मालिनी रजुरकर जी की गायकी से मेरा परिचय पहली दफ़ा भाई ने करवाया था। उसके बाद तो ऐसा हुआ कि,शायद ही किसी रोज मैंने इन्हें ना सुना हो उन दिनो। इस बीच मैं माइग्रेन से पीड़ित रहने लगी। दिल्ली में कई अस्पताल के चक्कर लगाए। इनमे प्राइवेट अस्पताल से लेकर एम्स और गंगाराम तक शामिल थे। सबको लगता था एसिडीटी और आँख के पवार में कुछ झोल है। मेरी परेशानी से दुःखी भाई ने कहा, बहिन सुन ; राग केदार, राग सोहनी या भैरवी सुनने से भी सिरदर्द में काफ़ी आराम मिलता है। सुना करो, कुछ आराम मिले। फिर शादी हुई। यहाँ आई। आकर रोग के बारे में सही जानकारी मिली तब तक मैं हर सिर दर्द में केदार और सोहनी की आदी हो गई थी।
इनमे जो मुझे सबसे प्रिय लगता वो मुकुल शिवपुत्र और महिलाओं मे मालिनी जी हीं थीं। अब हालत ऐसी कि बिना सिर दर्द के भी कभी मैं मैं इनको सुनती तो शतेश पुछने लगते “तबियत तो ठीक है तपस्या” आज भी शतेश इन रागों को सुनकर एक बार मेरी तबियत का ज़रूर पुछ लेते हैं।
मज़े की बात तो ये है कि इनमे से किसी -किसी के बोल भी इन्हें याद हो गए है और मुझे कभी रिझाने के लिए इनका प्रयोग भी करते है। ऐसे में मैं भी कहाँ पीछे रहने वाली, मालिनी जी द्वारा हीं गया,” ऐसा तो मोरा साइयाँ निपट अनाड़ी भए” दे मारती हूँ। ख़ैर मेरी और शतेश की बात तो चलती हीं रहती है। आज मालिनी जी की बात करती हूँ।
राजस्थान में जन्मी मालिनी जी ग्वालियर घराना की गायकी करतीं है। हालाँकि इन्होंने अपने को घराने में बाँध कर नही रखा। ये सिखती रही ,प्रयोग करतीं रही। गणित की शिक्षिका होने की वजह से शायद इन्हें गायकी में भी 100 मे 100की आदत रही। पर इससे दुखद क्या हो सकता है कि ऐसे विदुषी को सिर्फ़ संगीत नाटक अकादमी अवार्ड तक समेट दिया गया। क्यों इनका स्थान पद्दम अवार्ड्स में नही आता? क्या ईमानदारी से अपनी कला को प्रस्तुत करने का नतीजा यहीं होता है?
या फिर किसी भी अवार्ड के लिए योग्यता के साथ थोड़ी चमक-धमक होनी हीं चाहिए? या कुछ अवार्ड जीते जी सुख नही दे सकतें?
हो सकता है मालिनी जी को इनसबसे इतना फ़र्क़ ना पड़ता हो तभी तो उन्होंने ऐसी शांतप्रिय -संगीतमय जीवनशैली चुनी हो पर फिर भी संगीत और कला के सम्मान में क्या भारत अपनी बेटी को इतना नही दे सकता? ख़ास कर उन बेटियों को जो कठीन परिस्थि में भी उठी और आगे बढ़ी। एक ऐसी शैली को जीवित रखना जो शायद गुमनाम हो रहा हो ये भी तो कम बड़ी उपलब्धि नही आज के समय मे।
इनमे जो मुझे सबसे प्रिय लगता वो मुकुल शिवपुत्र और महिलाओं मे मालिनी जी हीं थीं। अब हालत ऐसी कि बिना सिर दर्द के भी कभी मैं मैं इनको सुनती तो शतेश पुछने लगते “तबियत तो ठीक है तपस्या” आज भी शतेश इन रागों को सुनकर एक बार मेरी तबियत का ज़रूर पुछ लेते हैं।
मज़े की बात तो ये है कि इनमे से किसी -किसी के बोल भी इन्हें याद हो गए है और मुझे कभी रिझाने के लिए इनका प्रयोग भी करते है। ऐसे में मैं भी कहाँ पीछे रहने वाली, मालिनी जी द्वारा हीं गया,” ऐसा तो मोरा साइयाँ निपट अनाड़ी भए” दे मारती हूँ। ख़ैर मेरी और शतेश की बात तो चलती हीं रहती है। आज मालिनी जी की बात करती हूँ।
राजस्थान में जन्मी मालिनी जी ग्वालियर घराना की गायकी करतीं है। हालाँकि इन्होंने अपने को घराने में बाँध कर नही रखा। ये सिखती रही ,प्रयोग करतीं रही। गणित की शिक्षिका होने की वजह से शायद इन्हें गायकी में भी 100 मे 100की आदत रही। पर इससे दुखद क्या हो सकता है कि ऐसे विदुषी को सिर्फ़ संगीत नाटक अकादमी अवार्ड तक समेट दिया गया। क्यों इनका स्थान पद्दम अवार्ड्स में नही आता? क्या ईमानदारी से अपनी कला को प्रस्तुत करने का नतीजा यहीं होता है?
या फिर किसी भी अवार्ड के लिए योग्यता के साथ थोड़ी चमक-धमक होनी हीं चाहिए? या कुछ अवार्ड जीते जी सुख नही दे सकतें?
हो सकता है मालिनी जी को इनसबसे इतना फ़र्क़ ना पड़ता हो तभी तो उन्होंने ऐसी शांतप्रिय -संगीतमय जीवनशैली चुनी हो पर फिर भी संगीत और कला के सम्मान में क्या भारत अपनी बेटी को इतना नही दे सकता? ख़ास कर उन बेटियों को जो कठीन परिस्थि में भी उठी और आगे बढ़ी। एक ऐसी शैली को जीवित रखना जो शायद गुमनाम हो रहा हो ये भी तो कम बड़ी उपलब्धि नही आज के समय मे।
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