Tuesday 27 June 2017

इंद्रधनुष !!!

झमाझम बारिश। थोड़ी धुप थोड़ी छाँव। ऐसे में इंद्रधनुष का उगना ,मानों मन का सात रंगों में रँग जाना। फिर से मैं बसंतपुर पहुँच  गई। वैसे तो कॉलोनी के बच्चे हर छोटी -छोटी बातों पर शोर मचाते। पर तीन चीजें ज्यादा कौतुहल और शोर का कारण बनती। पहला -बन्दर का आना। दूसरा -हेलीकॉप्टर का दिख जाना ,और तीसरा -इंद्रधनुष का उगना। बन्दर के आते ही सब उलहे हू -उलहे कहते उसके पीछे भागते। माँ कहती की आज तुमलोग को बन्दर जरूर काट लेगा। मैं तो डरपोक नंबर वन। भाग कर घर में चली जाती। भाई और बच्चों के साथ लगा रहता। वहीं जब हेलीकॉप्टर दिखता तो सब चिल्लाने लगते ,जहाज -जहाज। सब आसमान की तरफ देखने लगते। कोई थोड़ी देर से बाहर निकलता तो पूछता किधर ? दिख नहीं रहा है ? तो सब मिलकर जिधर हेलीकॉप्टर जा रहा होता दिखाते। हेने बा -हेने बा। कई बार तो दिखाने वाला /वाली अपने सिर से पूछने वाला का सिर सटा कर आसमान की ओर ऊँगली दिखा कर कहता ,वो रहा। अब दिखा ? पूछने वाले /वाली को फाइनली जहाज दिख जाता। दोनों खुश हो जाते। ठीक ऐसा ही इंद्रधनुष के साथ होता। सब भाग कर बाहर निकलते। बारिश की वजह से जो कैद मिली होती ,उससे मुक्ति मिल जाती।

इंद्रधनुष अमूमन जब थोड़ी धुप में बारिश हो तभी दिखता है। अमीन चाचा ने बताया था ,ऐसी बारिश में शेर -शेरनी की शादी होती रहती है। हमलोग चिल्लाते -शेर -शेरनी का बियाह हो रहा है ,शेर शेरनी का बियाह हो रहा है। नंदन -चंपक का इतना प्रभाव था कि ,सोचने लगती। कैसे हो रही होगी शादी ? कहाँ हो रही होगी ?जंगल तो यहाँ  पास नहीं ? आज के बच्चों जैसे हम क्यूट कहाँ ,जो सवाल पूछ -पूछ कर बड़े लोगों का दिमाग चाटते। फिर भी वो कहते हाउ क्यूट एंड स्मार्ट। हम तो खुद में सवाल ,खुद से जबाब। वैसे कभी -कभार पूछ भी लिया करते। तब भी स्मार्ट नहीं बड़ा तेज सुनकर संतोष कर लेते। पर ऐसा बहुत कम होता।

कॉलोनी के अमीन चाचा ,मुझे बहुत प्रेम करते। वहीं कई तरह की कहानियाँ शाम को सुना दिया करते। एक बार इंद्रधनुष के  बारे में बताया -प्रियंका जानती हो ,इंद्रधनुष इंद्र का धनुष है। इसलिए इसका नाम इंद्रधनुष है। वे असुर को इसी धनुष से मारते हैं। मैंने पूछा -चाचा अभी भी असुर हैं क्या ? वो हँसते हुए बोले -असुर तो हर जन्म में होते है। फिर कुछ सालों बाद -प्रभात सर ने इसके पीछे का विज्ञान बताया तो ,खुद पर हँसी आ गई। खैर आप यहाँ के इंद्रधनुष को देखें। इंद्रधनुष के ठीक बाद जलते हुए आसमान को देखे। लगता है ,इंद्र असुरों को जला कर चलें गए।


Tuesday 20 June 2017

सुख की ,मोक्ष की तलाश !!!

ऐसी क्या मनोदशा हो सकती है कि ,कोई सब कुछ छोड़ दे। सबकुछ छोड़ने से मेरा मतलब भौतिक सुख से है। कौन सी घुट्टी ये धार्मिक गुरु पिलाते हैं ? क्या होता है इन ऑर्गनाइज़ेशन का मोटो ? क्या ये लोग सच में खुश रहते हैं ? क्या सच में मोक्ष मिल जाती है ? मोक्ष क्या है ?

ऐसे बहुत से सवाल कई बार मन को अशांत कर देते है। पीछे कुछ महीनों में ,कबीर ,बुद्ध और कृष्ण के बारे में जितना हो पाया ढूंढा ,पढ़ा। अभी भी खोज जारी ही है। पर संतुष्टि वाला उत्तर नहीं मिला। कुछ गुणी जनों से भी इसके बारे में जानने की कोशिश की।कुछ जान पाई कुछ रह गया।

मेरा एक प्रिय दोस्त करीब सात -आठ साल पहले इस्कॉन से जुड़ गया। भाई ने इसके बारे में बताया था। सुनकर दुःख तो हुआ था। पर उस वक़्त मैं और भी बेपरवाह थी। खुद से फ़ुरसत कहाँ थी ,जो ऐसी बातें सोचती या जानने की ईक्षा रखती। उम्र भी तो ऐसी ही थी।
फिर मुझमे और मेरे दोस्त में क्या अंतर था। उसे बीस -बाईस साल में ईतना ज्ञान कैसे मिल गया ? माना वो पढ़ने में इंटेलिजेंट था ,पर मैं भी तो थी। जहाँ तक मुझे लगता है ,उसके घर से ज्यादा तो मेरे घर में धार्मिक माहौल था और है। ऐसा भी नहीं था कि ,गरीबी और दुःख में उसका जीवन बिता हो। एक बहुत ही संपन्न परिवार से ताल्लुक है उसका। ख़ैर मैं उसे लगभग भूल चुकी थी ,कि कुछ महीनों पहले वो मुझे फिर से मिल गया। उससे जितनी बातें हुई। जितने सवाल -जबाब हुए।  हर बात का एक ही जबाब ,सांसारिक वास्तु से सुख नहीं मिल सकता तपस्या। मोक्ष चाहिए। नहीं तो फिर से जीवन चक्र में फँस जायेंगे। तपस्या तुम भी महामंत्र जपा करो।

महामंत्र -हरे राम -हरे राम ,राम -राम हरे हरे ,
हरे कृष्ण -हरे कृष्ण ,कृष्ण -कृष्ण हरे हरे !

इस्कॉन वाले इसे महामंत्र कहते है। मुझे अब तक नहीं मालूम था कि ,ये महामंत्र है।
उससे बहुत सी बातें हुई। कुछ तस्वीरें भी भेजी उसने। देखा तो सारी मण्डली युवाओं की। मन बेचैन हो गया।
आह ! इनके माता ,पिता ,भाई -बहन पर क्या बीतती होगी ? ऐसे कौन सी सुख की ,मोक्ष की तलाश है इनकों ,जो प्रियजनों का दिल दुखा के मिलने वाला माँ कहती है -किसी के आत्मा को रुला के आप चैन से नहीं रह सकते। फिर इन्हें चैन कैसे मिल जाता है ? क्या इनके परिजन सच में खुश होते होंगें ,इनके इस निर्णय से ?

मेरे दोस्त ने मुझे कुछ -कुछ पढ़ने के लिए भी भेजा। मैंने पढ़ा भी। पर  विद्या कसम जो भी पढ़ने को उसने भेजा था। वो तो मैं पहले से ही लगभग जानती थी। कभी माँ से सुना तो कभी कहीं पढ़ा था। मैंने उससे कहा भी कि ,इसमें बहुत कुछ नया नहीं है। मुझे मालूम है ये सब। मेरे घर में धर्म -कर्म ,पूजा -पढ़ का  माहौल शुरू से रहा है। मेरे दोस्त को ये बात शायद बुरी लगी।(वैसे इनलोगों को गुस्सा नहीं आता ) मुझसे कहता है -ब्राह्मण होने का ईतना गर्व। मैंने उसे अपनी बात समझया की ऐसा नहीं है।

वहीं ,अभी कुछ दिनों पहले ही ,गुजरात के वर्षिल शाह जो मात्र सत्रह साल के हैं। जैन मुनि बन गए। वो भी बारहवीं के टॉपर हैं  । कहीं मन्नत तो नहीं थी। टॉप करने पर साधु बन जाऊँगा। खैर ,
-मुझे ये नहीं समझ आ रहा है की ,क्या इस उम्र में मनुष्य की चेतना इतनी प्रबल होती है कि ,अध्यात्म को समझ सके। --क्या इनके अंदर शंकराचार्य ,बुद्ध ,महावीर,विवेकानंद जी जैसा बोध ज्ञान ऊपज चूका होता है।
-क्या पूजा -पाठ ,धर्म प्रचार को कर्म कहा जा सकता है ? अगर हाँ तो  इसका फल क्या है ?
-कर्म के बिना फल कैसा ?
-फल की चिंता नहीं तो मोक्ष का लालच क्यों ?
-मोक्ष क्या है ? जब आत्मा अमर है।
-जब आत्मा शरीर बदलती रहती है तो ,जीवन चक्र से मुक्ति कैसे ?
-कृष्ण और राधा का प्रेम ही सर्वपरी है तो ,शिव अर्धनारीश्वर कैसे ?
-मन के दरवाजे खुली रखो ,तो कुछ चीज़ें करने पर पाबंदी क्यों ?
बहुत से सवाल है मेरे ,ढूंढ रही हूँ। देखे कब संतुस्ट हो पाती हूँ।
फिलहाल तो वर्षिल शाह के माता -पिता के मजबूत ह्रदय की तारीफ करनी होगी। उन्हें ख़ुशी है कि ,सी ए बनने वाला उनका बेटा संत बन गया। वो तो इतने खुश हैं कि ,अपनी बेटी को भी इस रास्ते पर भेजना चाह रहे है।

Monday 19 June 2017

मौसम और यादें !!!

चर्च का घंटा बज रहा है। घड़ी देखा तो पाँच चुकें है। घर के सामने जो चर्च है ,उसमे एक टावर है। जो हर घंटे बजता है। इसकी घंटियाँ बहुत सूदिंग आवाज़ करती है। इंट्रेस्टिंग ये है इसमें 56 घंटियाँ लगी है। इसमें लगी 36 घंटियां दूसरे विश्व युद्ध के समय, स्विट्ज़रलैंड की नेस्ले कम्पनी ने लगाने के लिए दी थी। खैर ,ईधर मेरा सत्यार्थ भी बज रहा है। मौसम का भी मिज़ाज भी गड़बड़ा गया है। मेरे दिमाग भी ऐसी में बैठे -बैठे ,यैसे -तैसे हो रहा है। सत्यार्थ को चुप करा रहीं हूँ। फिर सोचा बालकनी में थोड़ी देर खड़ी होती हूँ ,शायद चुप हो जाय। यहाँ  बालकनी का मतलब एक टेबल चार चेयर। कुछ फूल -पत्तियां या ज्यादा से ज्यादा थोड़े लाइट -बिजली वाले झाड़ -फेनुस। लोग अमूमन बालकनी में या तो सिगरेट पीने  के लिए निकलते है ,या कभी -कभार साफ़ -सफाई के लिए। सत्यार्थ बाहर आकर चुप हो गया। सामने पड़े चेयर पर मैं भी विराजमान हो गई। थोड़े देर सत्यार्थ को लेकर बैठी रही। वो भी नेचुरल हवा पी कर सो गया। अभी  हवा तेज हो गई है। मैं उसे घर में सुला आती हूँ। पर मेरा मन तो बालकनी में ही अटका हुआ है। उसे सुला कर , फ़ोन लेकर फिर से बालकनी में आ जाती हूँ। बाहर के मौसम को देख घर की बहुत याद आ रही है। घर यानी मेरे बसंतपुर की।

थोड़ा आँधी सा उठा और मेरा मन आँधी की तरह कॉलोनी में पहुँच गया। काश ,कोई आम का पेड़ उग आता यहाँ। दौड़ कर टिकोड़ा चुनने भाग जाती। अब तो आम भी पक गए होंगे। माँ पीछे से आवाज़ लगाती -आ जाओ तुमलोग ,मेघ -बुनी में बंदइया बने फिरते हो। खैर नहीं है तुमलोग का आज। पर हम तो हम। भागते हुए -कहते माँ न ,जल्दी आ जायेंगे। मत गुस्साओ। हवा की तरह भागते। ठेस लगने पर  बुनि की तरह गिरते। फिर टिकोड़ा लाकर खाना पकाने वाली दीदी को देते। कहते मेरे आम का चटनी मत पीसना ,इसका खटमिट्ठी बनाना।  अरे -अरे बिजली चमकी भागो अंदर । यादों से भागते हुए मैं अंदर आ गई।

पर मन का क्या करे ? मन फिर से बालकनी की शीशे की दिवार से चिपक गया। फिर से बाहर निकल आई। सोचा एक विडिओ बना लेती हूँ। जब अपनी भावनायें आप तक पहुँचाऊँ तो ,आप भी यहाँ के मौसम का आनंद ले सके। और देखिये तो सही ,इंद्र देव भी प्रसन्न होकर प्रेम बरसाने लगे। आप भी देखिये बिना आम के ,बिना कागज के नाव के ,बिना बच्चों के बारिश कैसी दिखती है।


 खैर फ़ोन को आराम देकर ,टीवी की नाक में ऊँगली की। अपनी फेवरेट प्लेलिस्ट में कुछ ढूंढने लगी। फिर मुझे "-सावन के दिन आये ,सजनवा आन मिलो (भूमिका ) "सॉन्ग दिखा। मौसम को देखते हुए इसे बजा डाला।
फिर एक याद गुदगुदा गई। जब पहली बार ये गीत भाई ने सुनाया था। वीडियो देख कर खूब हँसी थी। उसको मारते हुए कहा -पागल ,क्या -क्या सुनते हो तुम भी। वो भी कहाँ कम। जबरदस्ती मुझे पकड़ कर ये गाना सुनाया। मैं कहे जा रही थी ,माफ़ कर दे भाई। मार हो जाई अब। वो बोला -होई त होई। मुझे पकड़े रहा। आख़िर मुझे सुनना पड़ा। अच्छा लगा तो फिर से बजवाया। गाना अधूरा है ,तो बार -बार भाई से पूछती ,भाई रे ऐसा क्यों ? उसपर हीरो बगीचे में होते हुए भी ,प्लास्टिक का गुलाब लिए घूम रहा है।
उफ्फ्फ !अभी भी सोच के हँसी आ रही है। ये लीजिये फिर से घंटा बज उठा।एक ,दो ,तीन ,चार ,पाँच ,छह।


Tuesday 6 June 2017

बसंतपुर मेरा मालगुडी !!!

बसंतपुर मेरा मालगुडी से कम नहीं। चुलबुल -लवली की कहानियाँ तो इसके बिना अधूरी ही है। आज की कहानी कुछ इस तरह है।
चुलबुल तो छोटा था ,साथ ही नटखट भी। इस वजह से लवली को ही बाहर के काम करने पड़ते थे। मसलन राशन ,सब्जी ,किरोसिन तेल ,दवा -दारू सब लाना। इनकी माँ बाज़ार कम ही जाती । कई बार लवली अपनी माँ से कहती -माँ तुम जाओ ना बाजार। मुझे खेलने जाना है। माँ प्यार से समझती ,बेटा बड़े घर की महिलायें रोज बाज़ार नहीं जाती। तुम तो बड़ी समझदार हो ,फटाफट सबकुछ लेकर आ जाओगी। इस तरह लवली का बसंतपुर बाजार से परिचय हुआ। किसी दिन सब्जी लाना ,तो किसी दिन साबुन -तेल ,कभी मिठाई तो कभी दवाई। सब्जी छोड़ कर ,सबकुछ लगभग एक ही जगह मिल जाती। वो जगह थी "भारत मार्किट"

बसंतपुर में मार्किट जैसा शब्द पहली बार भरत मार्किट के लिए ही सुना। ऐसे तो सब्ज़ी मंडी ,भीतरी बाज़ार, हाई स्कूल रोड में दुकान हुआ करती थी। पर मार्केट नाम से एक ही था ,भरत मार्केट ।
भरत मार्केट में कुछ लाइन से आठ -दस छतदार दुकानें थी । एक -दो झोपड़ी वाली दूकान भी थी। झोपड़ी वाली दुकान लवली को ज्यादा पसंद थी। हो भी क्यों ना ? उसमे मिठाइयाँ जो बिकती थी।रघुनाथ की मिठाई की दुकान। भरत मार्किट सड़क से सटा हुआ था। लाइन से जो दुकानें थी -उसमे कोने पर एक पंक्चर बनाने वाले की दूकान थी। उसके बाद एक किराना स्टोर था। फिर बसंत जी की दवा की दुकान। इसके बाद न्यू गोल्डन जेनरल स्टोर। न्यू गोल्डन परचून की दूकान थी। साबुन -तेल ,एसनो -पाउडर से लेकर चॉकलेट -बिस्कुट ,कॉपी -किताब सब कुछ मिल जाता था इसमें। इससे लगे ही नेहलिया जेनरल स्टोर भी था । इसके बाद चंदन मेडिकल शॉप। इस मेडिकल शॉप के बाहर बेंच लगी हुई होती। लोग बैठ कर अखबार पढ़ते। बात -चीत करते। लवली -चुलबुल के गांव से जब भी बाबा जी ,चाचा जी आते। उनका पहला अड्डा चन्दन मेडिकल दूसरा शर्मा जी पेपर वाले की दूकान। सबसे अंत में फिर  से एक किराना की दुकान ।इन दुकानों के पीछे भी कुछ दुकानें थी । जिसमें लवली का जाना कम ही होता। दूकान थी ,गीता प्रेस। लवली सिर्फ एक बार अपनी माँ के साथ रामायण लेने गई थी।
 इस मार्किट की खास बात लवली को ये लगती की ,एक तो जो छतदार दूकान थे। उसमे दोनों तरफ से सीढ़ी बने हुए थे। ऊपर की तरफ़ कुछ तीन दुकान थी ।तीनों ही सिलाई की दुकान ।मोती टेलर ,चाँद टेलर ।तीसरे दूकान का नाम बदलता रहता। लवली कभी -कभी एक तरफ से सीढ़ियों से चढ़ कर जब सारे दूकान के ऊपर से गुजरती ,खूब खुश हो जाती। दूसरी तरफ से निचे उतरती। फिर चढ़ती ,फिर उतरती। कभी नीचे जाते लोगों को देखती तो उसे और मजा आता। आहा मैं इन सबसे ऊपर हूँ। कभी -कभी छत की मुँडेर से नीचे झाँकती तो ,डरती हुई भागती। दिल उसका जोर -जोर से धड़कता। गिर गई होती तो ? सुई लगती क्या ?
भरत मार्किट के मालिक की भी दो दुकान थी। एक बलराम जी की रस्सी ,झाड़ू , चूहेदानी ,चुना आदि की दूकान। दूसरी कपड़ा की दूकान। लवली को बलराम जी की दूकान भी खूब पसंद थी। दुकान की एक ख़ास बात ये थी ,यहाँ बहुत सारे कबूतर होते ।कुछ छोटे -छोटे जानवर जैसे ,ख़रगोश ,बत्तक, तोता ,सफ़ेद चूहा आदि भी बिकते। कई बार सब्ज़ी ख़रीद कर जब लवली लौटती तो ,ख़रगोश के पिंजड़े के पास खड़ी हो जाती । बलराम चाचा कभी तो उन जानवरों से खेलने देते ,कभी उनकों निकाल कर कटवाने की बात से डरा देते  । लवली झोला उठा कर भाग पड़ती। वो हँसने लगते । कहते आओ -आओ नही कटवाएँगे ,पर लवली कहाँ रूकती ।
इसी के साथ ही जो कपड़े की दुकान थी । ज़्यादातर कॉलेनी वाले यहीं से कपड़े खरीदते। कपडे की दूकान के पास ही एक खैनी बेचने वाला बैठता। छोटा सा चौकी टाइप उसका दुकान होता। कई बार जब माँ के साथ लवली कपड़ें  लेने जाती तो उसकी नजर खैनी की दूकान पर ही होती। दूकान वाला खैनी काटने को एक छोटा सा पहसुल जैसा कुछ रखता। उसको दिखा कर मुस्कुरा  कर कहता, आओ बबुनी कान काट दी। लवली डर जाती। पर माँ जो साथ होती तो भागती नहीं। खैनी वाले के दूकान से थोड़ी दूर पर ही एक पकड़ी का पेड़ था। जिसके नीचे एक मोची बैठा करता। बगल में भुजा का ठेला भी लगता था। लवली -चुलबुल के  हवाई चप्पल की मरमत वही होती। कई बार तो मोची एक दो कील मार देता और पैसा भी नहीं लेता। हँसते हुए कहता -बबुनी एतना चप्पल टूटेला ? ठीक से चलल कराअ।
इस मार्किट की एक और खास बात थी। यहाँ एक कुँआ भी था। लवली की माँ लवली को समझा कर भेजती कुँआ की तरफ से मत जाना। कई बार लवली उधर से नहीं जाती पर कई बार उत्सुकता वस चली जाती की देखे क्या होता है। भरत मार्किट के हाते में एक चापाकल भी था। चापाकल के बगल में एक तूत का पेड़ था। लवली कभी -कभी खरीदारी से लौटते समय, तूत बीन कर खाने लगती। लवली के पास एक पीले रंग का पॉकेट वाला फ्रॉक था। उसे वो फ्रॉक बहुत पसंद था। आज बाजार वो वही पहन कर गई थी। लौटते समय तूत के पेड़ ने अपनी तरफ खींच लिया। खूब सारे तूत जमीन पर गिरे थे। उसने ने कुछ खाया और कुछ चुन कर फ्रॉक की पॉकेट में रख लिया। घर पहुँचते -पहुँचते फ्रॉक में कई जगह दाग लग गए थे। लवली खूब रोई। माँ समझती रही ,पर अगली बार से वो फिर कभी तूत के पेड़ की तरफ नहीं गई।
फोटो क्रेडिट -वरुण कुमार। 



Monday 5 June 2017

पोर्टलैंड की सैर !!!

 आज का दिन हमने पोर्टलैंड के लिए रखा था।अगला दिन अकार्डिया नेशनल पार्क के लिए ।पोर्टलैंड का लाइट हाउस मशहूर है। हम भी देखने निकल पड़े। हॉटेल से कुछ दस मिनट की दुरी पर ही ,फोर्ट विलियम्स पार्क था। इसी पार्क के एक किनारे पर लाइट हाउस है।ये पार्क समुन्द्र से सटे ही है।यहाँ तक आप अपनी कार या कुछ टूरिस्ट बस के द्वारा जा सकते है। वैसे तो पार्क में फूल -पत्ती कम ही थे ,पर सुन्दर हरे घास ,कुछ जंगली फूल और समुन्द्र इसकी शोभा बढ़ा रहे थे।
ये रहा लाइट हाउस ।
यहाँ लाइट हाउस के साथ ही एक छोटा सा गिफ्ट शॉप और खाने -पीने की एक दूकान भी है ।यहाँ बाथरूम के लिए आपको थोड़ी परेशानी हो सकती है ।चलता -फिरता बाथरूम किसी कोने में रखा होगा। आपको ढूढ़ना या पूछना पढ़ सकता है । पार्क से बाहर निकलते समय समुन्द्र के किनारे कुछ बेंच ,टेबल आपको मिल जायेंगें ।आराम से बैठिये ,खाइये -पीजिये ।कई लोग ऑनलाइन ,टेबल रिज़र्व करवाते है ।थोड़ा सा ऊपर की तरफ जाते है तो ,कुछ आधा -अधूरा कंस्ट्रक्शन  देखने को मिलता है ।इसका नाम गोडार्ड  मैंशन है ।कोलोनेल गोडार्ड अमेरिकन सिविल वॉर के फर्स्ट कमांडेड थे ,मेन विलुण्टीर रेजिमेंट के ।
यहाँ से हमलोग निकले  ईस्टर्न प्रॉमनेड पार्क की तरफ़ ।रास्ते में ओल्ड पोर्ट देखते हुए। ओल्ड पोर्ट में ईंट और पत्थर से बने लाल रंग के बिल्डिंग और शॉपस है ।मुझे कुछ अलग लगा ।रुकने का मन था पर ,पार्किंग ही नहीं मिल रही थी । हमलोग गाड़ी से ही इन गलियों में 3/4 चक्कर लगाए और आगे बढ़ चले ।प्रॉमनेड पार्क में के एक तरफ़ ख़ूबसूरत घर तो दूसरी तरफ़ समुन्दर ।पार्क में हर जगह बैठने को बेंच है ।ट्रेल है ।बच्चों के खेलने की जगह है ।आप पूरा दिन बीता सकते है यहाँ।
ये कुछ घर की तस्वीरें ।साथ ही यहाँ मुझे एक ख़ूबसूरत बुज़ुर्ग जोड़ा दिखा जो शादी कर रहे थे ।

Thursday 1 June 2017

राष्ट्रीय फूल की दौड़ में हरसिंगार !!!

बदलाव की हवा चल रही है। शासन बदला ,सड़क का नाम बदला ,शहर का नाम बदला। अब बात हो रही है , राष्ट्रीय पशु की। कल  बारी अगर राष्ट्रीय फूल की आएगी तो ? आपके हिसाब से कौन सा फूल बाजी मार ले जायेगा ? सोचिये -सोचिये।

गुलाब ? अरे नहीं जी ,गुलाब तो मजनुओं की पसंद है। एंटी रोमियों वाले पहले ही छाँट देंगे। कुछ लोग कोट -वोट में भी खोंसते थे /है। साथ में काँटे भी लगे है। बिल्कुल नर्दोष नहीं है जी ,ये तो। गुलाब तो ऐसे ही आउट हो गया। बेली ,गेंदा ,जूही ,मोगरा ये सब तो कमल के आस -पास भी नहीं टीक सकते। फिर ?
फिर क्या ? मुझे लगता है ,एक फूल है। जो पूरी तरह जीत सकता है। "पारिजात " के फूल। इनको "हरसिंगार " भी कहते है। सफ़ेद और "गेरुआ "रंग का मिश्रण इस फूल को और खूबसूरत बनाता। ख़ुश्बू भी कमाल की होती है। हरसिंगार के फूल ,पेड़ ,पत्ते ,छाल सबका उपयोग औषधि बनाने में होता है। इतना निर्दोष फूल है की ,दिन की तपिश तक नहीं सह सकता। और तो और नाम तो देखिये -हरसिंगार ,"हरि " हाँ जी दैवीय कनेक्शन भी है।पहली बार पृथ्वी पर आया भी तो कहाँ ?
द्वारिका में महाराज। सुनिए , एक कथा है। जो माँ बताया करती थी हरसिंगार के बारे में ,सुनाती हूँ -

हरसिंगार के फूल समुन्द्र मंथन के समय प्रकट हुए थे । इंद्र की चालाकी की कथा तो आप सब ने सुनी ही होगी। वे इस फूल को भी इंद्रलोक लेकर चले गए। एक बार कृष्ण ,रुक्मिणी जी के साथ इंद्रलोक गए। वहाँ रुक्मिणी जी को ये फूल बहुत पसंद आये। उन्होंने कुछ फूल अपने बालों में खोंस लिया। वापस जब कृष्ण और रुक्मिणी द्वारिका आये तो ,कृष्ण की दूसरी पत्नी सत्यभामा ने ,उन फूलों को रुक्मिणी के बालों में देखा। सत्यभामा ,कृष्ण से जिद्द कर बैठी। कान्हा ,मुझे भी ये फूल चाहिए। कृष्ण क्या करते। पहुंचे इंद्र के पास। पर इंद्र ने पारिजात को पृथ्वी पर भेजने से मना कर दिया। फिर क्या था ,युद्ध हुआ। मार -काट मचा कर पारिजात द्वारिका तक पहुँचा। सत्यभामा फूल पा कर खुश हो गई। इसके अलावा ये फूल लक्ष्मी जी को भी पसंद है।

साथ ही ,मेरी यादों के फूल में ,एक नाम हरसिंगार का भी है। मैंने भी इसे लगाया था। पर कुछ सालों बाद बारिश के पानी के जमा होने से पेड़ सड़ गया। कितने सुन्दर फूल लगते थे। खिलते भी शान से। साल में एक बार ही। वो भी पवित्र महीने में  -कुछ दशहरा ,दिवाली ,छठ  के आस -पास। मेरे बाग़ान में जो पेड़ था। उसके नीचे माँ ,रात में एक धुला हुआ चादर बिछा देती। सुबह फूलों को समेट कर कुछ माँ रखती तो कुछ पड़ोसी पूजा के लिए ले जाते।   
तो इस तरह मुझे लगता है ,हरसिंगार को ही राष्ट्रीय फूल घोषित होना चाहिए। हर कैटेगेरी में फिट। वैसे भी ज्यादा कमल खिलने से ,बहुत कीचड़ हो गया है भाई।