Wednesday 29 May 2019

बुद्ध पूर्णिमा का चाँद !!!

एक अकेला चाँद शीशे की खिड़की से झाँक रहा है। बार-बार शीशे के ऊपर बने फ़्रेम में जड़ा उसे देख मुँह फेर लेतीं हूँ पर वो ढीठ ऐसा कि आगे हीं नही बढ़ता। किसी आस के पंक्षी सा मेरी तरफ़ ताके जा रहा है ताके जा रहा है...
मैं कोई चकोर नही फिर भी उसकी इस अदा से प्यार से भर उठी हूँ। ख़ुद को उठाया और बालकनी में निकल पड़ी। थोड़ी देर उसे वैसे हीं घूरती रही जैसे वो मुझे घूर रहा है। इस क्रम में दो अकेले ठहरे हुए ग्रह आपस में मौन वार्तालाप करने लगे.....

मुझे यूँ ताकता देख चाँद और चमक उठा। मेरी आँखों में उसकी चमक खेल रही थी और  इन आँखों की चमक का जादू उसे बाँधे हुए था। दोंनो एक दूसरे को रोके हुए थे कुछ ऐसे जैसे होंठों पर एक गीत बहने लगी,
अभी ना जाओ छोड़ कर की दिल अभी भरा नही....

एक पल को बादलों के पीछे हल्का सा छिप कर मुझे देखने लगा मानो जाँच रहा हो मेरे मन को, मेरे धैर्य को। मेरे धैर्य की परीक्षा के पहले हीं उसको अपने अकेलेपन से डर लगने लगा। नीले -काले बादलों की ओट से बाहर निकल चमक  उठा...
मुझसे बोला, मेरी चाँद ! जाने क्यों मैं अकेला यूँ हीं सदियों से भटक रहा हूँ?  जाने क्यों लोग मुझे यूँ दूर से ख़्यालों से ही प्रेम देते है?
कभी साथी रहे असंख्य तारे भी साथ नही मेरे ....
सुनो, क्या तुम जाने से पहले मेरी एक याद साथ रख पाओगी? जाने कब अब मैं तुम्हारी खिड़की पर आऊँगा? कब तुम्हें पुकारूँगा ? और कब तुम मेरी पुकार सुन आ जाओगी...
तबतक तक मुझ अकेले चाँद को इस ब्रहमाँड के फेरे ऐसे हीं लेते रहने होंगे जैसे, “एक अकेला इस शहर में, रात में और दोपहर में आब-ओ -दाना ढूँढता है ,आशियाना ढूँढता है.”
चाँद को जाते देख, यादों के नाम मैं किसी अनाम से लिखे ख़त सा उसे अपने फ़ोन में क़ैद कर लेती हूँ। चाँद सुनो, तुम्हें अकेला जाते देख मन बेचैन सा है थोड़ा दुखी सा है मानो जैसे इसी पल के लिए किसी मासूम रजा के भाव यूँ उभरे जैसे मेरे हो,

चाँद अकेला जाए सखी री
काहे अकेला जाए सखी री
मन मोरा घबराए री
सखी री , सखी री ओ सखी री ....

जाओ चाँद दुखी ना हो वियोग से। यात्रा तुम्हारी नियति है पर इस बार तुम क़ैद हो किसी के मन में। एक ऐसी क़ैद जो प्रेमपूर्ण आज़ाद है....
तुम फिर आना मेरी खिड़की पर। हम फिर मौनपूर्ण बातें करेंगे और हाँ,
अब तुम अकेले होकर भी अकेले नही रहे ....

Tuesday 21 May 2019

इंडी 500 !!!

शनिवार अठारह मई सुबह दस बजे हम निकले इंडी 500 देखेने। एक सप्ताह तक चलने वाले इस रेस का आज प्री क्वालिफ़ाईग डे था। फ़ाइनल रेस हर साल मेमोरियल डे के दिन होता है। हमलोग सत्यार्थ को लेकर तय नही कर पा रहें थे कि, वो हमें इतनी देर यानी तीन घंटे की रेस और बाक़ी उसके पहले के प्रोग्राम तक में बैठेने देगा या नही। कारण “सी एन एन” अटलांटा और सीनसीनाटी  ऑर्ट म्यूज़ियम हम ठीक से देख नही पाए थे साथ ही मेमोरियल डे पर लोंगविकेंड हो जाता है तो आराम से कही दूर का ट्रिप किया जा सकता है ये भी दिमाग़ में था, इसलिए तय हुआ फ़ाइनल ना जा कर इस बार प्री क्वालिफ़ाईग हीं देखने चलतें है। अगले साल फ़ाइनल में चले जायेंगे।

इंडी 500 के रेस में भाग लेने दूसरे देश से भी प्रतियोगी आतें है। मेरी लिए सबसे बड़ी  ख़ुशी थी “फर्नांडो अलोंसो” को ट्रैक पर दौड़ते देखना। दो बार फ़ॉर्म्युला वन के विजेता अलोंसो जिन्हें मैं धोनी, राफ़ेल नडाल के साथ पीछे छोड़ चुकी हूँ वो आज मेरे सामने थे। ये एक सपना हीं था जो मैंने अपने कोलेज के दिनों में देखा था। ऐसा नही था या है कि मैं खेल की दीवानी रही उस क़दर जैसे मेरे स्वामी टेस्ट मैच के है पर मुझे दो-चार खेल देख कर हीं किसी ख़ास खिलाड़ी से लगाव हो जाता था। उस समय मैं स्पॉट स्टार ना की खेल की ख़बरों के लिए ख़रीदती थी बल्कि इन तीन स्टार की तस्वीर के लिए लेती थी। फटाफट इनकी ख़बर पढ़ी, तस्वीर बहुत अच्छी लगी तो काट कर दीवार पर चिपका दिया।

बीती बातों से बाहर आज की रेस की बात करें तो फर्नांडो अलोंसो इस बार रेस से बाहर हो गए हैं। दो दिन पहले उनकी गाड़ी का ट्रैक पर ऐक्सिडेंट भी हुआ था और दूसरी गाड़ी में अंत समय में कुछ बदलाव उन्हें टीम में जगह नही दिला पाई। हाँ मेरी क़िस्मत कहें कि मैंने उन्हें दो बार ट्रैक पर दौड़ते देखा। 

इंडीऐनापोलिस के रेसिंग ट्रैक की बात करें तो ये ढाई मील यानी चार किलोमीटर में फैला अंडाकार ट्रैक है। यहाँ जीतने के लिए दो सौ राउंड लगाने होंगे सबसे कम समय में। अमूमन ये चक्कर पूरा करने में लगभग तीन से साढ़े तीन घंटे का समय लग जाता है और इस तरह 500 मिल की दूरी तय की जाती है। 
फ़ाइनल रेस में 33 ड्राइवर ट्रैक पर होंगे। तीन रो और हर रो में 11 ड्राइवर।

रेस प्रेमियों के लिए यहाँ ढाई से तीन लाख लोगों की बैठने की जगह है। हाँ पर छत वाली सीटें कम हैं। हर गेट के नीचे कई सारे रेस्टरूम बने हैं पर अगर आपके साथ कोई छोटा बच्चा सत्यार्थ की उम्र तक का है तो डाइपर रूम या सीट नही बनाई गई कहीं भी। 
खाने पीने के लिए आप घर से ले जाए तो बेहतर है, कारण यहाँ शाकाहारी लोगों के लिए सिर्फ़ फ़्रेंच फ़्राइज़ हीं है। साथ ही हेड फ़ोन ज़रूर रखें  या कोई ईयर प्लग जैसा, बहुत आवाज़ होती है जब कार सामने से गुज़रती है। 


भगवान की दया और सत्यार्थ की कृपा से हमने सभी ड्राईवर की रेसिंग देखी। क़रीब पाँच बजे वहाँ से निकले। सत्यार्थ बीच-बीच में परेशान तो कर रहा था ऐसे में थोड़ा घुमा लाओ ये सुविधा शायद फ़ाइनल को थोड़ी मुश्किल से पूरी होती कारण उस दिन सुना है इतनी भीड़ होती है की पैर रखने को जगह नही।


Friday 17 May 2019

नीला फूल !!!

मनलहरी लिखने के दौरान कई प्रयोग किया मैंने। ये प्रयोग मेरे धीरज का था, ये प्रयोग मेरे कल्पनाओं के साथ था और ये प्रयोग मेरे चित्रकारी के साथ था। मैं वैसे कोई चित्रकार नही बस आड़ी-टेढ़ी रेखाएँ खींच लेती हूँ अपने आस-पास। कुछ इस तरह की की इनसे घिर कर मुझे क़ैद नही एक एकांत महसूस होता है। जहाँ सिर्फ़ होती है तपस्या दोंनो अर्थों में। एकांत की ये रेखाएँ मुझ मे प्रवाह करती हुई मेरे मस्तिक की कोशिकाएँ बन जातीं हैं फिर वे मुझे एक नए संसार का दर्शन करा लाती हैं जिनके दर्शन मात्र से हीं इस एकांत से प्रेम हो जाता है। एक हल्की हँसी आकर कब होंठों पर बिखर जाती है, ये तबतक मालूम नही होता जबतक होंठों के दोंनो किनारों पर खिंचाव महसूस ना कर बैठूँ।

ऐसे में इन मन की लहरों के साथ मैंने कुछ तस्वीरें बनाई थी किताब के कवर पेज के लिए। हालाँकि जो तस्वीरें बनी वो बस मुझ तक ही रह गई। किताब पर कुछ और ही चढ़ना लिखा था। आज यूँ ही जब इन तस्वीरों को देखा,  तो याद आई कितनी मुस्कुराहटे बिखरीं थी मेरी होंठों पर इनकी कल्पना कर के।

तस्वीर की व्याख्या तस्वीर देखने वाले आँखो से उसकी आत्मा करवाती है। भाव के अनुरूप तस्वीर अपना भाव बदलती है। तुलसी दास जी ने कहा है ना,” जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।”

डोर सी खिले दो नीले फूल, मानो एकांत में अपनी प्रेम जड़े जमा रहे हो। एक रंग में रंगे,  एक दूसरे की आस में हवा में अपनी ख़ुश्बू बिखेरें चुपचाप कितनी बातें किए जा रहें हो। ऐसे में एक दिन हवा का तेज़ झोंका आता है और नीला फूल बिखर जाने से पहले अपना मौन तोड़ता है;

कई बार यूँ भी देखा है
ये जो मन की सीमा रेखा है
मन तोड़ने लगता है
अनजानी प्यास के पीछे
अनजानी आस के पीछे
मन दौड़ने लगता है 


और जिस तरह विद्या सिन्हा की नीली साड़ी जैसे हवा के झोंकें से उन हाँथों पर पड़ती है उसी उम्मीद में वो अनुरोध कर बैठता है;
एक बार तुम भी इसी हवा के झोंकों के नाम, मेरे हृदय  पर अपना सर रख दो। मेरी डोर टूट कर धरती का आलिंगन करें इससे पहले क्या एकांत प्रेम के अनुरोध को तुम समझ पाओगी? 
प्रेम में सब कह जाना मेरी बस का नही। आख़िर हूँ मैं एक नीला कमज़ोर फूल जो बस जनता है एकांत मौन प्रेम.....

Thursday 16 May 2019

बत्ती गुम !!!

बंद शीशे के घर में रहने के इतने सालों बाद भी , आदत नही हुई बारिश में बेफ़िक्र रहने की। जब भी बारिश होती है ऐसा लगता है कि कुछ भींग तो नही रहा? कपड़े उड़ ना गए हो आँधी में,या फिर अब तो बिजली जाएगी ही जैसी बातें। ऐसा कुछ होता तो नही पर मन एक बार घर या दिल्ली घुम ज़रूर आता।

 बिजली देवी  की असीम कृपा से आज एक चिंता पुरी हुई,”बिजली जाने” की। और पुरी भी ऐसी की चाय तक नदारद। मन भनभना उठा, भाक साला इससे अच्छा तो दिल्ली ही था कम से कम चाय तो मिल जाता था। झमाझम बारिश के बीच मैंने दूध में में जैसे पत्ती डाली थी बिजली भूकभूकाई। उसकी भूकभूकी को नज़रअन्दाज़ कर मैंने अदरख और चीनी दूध में डाल, बारिश का वीडीयो बनाने बालकनी में पहुँची। इधर मैं बाहर उधर बिजली भी घर से बाहर। चाय बेचारा उफ़नते-उफ़नते रह गया।

शतेश बाबू का भी आगमन हो चुका था। अब बिना चाय के, बिना संगीत के और बिना वाक् के क्या हो तो हम गीतों की कड़ी अंताक्षरी खेलने लगे। सालों बाद हम दोंनो अंताक्षरी खेल रहे थे। आलम ये कि मैंने सारे चालू गाने गा डाले और शतेश एक से एक गीत चुन रहें थे। मुझे अच्छे गीत याद हीं नही आ रहें थे। पर गेम तो गेम है जैसे खेलो....

 शतेश पर मैं दबाव बनाए हुए थी। प्रेसर में लड़के को अच्छा करने की आदत है। हर बार बच जातें फिर “ह” “ल” और “स” ने इतना पानी-पानी किया कि एक-दो बार तो लगा मैं भी फँस गई पर धन्यवाद हो पवन गवैया का और हमारी बड़ज़ोरी की ल से “लगावेलू तू लिपिसटिक “ शतेश को मानना पड़ा।
लगभग 45मिनट से एक घंटे के खेल में शतेश राम “स” से फँस कर हार बैठे। उनके हारने के बाद मैंने जीत का गाना गया,” शादी करके  फँस गया अच्छा ख़ासा था कुँवारा”

खेल ख़त्म पर बिजली रानी अब भी नदारद थीं। बारिश बंद हो चुकी थी तो हम वाक् को निकल पड़े। यहाँ अंधेरा अब लगभग साढ़े आठ- नव बजे के आस-पास होता है। वापस आने के बाद भी कहीं कोई चमक नही। अलबत्ता आज मालूम हुआ कि हमारे अग़ल -बग़ल कौन -कौन रहता है। जैसे बारिश में बिल में पानी भर जाने से सारे जानवर इधर-उधर पसरे होते ठीक वहीं आलम था आज हम जीवों का।

तीन घंटा से ऊपर हो गया बिजली माई का कोई पता नही। अब ये नही तो गैस बंद, गैस बंद तो खाना बंद। ऐसे में  हम पहुँचे पिज़्ज़ा के ढाबा। बिजली के ना होने से ट्राफ़िक लाईट भी करिया बक्सा जैसा झुल रहीं थी। अच्छा हुआ बड़ा ज्ञान देतीं रहती है, हरिहर -लाल होती हैं बात-बात पर। आज सब अपनी मर्ज़ी से सामने वाले का मिज़ाज भाँप कर गाड़ी बढ़ा रहें थे। नियम वहीं जो पहले आया पहले जाएगा।
पिज़्ज़ा  रेडी था,  लिया और घर आ कर कैंडिल लाईट डिनर हुआ।
हाय रे कैंडिल लाईट डिनर ! लाईका के हंगामा और ठंडाते पिज़्ज़ा को जैसे -तैसे ग्रहण किया।
वैसे बिजली  जाने का भी अपना ही सुख है। कभी -कभी इसे जाना चाहिए......
चलिए कुछ तस्वीरें



Monday 13 May 2019

बिरहा गायक हीरालाल यादव जी!!!

पद्मश्री हीरालाल यादव जी की निधन की ख़बर सुनकर मन भ्रमित सा हुआ। भ्रमित होने का कारण उनकी मृत्यु नही है। मृत्यु तो जीवन का सत्य है इससे कैसा भ्रम।
फिर भी भ्रम की स्थिति इसलिए पैदा हुई कि, अरे इतनी जल्दी। पिछले बुधवार को हीं तो मैंने पहली बार इनका गया बिरहा सुना। 

हुआ यूँ कि, हमेशा की तरह खाना पकाते समय मैं गाने बजा रही थी। मेरा मन उस दिन भजन का था तो भजन वाली प्लेलिस्ट लगा ली। जसराज जी के बाद, किशोरी अमोनकर फिर छन्नूलाल लाल मिश्रा और फिर ओसमान मीर के  “ कैलाश के निवासी” के साथ मेरा घर भक्तिमय रस से भर रहा था। सत्यार्थ को उलझाने में उलझे शतेश का ध्यान ओसमान मीर के भजन पर गया। मेरे पास आए और पुछे ये कौन गा रहा है, बड़ा अच्छा गा रहा है। गाँव पर जो बिरहा होता था उसकी याद आ गई।

मैंने उन्हें इनके बारे में बताया और साथ हीं कहा कि इन्होंने रामलीला फ़िल्म भी गाना गया है। “मोरारी बापू” के प्रोग्राम में भी भजन गातें है। शतेश ने सिर्फ़ मोरारी बापू का नाम सुना है, कभी उनका रामायण पाठ या भजन नही सुना तो अच्छा कह कर मेरे सवाल का जबाब देने लगे। मैंने पुछा था, बिरहा के जैसा कैसे गा रहें हैं? लय ताल तो अलग से हैं इनके।

वो बोले; बिरहा में भी फ़िल्मी धुनो पर भजन या कोई प्रसंग गया जाता है। मैंने कभी ऐसे ठीक से बिरहा नही सुनी थी। चलते- फिरते कहीं बजते हुए सुन लिया। ऐसे में कैलाश के निवासी पुरा होते हीं मैं बिरहा की खोज में लग गई। खोजने कि वजह ये हुई की, शतेश को किसी बिरहा गायक का नाम हीं याद नही आ रहा था अभी।

ऐसे में मुझे हीरालाल जी मिले। मैंने उस दिन इनके द्वारा गाया, शंकर जी की लीला और जौनपुर कांड सुना। अच्छा लगा मुझे सोचा,  किसी दिन इनके बारे में और जानकारी इक्कठा कर इनके बिरहा और ओसमान मीर के भजन को मिला कर लिखूँगी और संयोग देखें आज इनके नही रहने की ख़बर मिली। 

महामाया ने क्या जाल रची मुझे इनतक पहुँचाने की। उम्र के इस पड़ाव पर बीमार, बुढ़ा गायक अस्पताल के बेड पर पड़ा क्या सोचता होगा?
शायद यहीं की उसकी आवाज़ हर एक संगीतप्रेमी तक पहुचें। 
हीरालाल जी आपको सादर नमन। 

Tuesday 7 May 2019

अक्षय तृत्या !!!!

अक्षय तृत्या बीत जाए इससे पहले मैं आप सबको ले चलती हूँ क़िस्सों की दुनियाँ में। तो हमेशा की तरह बरहम बाबा और दुआरा पर की माई के साथ हनुमान जी की जय बोलें और पंक्ति में बैथ जाएँ।
वैसे तो इससे जुड़ी मैंने दो-चार कहानियाँ सुन रखी है पर आज परशुराम जी और बाँके बिहारी जी के क़िस्से से जुड़ी याद बताती हूँ।

ऐसा माना जाता है कि अक्षय तृत्या के दिन ही परशुराम जी का जन्म हुआ। जिन्हें ज़्यादा जानकारी नही और नाम में राम से तुक्का लगा रहें है तो बिलकुल सही जा रहें है। ये भगवान विष्णु के हीं छठे अवतार हैं। इनके बाद राम आए। यानी राम सातवें अवतार हुए। तो क्या राम नाम इनसे लिया गया है, जैसे मेरे पड़ोस के लोग सुनासुनी नाम रख लिया करतें थे।  जैसे मेरे पड़ोस में भाई के नाम को कई लोगों ने आगे बढ़ाया पर मेरा तो बस पुछे मत। लोग ठीक से तपस्या कह लेते वहीं बहुत था मेरे लिए।

फिर विषयान्तर हुआ। ये मेरी भटकने की आदत भी ना। ख़ैर मुद्दे की बात ये रही कि राम का नाम, परशुराम से लिया गया या ओरिजनल था मुझे इसकी कोई जानकारी नही। हाँ परशुराम का जन्म तो हो गया पर इनसे जुड़ी कथाओं में सबसे मनोरंजक जो मुझे लगी वो ये है,

परशुराम मुनि जमदग्नि और रेणुका के चौथे बेटे थे। एक दिन रेणुका पूजा के लिए जल लेने नदी के किनारे गई। वहाँ उसने गंधर्वराज चित्ररथ को अप्सराओं के साथ नदी तट पर विहार करते देखा। गंधर्वराज और अप्सराओं की क्रीणा देखने में वह इतनी खो गईं कि पूजा के लिए समय पर जल लेकर नहीं पहुँच पाई। मुनि डेर हों जाने पर अपनी दिव्यादृष्टि चलाई और सीसी टीवी पर सब फूटेंज आ गया। क्रोधित हो गये मुनि राज। किसी को भी क्रोध आएगा। मैं यहाँ पूजा पर बैठा हूँ और धर्मपत्नी वहाँ रास-रंग देख रही है। ऐसे में क्रोधित मुनि ने  अपने बेटों को माँ का सिर लाने को कहा। सबने पिता को मना कर दिया परन्तु परशुराम ने अपने फरसे से माँ का काम तमाम कर दिया। वहीं फरसा जो शिव जी ने इन्हें गिफ़्ट किया था। बाद बाक़ी शिव जी ग़ुस्साए भी इनपर कि मेरे गिफ़्ट से ये सब काम बरदस्त नही होगा मुझे।

इधर मुनि अपने दूसरे बेटों को आज्ञा ना मानने के एवज़ में मौत की सज़ा दे चुकें थे पर परशुराम पर बहुत ख़ुश थे। उन्हें वर माँगने को कहा। परशुराम भले ही क्रोधित व्यक्ति रहे हो पर कहते है ना जो खिसियाता है उसके मन मे छल नही होता तो बात सही हुई। परशुराम ने आपनी माता और भाईयों को जीवित होने का वरदान माँगा। साथ ही ये  भी माँगा कि इन्हें ये सब बातें याद ना रहें।

दूसरा क़िस्सा:- आज के दिन बाँके बिहारी के दर्शन की पूजा की भी मान्यता है। अब आपको तो मालूम होगा हीं बाँके बिहारी, कृष्ण का हीं दूसरा नाम है। पर इस नाम ने मुझे बचपन में बहुत कनफ़्यूज किया था। मैंने बिना किसी से पुछे ,जाने ये मान बैठी थी कि कृष्णा का कोई दूसरा रूप बाँके बिहारी हैं , जो मथुरा की जगह बिहार में जन्मे हैं। जैसे अपनी सीता माइयाँ। 

काफ़ी बाद में मुझे “अमीन चाचा “ जो माँ के सहकर्मी और मेरे धार्मिक या फिर क़िस्से कहानियों के गुरु रहे। उन्होंने मुझे सही जानकारी दी। उन्होंने ने हीं मुझे परशुराम जी वाली कथा भी सुनाई थी। 
अच्छा उनकी आदत थी कोई क़िस्सा सुनाने से पहले टेस्ट लेते की उसके बारे में मालूम है या नही? अगर है तो कितनी? 

ऐसे में एक गरमी की शाम वो मुझसे पुछ बैठे, अच्छा प्रियंका( मेरे दादा-दादी द्वारा दिया नाम) ये बताओ कृष्ण को बाँके बिहारी क्यों कहते हैं? 
मैंने जैसा ऊपर लिखा है वैसा ही जबाब उन्हें दिया और फिर उनकी हँसी छूट गई। बोले भक बुडबक किसने कहा तुमसे .....
और फिर आज इतना ही बोलिए बाँके बिहारी की जय। आपको मालूम हैं तो बताइए क्यों कहते है कृष्ण को “बाँके बिहारी”

Thursday 2 May 2019

मालिनी रजुरकर !!!

मालिनी रजुरकर जी की गायकी से मेरा परिचय पहली दफ़ा भाई ने करवाया था। उसके बाद तो ऐसा हुआ कि,शायद ही किसी रोज मैंने इन्हें ना सुना हो उन दिनो। इस बीच मैं माइग्रेन से पीड़ित रहने लगी। दिल्ली में कई अस्पताल के चक्कर लगाए। इनमे प्राइवेट अस्पताल से लेकर एम्स और गंगाराम तक शामिल थे। सबको लगता था एसिडीटी और आँख के पवार में कुछ झोल है। मेरी परेशानी से दुःखी भाई ने कहा, बहिन सुन ; राग केदार, राग सोहनी या भैरवी सुनने से भी सिरदर्द में काफ़ी आराम मिलता है। सुना करो, कुछ आराम मिले। फिर शादी हुई। यहाँ आई। आकर रोग के बारे में सही जानकारी मिली तब तक मैं हर सिर दर्द में केदार और सोहनी की आदी हो गई थी।

इनमे जो मुझे सबसे प्रिय लगता वो मुकुल शिवपुत्र और महिलाओं मे मालिनी जी हीं थीं। अब हालत ऐसी कि बिना सिर दर्द के भी कभी मैं मैं इनको सुनती तो शतेश पुछने लगते “तबियत तो ठीक है तपस्या” आज भी शतेश इन रागों को सुनकर एक बार मेरी तबियत का ज़रूर पुछ लेते हैं।

मज़े की बात तो ये है कि इनमे से किसी -किसी के बोल भी इन्हें याद हो गए है और मुझे कभी रिझाने के लिए इनका प्रयोग भी करते है। ऐसे में मैं भी कहाँ पीछे रहने वाली, मालिनी जी द्वारा हीं गया,” ऐसा तो मोरा साइयाँ निपट अनाड़ी भए” दे मारती हूँ। ख़ैर मेरी और शतेश की बात तो चलती हीं रहती है। आज मालिनी जी की बात करती हूँ।

राजस्थान में जन्मी मालिनी जी ग्वालियर घराना की गायकी करतीं है। हालाँकि इन्होंने अपने को घराने में बाँध कर नही रखा। ये सिखती रही ,प्रयोग करतीं रही। गणित की शिक्षिका होने की वजह से शायद इन्हें गायकी में भी 100 मे 100की आदत रही। पर इससे दुखद क्या हो सकता है कि ऐसे विदुषी को सिर्फ़ संगीत नाटक अकादमी अवार्ड तक समेट दिया गया। क्यों इनका स्थान पद्दम अवार्ड्स में नही आता? क्या ईमानदारी से अपनी कला को प्रस्तुत करने का नतीजा यहीं होता है?
या फिर किसी भी अवार्ड के लिए योग्यता के साथ थोड़ी चमक-धमक होनी हीं चाहिए? या कुछ अवार्ड जीते जी सुख नही दे सकतें?
हो सकता है मालिनी जी को इनसबसे इतना फ़र्क़ ना पड़ता हो तभी तो उन्होंने ऐसी शांतप्रिय -संगीतमय जीवनशैली चुनी हो पर फिर भी संगीत और कला के सम्मान में क्या भारत अपनी बेटी को इतना नही दे सकता? ख़ास कर उन बेटियों को जो कठीन परिस्थि में भी उठी और आगे बढ़ी। एक ऐसी शैली को जीवित रखना जो शायद गुमनाम हो रहा हो ये भी तो कम बड़ी उपलब्धि नही आज के समय मे।