Wednesday, 29 May 2019

बुद्ध पूर्णिमा का चाँद !!!

एक अकेला चाँद शीशे की खिड़की से झाँक रहा है। बार-बार शीशे के ऊपर बने फ़्रेम में जड़ा उसे देख मुँह फेर लेतीं हूँ पर वो ढीठ ऐसा कि आगे हीं नही बढ़ता। किसी आस के पंक्षी सा मेरी तरफ़ ताके जा रहा है ताके जा रहा है...
मैं कोई चकोर नही फिर भी उसकी इस अदा से प्यार से भर उठी हूँ। ख़ुद को उठाया और बालकनी में निकल पड़ी। थोड़ी देर उसे वैसे हीं घूरती रही जैसे वो मुझे घूर रहा है। इस क्रम में दो अकेले ठहरे हुए ग्रह आपस में मौन वार्तालाप करने लगे.....

मुझे यूँ ताकता देख चाँद और चमक उठा। मेरी आँखों में उसकी चमक खेल रही थी और  इन आँखों की चमक का जादू उसे बाँधे हुए था। दोंनो एक दूसरे को रोके हुए थे कुछ ऐसे जैसे होंठों पर एक गीत बहने लगी,
अभी ना जाओ छोड़ कर की दिल अभी भरा नही....

एक पल को बादलों के पीछे हल्का सा छिप कर मुझे देखने लगा मानो जाँच रहा हो मेरे मन को, मेरे धैर्य को। मेरे धैर्य की परीक्षा के पहले हीं उसको अपने अकेलेपन से डर लगने लगा। नीले -काले बादलों की ओट से बाहर निकल चमक  उठा...
मुझसे बोला, मेरी चाँद ! जाने क्यों मैं अकेला यूँ हीं सदियों से भटक रहा हूँ?  जाने क्यों लोग मुझे यूँ दूर से ख़्यालों से ही प्रेम देते है?
कभी साथी रहे असंख्य तारे भी साथ नही मेरे ....
सुनो, क्या तुम जाने से पहले मेरी एक याद साथ रख पाओगी? जाने कब अब मैं तुम्हारी खिड़की पर आऊँगा? कब तुम्हें पुकारूँगा ? और कब तुम मेरी पुकार सुन आ जाओगी...
तबतक तक मुझ अकेले चाँद को इस ब्रहमाँड के फेरे ऐसे हीं लेते रहने होंगे जैसे, “एक अकेला इस शहर में, रात में और दोपहर में आब-ओ -दाना ढूँढता है ,आशियाना ढूँढता है.”
चाँद को जाते देख, यादों के नाम मैं किसी अनाम से लिखे ख़त सा उसे अपने फ़ोन में क़ैद कर लेती हूँ। चाँद सुनो, तुम्हें अकेला जाते देख मन बेचैन सा है थोड़ा दुखी सा है मानो जैसे इसी पल के लिए किसी मासूम रजा के भाव यूँ उभरे जैसे मेरे हो,

चाँद अकेला जाए सखी री
काहे अकेला जाए सखी री
मन मोरा घबराए री
सखी री , सखी री ओ सखी री ....

जाओ चाँद दुखी ना हो वियोग से। यात्रा तुम्हारी नियति है पर इस बार तुम क़ैद हो किसी के मन में। एक ऐसी क़ैद जो प्रेमपूर्ण आज़ाद है....
तुम फिर आना मेरी खिड़की पर। हम फिर मौनपूर्ण बातें करेंगे और हाँ,
अब तुम अकेले होकर भी अकेले नही रहे ....

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