Sunday, 2 February 2020

मनलहरी भाग -२

मुझे ऐसे देखते देख वो बोल पड़ी ,”क्या देख रहे हो ? चलो पैर धो लो ......ऐसे किसी को घूरना अच्छी बात नही ।”

मेरे कान उसकी इस बात से गरम हो गए। आँखें झुक गई। जीभ सूखने को हो आए। मै अनजाने श्राप के डर से भीतर तक काँप गया।
क्या मेरी आँखो पर अब पाबंदी की पट्टी बाँध दी जाएगी ? 
नही -नही…….
एक मेरी आँखें ही तो है जो बोलती है वरना  “हम्म” से ज़्यादा मेरी जीभ जानती भी क्या है ? 
मेरे डर को वो शायद समझ गई। मुझे कोई सज़ा, कोई श्राप ना देते हुए मेरे साथ घाट तक आई। ठीक उसी जगह पर जहाँ कुछ देर पहले जीवन से भरे उसके पैर मसान को सींच रहे थे।

आज कुछ तो था जो आस -पास सब अलग लग रहा था। सब कुछ अलग हो रहा था ये सोचते हुए मैंने अपना पैर पानी में डाला। 
एक चुभन सी हुई......
पर ये चुभन मेरे घाव की नही हो सकती। ये तो मसान के जल को जीवन रहित बनाने की चुभन है या फिर मेरे पनिले लाल ख़ून से मसान को अपवित्र करने की चुभन है।

आह रे मसान ! तु सच में कभी अमृत तो कभी विष पीती है। तुझे जो मिलता है उसे ख़ुद में समेट लेती है फिर मुझे क्यों शिकायत तुमसे ?
मुझसे थोड़ी दूर बैठी वो पूछ रही है; “ख़ून निकलना बंद हुआ ?” 
मै अपने गहरे भूरे पैर को देखता हूँ। सफ़ेद बालू पर जमा वो मसान के भीतर से मोटा लग रहा है। डर से भरा मेरा मन उन्हें हिलाता है ये सोच कर कि, कही मेरा अंगूठा ख़ून की कमी से मर तो नही गया.... 

टेढ़ी-मेढ़ी ऊँगलियाँ कुछ बालू में धंसी तो कुछ बालू पर उतराई। 
आहहऽऽऽ.... जय हो बरहम बाबा, जय हो काली माई मेरा अंगूठा तो बच गया है, कह कर मैं एक गहरी साँस लेता हूँ।

इधर मेरा साँस लेना और उधर उसका जाना अब तय हो चुका था ......

Saturday, 1 February 2020

मनलहरी !!!!

सोचता हूँ शाम की गोधुलि में जब सब कुछ इतना शांत और सुंदर है फिर मैं क्यों बेचैन हूँ ? कही ये मसान का जादू तो नही ?  या उन क़दमों का जादू है जो मसान को शांत किए हुए है। कही शांति और ख़ुशी की जड़ी तो नही उन क़दमों के तले....

मै बेचैन सा मसान की तरफ़ फिर से जाता हूँ। सोचता हूँ जल्दी से एक घूँट जल अपने इस बेचैन शरीर को भी दे दूँ। शायद कोई चमत्कार हो जाए..

मै नदी की तरफ़ भागता हूँ और गिर पड़ता हूँ। मेरे गिरने से धम्मऽऽऽ... की आवाज़ होती है और वो आँखें खोल देती है। झट से अपने पैर नदी से निकाल कर जहाँ मै गिरा हूँ वहाँ तक आती है। पुछने लगती है; लगी तो नही ? 

मै ख़ुद को लगभग उठाते हुए बुदबुदा उठता हूँ, ”आह ! पैर क्यों निकाला “क्या मेरा अमृत आज रह गया ? क्या मैं ऐसे ही बेचैन रहूँगा अब ...

उसने सिर्फ़ मेरी दर्द भरी आह को ओह ! के रूप में सुना। मुझे उठाने मे मदद करते हुए फिर पूछती है - ज़्यादा लगी क्या ? देखूँ तो..
उसे बिना कुछ बोले मै अपना पैर आगे कर देता हूँ। मेरे अँगूठे से ख़ून निकल रहा था। 

दया भरी आवाज़ का एक सोता फूटा  “अरे तुम्हारा तो अँगूठा फूट गया है। इसे जल्दी दबाओ तकी ख़ून बंद हो जाए।
पास पड़े बाँस के मूठ जिससे मुझे चोट लगी थी उसे देख कर कहती है “यहाँ बाँस कौन छोड़ गया ?”

अपने अँगूठे को दबाते हुए मैं इतना हीं बोल पाया “ये मरन का बाँस है”

मरन का ? आश्चर्य से उसने पूछा ....
माथा ऊपर उठा कर मैं उसकी तरफ़ देखता हूँ। उससे ज़्यादा आश्चर्य मेरी आवाज़ में था , “हाँऽऽ मरन का ।”

“मरन नही मालूम क्या आपको ?”

उसने बिना कुछ कहे “हाँ” में सिर हिलाया।

मैं पहली बार उसे इतने क़रीब से देख रहा था। उसे देख कर लगा ,”सच मे इसे मरन के बारे में क्या मालूम होगा।”
जीवन देता ये मुख मरन क्या जानता होगा भला..... इतनी दया की वे क्या ही प्राण जाते देखी होगी ?