प्रकृति रंग बदल रही है धीरे -धीरे ...
ये कैसी घड़ी आइ है गौरी, जो मेरा मन व्याकुल हुआ जा रहा है। क्यों ऐसा लग रहा है कि वर्षों की तपस्या तुम्हारी नही मेरी थी, जो अब भी अनवरत चल रही है... तुम्हारी तपस्या तो विवाह तक आ कर पूरी हुई पर मेरे प्रेम की तपस्या तो अब शुरू हुई है।
अनेक देवों-दानवों के बीच मुझे अपने वर के रूप में चुनकर तुमने मेरा स्वभाग्य जगाया है।
हे प्रिय ! इस घड़ी मेरा मन करता है कि, मैं तुम्हारी वैसी हीं वंदना करूँ जैसे गोपियाँ करतीं हैं कृष्ण को पाने के लिए, जैसे सीता करतीं है राम को पाने के लिए। और कोमल हृदया तुम उन्हें, मन चाहा वर देती हो।
हे जगत जननी ! ऐसा देख कर मेरे भी मन में भी इक्षा जागी है ऐसे वर की कि, मेरा प्रेम अद्वित्य हो...
मै तुम्हारे माथे की सिंदूर से लेकर तुम्हारे चरणों की धूल तक में शामिल रहूँ। हे शैल पुत्री ! मुझे यह वर दो कि तुम्हारा प्रेम मेरे लिए अंतिम सत्य हो। हे शिव प्रिय ! अपने शिव की प्रार्थना स्वीकार करो ;
हे श्रेष्ठ पर्वतों के राजा हिमाचल की पुत्री पार्वती! आपकी जय हो, हे महादेवजी के मुख रूपी चन्द्रमा की चकोरी! आपकी जय हो। हे जगज्जननी! हे बिजली सी कान्तियुक्त शरीर वाली! आपकी जय हो।
आपका न आदि है, न मध्य है और न अंत है। आपके असीम प्रभाव को वेद भी नहीं जानते। आप संसार को उत्पन्न, पालन और नाश करने वाली हैं। विश्व को मोहित करने वाली और स्वतंत्र रूप से विचरण करने वाली हैं
हे वर देने वाली! हे शिव प्रिय! आपकी सेवा करने से चारों फल सुलभ हो जाते हैं। हे देवी! आपके चरण कमलों की पूजा करके देवता, मनुष्य और मुनि सभी सुखी हो जाते हैं
मेरे मनोरथ को आप भलीभाँति जानती हैं, क्योंकि आप सदा सबके हृदय रूपी नगरी में निवास करती हैं।
हे प्रिय ! इस कारण मैंने उसे पहले प्रकट नहीं किया। ऐसा कहकर शिव अपने माथे का चंद्रमा पार्वती के सिर पर सज़ा देते है, जैसे वो प्रेम का ताज हो।
कोमल हृदय पार्वती अपने गले का हार शिव के गले में डाल कर मुसकाती है... कहती हैं, आपकी सारी मनोकामना पूरी होगी।
हे शिव ! मैं आपके प्रेम की जोगन आपको क्या वर दूँ...
फिर भी आपकी स्तुति को स्वीकारना मेरा धर्म है। तो चलिए हमदोनो के इस सम्पूर्ण प्रेम के लिए, कभी अलग ना होने के लिए मैं सकुचाती हुई आपको “अर्धनारेश्वर” होने का वर देती हूँ।
ऐसा होते ही ब्रह्मांड में प्रेम खिल उठता है। एक दूसरे के पास बैठे शिव पार्वती अपना स्वरूप आदान-प्रदान कर रहें हैं...
एक ओर शिव जहाँ इस पल शक्ती की भक्ति में डूब रहें है वहीं दूसरी ओर शक्ति, शिव होती आनंदित हो रही है।
आपका न आदि है, न मध्य है और न अंत है। आपके असीम प्रभाव को वेद भी नहीं जानते। आप संसार को उत्पन्न, पालन और नाश करने वाली हैं। विश्व को मोहित करने वाली और स्वतंत्र रूप से विचरण करने वाली हैं
हे वर देने वाली! हे शिव प्रिय! आपकी सेवा करने से चारों फल सुलभ हो जाते हैं। हे देवी! आपके चरण कमलों की पूजा करके देवता, मनुष्य और मुनि सभी सुखी हो जाते हैं
मेरे मनोरथ को आप भलीभाँति जानती हैं, क्योंकि आप सदा सबके हृदय रूपी नगरी में निवास करती हैं।
हे प्रिय ! इस कारण मैंने उसे पहले प्रकट नहीं किया। ऐसा कहकर शिव अपने माथे का चंद्रमा पार्वती के सिर पर सज़ा देते है, जैसे वो प्रेम का ताज हो।
कोमल हृदय पार्वती अपने गले का हार शिव के गले में डाल कर मुसकाती है... कहती हैं, आपकी सारी मनोकामना पूरी होगी।
हे शिव ! मैं आपके प्रेम की जोगन आपको क्या वर दूँ...
फिर भी आपकी स्तुति को स्वीकारना मेरा धर्म है। तो चलिए हमदोनो के इस सम्पूर्ण प्रेम के लिए, कभी अलग ना होने के लिए मैं सकुचाती हुई आपको “अर्धनारेश्वर” होने का वर देती हूँ।
ऐसा होते ही ब्रह्मांड में प्रेम खिल उठता है। एक दूसरे के पास बैठे शिव पार्वती अपना स्वरूप आदान-प्रदान कर रहें हैं...
एक ओर शिव जहाँ इस पल शक्ती की भक्ति में डूब रहें है वहीं दूसरी ओर शक्ति, शिव होती आनंदित हो रही है।
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