Monday 13 March 2017

फगुआ ना सुनने की कसक !!!

रंग -गुलाल ,खाना- पीना ,ढ़ोल -मंजीरे ,गीत -संगीत, इसी का नाम तो होली है। ना कोई बड़ा ना छोटा ,नाही जात -धर्म की खाई। सब एक रंग में रँगे हुए।होली तो बहुत खेली है मैंने ,पर एक तम्मना अधूरी रह गई।अब शायद पूरी भी ना हो। मुझे फगुआ सुनने का बड़ा मन होता है।देखना चाहती थी और हूँ की ,कैसे लोग इक्कठे होकर ढोल -झाल पर फ़ाग गाते , चैता गाते।जब छोटी थी ,तो कई बार अलग -अलग वजहों से गाँव नही जा पाती।प्रमुख कारण स्कूल की एक दिन की छुट्टी होती।माँ जाने ही नही देती।वही मेरा भाई शुरू से दबंग रहा। रो -गा कर कैसे भी चला जाता। जब गाँव से आता तो ,वहां की होली के बारे में बताता। कैसे दिन भर गोबर कीचड़ की होली के बाद शाम को बूढ़े ,जवान ,बच्चे सब मिलकर ढ़ोलक ,झाल ,हारमोनियम लेकर लगभग हर किसी के दरवाजे पर जाते।दुआर पर तिरपाल या बोरा बिछा रहता।हर किसी के दरवाजे पर 1 /2  होली के गीत गाये जाते।हमारे घर से गीत -संगीत शुरू होता,तो जाहिर है गीत भी हमारे दुआर पर ज्यादा गया जाता। घर से चाची लोग पुआ- पूड़ी ,दही बड़ा ,नास्ते का सामान सब बाहर भेज कर छत पर चली जाती।छत के झरोखे से ,नीचे होने वाले नाच गाने का आनन्द लेती।झरोखा मतलब छत की चारो तरफ की बाउंड्री, जिसमे बीच -बीच में ईंट नही लगी होती।ये रहा वो झरोखा -
मतलब घर की महिलाएं नीचे गाने वालो को देख सकती थी ,पर नीचे गाने वाले उन्हें नही। वैसे उस वक्त कोई घर की छत की तरफ देखता भी नही था।खैर महिलायं भी आनंद लेती फगुआ का।बीच -बीच में ऊपर से ही गुलाल नीचे फेक देती और खुश हो लेती ,कि फलां भाई साहब पर डाल दिया। भाई से गाँव की होली की बात सुनकर मै तड़प उठती। माँ से कहती अगली बार मैं तो जरूर जाउंगी। माँ तभी तो हाँ कह देती ,लेकिन अगले बार फिर मेरे इरादों पर पानी पड़ जाता।भाई ने ही मुझे पहली बार फगुआ सुनाया था -

"खेले मसान में होरी दिगंबर खेले मसान में होरी "
उसके गाने के तरीके और धुन से मैं दुखी हो गई की इतना सब कुछ मिस हो गया।
जब  बारहवीं पास करके बसंतपुर गई तो ,मैंने माँ को कहा -अब बस इस बार तो मैं गाँव जाउंगी। अब मै बड़ी हो गई हूँ माँ ,तुम्हारी बातों में नही आउंगी। हा -हा -हा ये होली का असर है ,ऐसा कुछ नही कहा मैंने। मैंने माँ को कह-इस बार मैं गाँव  जाऊँगी माँ होली में।माँ बोली जाना है तो जाओ ,पर इसबार होली शायद ना खेली जाय।घोठा पर वाले बाबा(रिलेटीव )जी नही रहे।मुझे लगा माँ फिर नही भेजने के लिए बहाने ढूँढ़ रही है।मैंने कहा जो भी हो ,मैं जाउंगी।एक्चुअली माँ को होली में 2 दिन की छुट्टी होती।वो ख़ुद गाँव नही जा पाती।ऐसे में उन्हें लगता हमलोग गाँव अकेले ना जाए ,वो भी त्यौहार पर। खैर इस बार भाई के साथ मै गाँव गई।हुआ वही जो माँ कह रही थी।हम बच्चों ने होली तो खेल ली , पर कोई मंडली हमारे दरवाजे पर नही आई।मैं बहुत उदास थी। मेरा भाई मेरा मज़ाक उड़ा रहा था।मैं लगभग रोने -रोने हो गई थी। सोचा इससे अच्छा तो बसंतपुर रहती।मुझे दुखी देखकर चाची सब समझाने लगी -बबी ,अब ये सब वैसे भी काम हो गया है।गाने बजाने वाले बुज़ुर्ग अब रहे नही।नए लोग ना सीखे ना ही उन्हें गाने में इंटरेस्ट है। वो लोग मुझे समझती रही और मेरी आँखों से आँसू बहने लगे। दादी मेरी वही बैठी थी।कब से वो ये ड्रामा देख रही थी।थोड़ा गुस्सा होते हुए बोली -ई त बड़ा जिद्दी हो गइल बिया।का बाहर पढ़ेले ? देह बढ़ल बा खाली।तो इस तरह मेरा आखिरी प्रयास भी नाकामयाब रहा।इसके बाद मैं कभी होली में गाँव नही गई।मेरे गाँव में महिलाओं के लिए होली ,मुझे बहुत बोरिंग लगी।कोई हुरदंग नही।खैर मुझे तो फगुआ ,चैता सुनना था।वो अरमान पूरा नही हो सका।अपनी इस ख़्वाहिश को अब मैं यू ट्यूब के जरिये पूरा करती हूँ।काश कभी मुझे लाइव सुनने का मौका मिल जाता।बरहाल पूरी कहानी का पीछे की कहानी ये है -आज यहां होली है। शतेश ऑफीस चले गए। सत्यार्थ दूध पीने और सोने में लगा रहा और मैं दिन भर बेग़म अख़्तर ,आबिदा प्रवीण ,शोभा गुरटू ,गिरिजा देवी और छुन्नू लाल को सुनती रही।होली का त्यौहार भी संध्या के साथ समाप्ति की ओर है। ऐसे में "आबिदा जी "की गाई होरी रंग के साथ प्रेम और अध्यात्म की ओर ले जा रहा है।आप भी सुने

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