मनलहरी लिखने के दौरान कई प्रयोग किया मैंने। ये प्रयोग मेरे धीरज का था, ये प्रयोग मेरे कल्पनाओं के साथ था और ये प्रयोग मेरे चित्रकारी के साथ था। मैं वैसे कोई चित्रकार नही बस आड़ी-टेढ़ी रेखाएँ खींच लेती हूँ अपने आस-पास। कुछ इस तरह की की इनसे घिर कर मुझे क़ैद नही एक एकांत महसूस होता है। जहाँ सिर्फ़ होती है तपस्या दोंनो अर्थों में। एकांत की ये रेखाएँ मुझ मे प्रवाह करती हुई मेरे मस्तिक की कोशिकाएँ बन जातीं हैं फिर वे मुझे एक नए संसार का दर्शन करा लाती हैं जिनके दर्शन मात्र से हीं इस एकांत से प्रेम हो जाता है। एक हल्की हँसी आकर कब होंठों पर बिखर जाती है, ये तबतक मालूम नही होता जबतक होंठों के दोंनो किनारों पर खिंचाव महसूस ना कर बैठूँ।
ऐसे में इन मन की लहरों के साथ मैंने कुछ तस्वीरें बनाई थी किताब के कवर पेज के लिए। हालाँकि जो तस्वीरें बनी वो बस मुझ तक ही रह गई। किताब पर कुछ और ही चढ़ना लिखा था। आज यूँ ही जब इन तस्वीरों को देखा, तो याद आई कितनी मुस्कुराहटे बिखरीं थी मेरी होंठों पर इनकी कल्पना कर के।
तस्वीर की व्याख्या तस्वीर देखने वाले आँखो से उसकी आत्मा करवाती है। भाव के अनुरूप तस्वीर अपना भाव बदलती है। तुलसी दास जी ने कहा है ना,” जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।”
ऐसे में इन मन की लहरों के साथ मैंने कुछ तस्वीरें बनाई थी किताब के कवर पेज के लिए। हालाँकि जो तस्वीरें बनी वो बस मुझ तक ही रह गई। किताब पर कुछ और ही चढ़ना लिखा था। आज यूँ ही जब इन तस्वीरों को देखा, तो याद आई कितनी मुस्कुराहटे बिखरीं थी मेरी होंठों पर इनकी कल्पना कर के।
तस्वीर की व्याख्या तस्वीर देखने वाले आँखो से उसकी आत्मा करवाती है। भाव के अनुरूप तस्वीर अपना भाव बदलती है। तुलसी दास जी ने कहा है ना,” जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।”
डोर सी खिले दो नीले फूल, मानो एकांत में अपनी प्रेम जड़े जमा रहे हो। एक रंग में रंगे, एक दूसरे की आस में हवा में अपनी ख़ुश्बू बिखेरें चुपचाप कितनी बातें किए जा रहें हो। ऐसे में एक दिन हवा का तेज़ झोंका आता है और नीला फूल बिखर जाने से पहले अपना मौन तोड़ता है;
कई बार यूँ भी देखा है
ये जो मन की सीमा रेखा है
मन तोड़ने लगता है
अनजानी प्यास के पीछे
अनजानी आस के पीछे
मन दौड़ने लगता है
कई बार यूँ भी देखा है
ये जो मन की सीमा रेखा है
मन तोड़ने लगता है
अनजानी प्यास के पीछे
अनजानी आस के पीछे
मन दौड़ने लगता है
और जिस तरह विद्या सिन्हा की नीली साड़ी जैसे हवा के झोंकें से उन हाँथों पर पड़ती है उसी उम्मीद में वो अनुरोध कर बैठता है;
एक बार तुम भी इसी हवा के झोंकों के नाम, मेरे हृदय पर अपना सर रख दो। मेरी डोर टूट कर धरती का आलिंगन करें इससे पहले क्या एकांत प्रेम के अनुरोध को तुम समझ पाओगी?
प्रेम में सब कह जाना मेरी बस का नही। आख़िर हूँ मैं एक नीला कमज़ोर फूल जो बस जनता है एकांत मौन प्रेम.....
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