ताप देवी पिछले के पिछले साल भी मुझ पर चढ़ गई थीं। उन्हें मेरे भूरे- पसनैल देह से सच में प्रेम हो गया था।
और मुझे ?
मेरे मन पर इनका प्रेम कैसे चढ़ता जब प्रेम एकतरफ़ा था…..
मुझे इनका आना तनिक अच्छा नही लगता। ये इतनी दबंग प्रेमिका की आते हीं मेरा सब कुछ बंद करा देतीं। स्कूल जाना ,खेल -कूद, खाना -पीना तक बंद हो जाता। अपनी क़ैद मे मुझे रखना इन्हें अच्छा लगता पर मै इनकी क़ैद से तड़प उठता। आज़ाद होने की हर कोशिश करता पर प्रेमिका कैसी जो इतनी जल्दी हार मान लेती ?
रात भर मुझसे प्रेम करने के बाद दिन मे मुझे निढाल छोड़ जाती। दिन भर मै देह दर्द से कराहता रहता। माई कभी काढ़ा तो कभी जड़ी देती। उधर रात की थकान के बाद मुझमे सोई मेरी प्रेमिका मुझसे अपनी सास यानि की मेरी माँ के ज़ुल्मो का बदला अगली शाम मुझसे जोड़ कर लेती।
दुगनी गति से अपने प्रेम का ताप मुझे देती। मेरे शरीर को ऐंठन देती और मै बेचैन हो उठता।
लहक कर वो कहकहा लगाती और मेरे आँखो से पानी गिरने लगते.....
लहक कर वो कहकहा लगाती और मेरे आँखो से पानी गिरने लगते.....
ताप देवी दबंग प्रेमिका हुई तो क्या हुआ, कही तो उनके भीतर भी एक नारी है तभी तो मेरे आँसू देख वो पिघल जातीं।
“जाने क्यों पुरुषों को रोते देख ये महिलायें मोम सी बन जातीं है।”
प्रेम से भरी ये मेरे माथे पर छोटे -छोटे गोल पानी की बूँदे बिखेर देतीं। फिर धीरे -धीरे वो बूँदे पसरती हुई मसान सी बन जाती जो कि मेरी पूरे शरीर को भीगो रही होती.....
प्रेम की ऐसी ठंढक पाकर मै पस्त हो जाता। मेरी आँखें बंद हो जाती और मै प्रेम के मसान- सागर में भींगा सा सो जाता।
ऐसे में मुझे समझ नही आता कि देहिक प्रेम के लिए रात का ही समय क्यों निर्धारित है ?
ख़ैर मुझे प्यार करने बुखार रानी पिछले साल भी आई। इस साल भी वादे के मुताबिक़ वो हाज़िर थीं। इस साल ताप देवी ज़्यादा ग़ुस्से में थीं। मुझे दर्द देती रही। आँखों मे जलन और आँसू देती रही। देह का ताप बढ़ा कर मानो मुझसे पूछ रहीं थीं कि ,”इतने महीने क्यों नही याद किया मुझे ?”
क्यों नही केला या अमरूद खा कर पानी पिए ? क्यों नही बर्फ खा कर नदी नहाने गये ? क्यों नही बारिश में भींगे ? क्यों नही सुबह की शीत मे बिना चादर के सोए ?
मै बड़बड़ा उठा “क्योंकि मुझे तुमसे प्रेम नही “
ऐसी अपमान भरी बात सुनते ही उसने देह का ताप ऐसा बढ़ाया कि मानो मैं झुलस जाऊँगा। उसके ताप को सह नही पाउँगा। अंतिम समय को याद कर मैं माई -माई कराह उठा….
माई की आँखो में भी नींद कहा थी ?
एक बार में हीं “माई” सुनकर भाग कर आई मेरे खटिए के पास।
बबुआ ! ये बबुआ ! का हुआ ? सपना रहे हो का ?
मै क्या कहता, मेरी ज़बान तो उसकी ताप बहू ने बंद कर रखी थी। किसी तरह मैंने उसे ,उसके प्रेम का वास्ता देकर बोलने की अनुमति ली। सूखे जीभ और दर्द भरे कंठ से मैं इतना ही बोल पाया “पानी”
अगली सुबह मेरी आँख रामनगर के सरकारी अस्पताल में खुली ।आँखो के सामने माई का फुला हुआ सा चेहरा था। लगता है किसी बिरनी ने कई जगह उसे डंक मार दिया है।
मेरी आँख खुलते ही डंक का दर्द माई की आँखो में उतर गया। “मुझसे लिपट कर फूट -फूट कर रो पड़ी “बबुआ हो बबुआ…..
का हो गायल रहे हो बबुआ….
मैने महसूस किया की माई कि बहू का मिज़ाज अभी ठंडा है।
देह मेरा बर्फ़ जैसा हो रहा है। पसीना निकलने से शरीर से एक अलग ही ख़ुश्बू आ रही है।
ख़ुश्बू ?
हाँ, ख़ुश्बू ।
हमारे लिए तो बदबू जैसी कोई चीज़ ही नही होती और फिर इस ख़ुश्बू की तो अब आदत सी हो गई है।
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