सोचता हूँ शाम की गोधुलि में जब सब कुछ इतना शांत और सुंदर है फिर मैं क्यों बेचैन हूँ ? कही ये मसान का जादू तो नही ? या उन क़दमों का जादू है जो मसान को शांत किए हुए है। कही शांति और ख़ुशी की जड़ी तो नही उन क़दमों के तले....
मै बेचैन सा मसान की तरफ़ फिर से जाता हूँ। सोचता हूँ जल्दी से एक घूँट जल अपने इस बेचैन शरीर को भी दे दूँ। शायद कोई चमत्कार हो जाए..
मै नदी की तरफ़ भागता हूँ और गिर पड़ता हूँ। मेरे गिरने से धम्मऽऽऽ... की आवाज़ होती है और वो आँखें खोल देती है। झट से अपने पैर नदी से निकाल कर जहाँ मै गिरा हूँ वहाँ तक आती है। पुछने लगती है; लगी तो नही ?
मै ख़ुद को लगभग उठाते हुए बुदबुदा उठता हूँ, ”आह ! पैर क्यों निकाला “क्या मेरा अमृत आज रह गया ? क्या मैं ऐसे ही बेचैन रहूँगा अब ...
उसने सिर्फ़ मेरी दर्द भरी आह को ओह ! के रूप में सुना। मुझे उठाने मे मदद करते हुए फिर पूछती है - ज़्यादा लगी क्या ? देखूँ तो..
उसे बिना कुछ बोले मै अपना पैर आगे कर देता हूँ। मेरे अँगूठे से ख़ून निकल रहा था।
दया भरी आवाज़ का एक सोता फूटा “अरे तुम्हारा तो अँगूठा फूट गया है। इसे जल्दी दबाओ तकी ख़ून बंद हो जाए।
पास पड़े बाँस के मूठ जिससे मुझे चोट लगी थी उसे देख कर कहती है “यहाँ बाँस कौन छोड़ गया ?”
अपने अँगूठे को दबाते हुए मैं इतना हीं बोल पाया “ये मरन का बाँस है”
मरन का ? आश्चर्य से उसने पूछा ....
माथा ऊपर उठा कर मैं उसकी तरफ़ देखता हूँ। उससे ज़्यादा आश्चर्य मेरी आवाज़ में था , “हाँऽऽ मरन का ।”
“मरन नही मालूम क्या आपको ?”
उसने बिना कुछ कहे “हाँ” में सिर हिलाया।
मैं पहली बार उसे इतने क़रीब से देख रहा था। उसे देख कर लगा ,”सच मे इसे मरन के बारे में क्या मालूम होगा।”
जीवन देता ये मुख मरन क्या जानता होगा भला..... इतनी दया की वे क्या ही प्राण जाते देखी होगी ?
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