चर्च का घंटा बज रहा है। घड़ी देखा तो पाँच चुकें है। घर के सामने जो चर्च है ,उसमे एक टावर है। जो हर घंटे बजता है। इसकी घंटियाँ बहुत सूदिंग आवाज़ करती है। इंट्रेस्टिंग ये है इसमें 56 घंटियाँ लगी है। इसमें लगी 36 घंटियां दूसरे विश्व युद्ध के समय, स्विट्ज़रलैंड की नेस्ले कम्पनी ने लगाने के लिए दी थी। खैर ,ईधर मेरा सत्यार्थ भी बज रहा है। मौसम का भी मिज़ाज भी गड़बड़ा गया है। मेरे दिमाग भी ऐसी में बैठे -बैठे ,यैसे -तैसे हो रहा है। सत्यार्थ को चुप करा रहीं हूँ। फिर सोचा बालकनी में थोड़ी देर खड़ी होती हूँ ,शायद चुप हो जाय। यहाँ बालकनी का मतलब एक टेबल चार चेयर। कुछ फूल -पत्तियां या ज्यादा से ज्यादा थोड़े लाइट -बिजली वाले झाड़ -फेनुस। लोग अमूमन बालकनी में या तो सिगरेट पीने के लिए निकलते है ,या कभी -कभार साफ़ -सफाई के लिए। सत्यार्थ बाहर आकर चुप हो गया। सामने पड़े चेयर पर मैं भी विराजमान हो गई। थोड़े देर सत्यार्थ को लेकर बैठी रही। वो भी नेचुरल हवा पी कर सो गया। अभी हवा तेज हो गई है। मैं उसे घर में सुला आती हूँ। पर मेरा मन तो बालकनी में ही अटका हुआ है। उसे सुला कर , फ़ोन लेकर फिर से बालकनी में आ जाती हूँ। बाहर के मौसम को देख घर की बहुत याद आ रही है। घर यानी मेरे बसंतपुर की।
थोड़ा आँधी सा उठा और मेरा मन आँधी की तरह कॉलोनी में पहुँच गया। काश ,कोई आम का पेड़ उग आता यहाँ। दौड़ कर टिकोड़ा चुनने भाग जाती। अब तो आम भी पक गए होंगे। माँ पीछे से आवाज़ लगाती -आ जाओ तुमलोग ,मेघ -बुनी में बंदइया बने फिरते हो। खैर नहीं है तुमलोग का आज। पर हम तो हम। भागते हुए -कहते माँ न ,जल्दी आ जायेंगे। मत गुस्साओ। हवा की तरह भागते। ठेस लगने पर बुनि की तरह गिरते। फिर टिकोड़ा लाकर खाना पकाने वाली दीदी को देते। कहते मेरे आम का चटनी मत पीसना ,इसका खटमिट्ठी बनाना। अरे -अरे बिजली चमकी भागो अंदर । यादों से भागते हुए मैं अंदर आ गई।
खैर फ़ोन को आराम देकर ,टीवी की नाक में ऊँगली की। अपनी फेवरेट प्लेलिस्ट में कुछ ढूंढने लगी। फिर मुझे "-सावन के दिन आये ,सजनवा आन मिलो (भूमिका ) "सॉन्ग दिखा। मौसम को देखते हुए इसे बजा डाला।
फिर एक याद गुदगुदा गई। जब पहली बार ये गीत भाई ने सुनाया था। वीडियो देख कर खूब हँसी थी। उसको मारते हुए कहा -पागल ,क्या -क्या सुनते हो तुम भी। वो भी कहाँ कम। जबरदस्ती मुझे पकड़ कर ये गाना सुनाया। मैं कहे जा रही थी ,माफ़ कर दे भाई। मार हो जाई अब। वो बोला -होई त होई। मुझे पकड़े रहा। आख़िर मुझे सुनना पड़ा। अच्छा लगा तो फिर से बजवाया। गाना अधूरा है ,तो बार -बार भाई से पूछती ,भाई रे ऐसा क्यों ? उसपर हीरो बगीचे में होते हुए भी ,प्लास्टिक का गुलाब लिए घूम रहा है।
उफ्फ्फ !अभी भी सोच के हँसी आ रही है। ये लीजिये फिर से घंटा बज उठा।एक ,दो ,तीन ,चार ,पाँच ,छह।
थोड़ा आँधी सा उठा और मेरा मन आँधी की तरह कॉलोनी में पहुँच गया। काश ,कोई आम का पेड़ उग आता यहाँ। दौड़ कर टिकोड़ा चुनने भाग जाती। अब तो आम भी पक गए होंगे। माँ पीछे से आवाज़ लगाती -आ जाओ तुमलोग ,मेघ -बुनी में बंदइया बने फिरते हो। खैर नहीं है तुमलोग का आज। पर हम तो हम। भागते हुए -कहते माँ न ,जल्दी आ जायेंगे। मत गुस्साओ। हवा की तरह भागते। ठेस लगने पर बुनि की तरह गिरते। फिर टिकोड़ा लाकर खाना पकाने वाली दीदी को देते। कहते मेरे आम का चटनी मत पीसना ,इसका खटमिट्ठी बनाना। अरे -अरे बिजली चमकी भागो अंदर । यादों से भागते हुए मैं अंदर आ गई।
पर मन का क्या करे ? मन फिर से बालकनी की शीशे की दिवार से चिपक गया। फिर से बाहर निकल आई। सोचा एक विडिओ बना लेती हूँ। जब अपनी भावनायें आप तक पहुँचाऊँ तो ,आप भी यहाँ के मौसम का आनंद ले सके। और देखिये तो सही ,इंद्र देव भी प्रसन्न होकर प्रेम बरसाने लगे। आप भी देखिये बिना आम के ,बिना कागज के नाव के ,बिना बच्चों के बारिश कैसी दिखती है।
खैर फ़ोन को आराम देकर ,टीवी की नाक में ऊँगली की। अपनी फेवरेट प्लेलिस्ट में कुछ ढूंढने लगी। फिर मुझे "-सावन के दिन आये ,सजनवा आन मिलो (भूमिका ) "सॉन्ग दिखा। मौसम को देखते हुए इसे बजा डाला।
फिर एक याद गुदगुदा गई। जब पहली बार ये गीत भाई ने सुनाया था। वीडियो देख कर खूब हँसी थी। उसको मारते हुए कहा -पागल ,क्या -क्या सुनते हो तुम भी। वो भी कहाँ कम। जबरदस्ती मुझे पकड़ कर ये गाना सुनाया। मैं कहे जा रही थी ,माफ़ कर दे भाई। मार हो जाई अब। वो बोला -होई त होई। मुझे पकड़े रहा। आख़िर मुझे सुनना पड़ा। अच्छा लगा तो फिर से बजवाया। गाना अधूरा है ,तो बार -बार भाई से पूछती ,भाई रे ऐसा क्यों ? उसपर हीरो बगीचे में होते हुए भी ,प्लास्टिक का गुलाब लिए घूम रहा है।
उफ्फ्फ !अभी भी सोच के हँसी आ रही है। ये लीजिये फिर से घंटा बज उठा।एक ,दो ,तीन ,चार ,पाँच ,छह।
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