बाहर जाऊँ या ना जाऊँ... जाऊँ या ना जाऊँ... उहपोह में आकर खड़की से बाहर देखती हूँ। हवाएँ शीशे के दीवार से टकरा रहीं है। मानो उन्हें भी ठंड लग रही है, वो भी काँप रहीं हैं। शीशे की दीवार से गोंऽऽऽऽ ... गोंऽऽऽ गिड़गिड़ाती अंदर आने की विनती कर रहीं है। पर दीवार है जो टस से मस नही होता और इसके पीछे लगी दो आँखें बोल पड़ती है, आज बड़ी ठंडी है।
पाँव ख़ुद ब ख़ुद रसोई की ओर बढ़ चले हैं। हाथ चाय की पतीली ढूँढ रही है और दिमाग़ दूध वाली चाय बनाऊँ या निम्बू वाली ? दूध तो कम ही है, ख़त्म ना हो जाए।
ख़त्म हो गया फिर ?
सत्यार्थ की माँ इतनी भाग्यशाली नही कि, बच्चा रोया और झट से छाती से लगा लिया। प्लास्टिक के गैलन में भरे दूध हीं अब उसके आहार है...
पीछे से आवाज़ आती है; आज इण्डियाना में 31 कन्फ़ॉर्म केस हो गए। मेरे ओफ़्फ़िस को भी पूरी तरह से बंद कर दिया गया।
ऑफ़िस पूरी तरह बंद? क्यों ?
एक व्यक्ति में लक्षण पाए गए है...
लक्षण...बीमारी का, डर का, अपनो को खोने का, मौत का....
दिमाग़ मेरा भटकने के लिए हीं बना है तभी तो ये हवा की ठंडी से इंश्योरेंस तक पहुँच गई और अब भटक रही है रही खिड़की के बाहर पसरी हल्की बर्फ़ की तरफ़। ऐसा लग रहा है कि डि डि टी का छिड़काव हुआ हो। प्राकृति सारे रोग-जीवाणु को ढाँक लेना चाहती है। चाहती है एक हिमयुग की शुरुआत और फिर एक नए लोक की श्रीशती....
चाय की आख़िरी घूँट के साथ कुछ पल सब गरम रहा.... आँखें मृत सी उसी ग्लास की खिड़की पर टिकीं हैं। अचानक उनमें जीवन आ जाती है। चमक भर जाती है...
सामने एक गुलाबी महिला उन बर्फ़ के फुहारों को रोंद रही है । उसके हाथ में लगाम है दो जीवों का...
यही तो है प्रकृति की देवी और उसके हाथ में है, “नर और मादा”
नए युग का प्रारंभ...
पाँव ख़ुद ब ख़ुद रसोई की ओर बढ़ चले हैं। हाथ चाय की पतीली ढूँढ रही है और दिमाग़ दूध वाली चाय बनाऊँ या निम्बू वाली ? दूध तो कम ही है, ख़त्म ना हो जाए।
ख़त्म हो गया फिर ?
सत्यार्थ की माँ इतनी भाग्यशाली नही कि, बच्चा रोया और झट से छाती से लगा लिया। प्लास्टिक के गैलन में भरे दूध हीं अब उसके आहार है...
पीछे से आवाज़ आती है; आज इण्डियाना में 31 कन्फ़ॉर्म केस हो गए। मेरे ओफ़्फ़िस को भी पूरी तरह से बंद कर दिया गया।
ऑफ़िस पूरी तरह बंद? क्यों ?
एक व्यक्ति में लक्षण पाए गए है...
लक्षण...बीमारी का, डर का, अपनो को खोने का, मौत का....
दिमाग़ मेरा भटकने के लिए हीं बना है तभी तो ये हवा की ठंडी से इंश्योरेंस तक पहुँच गई और अब भटक रही है रही खिड़की के बाहर पसरी हल्की बर्फ़ की तरफ़। ऐसा लग रहा है कि डि डि टी का छिड़काव हुआ हो। प्राकृति सारे रोग-जीवाणु को ढाँक लेना चाहती है। चाहती है एक हिमयुग की शुरुआत और फिर एक नए लोक की श्रीशती....
चाय की आख़िरी घूँट के साथ कुछ पल सब गरम रहा.... आँखें मृत सी उसी ग्लास की खिड़की पर टिकीं हैं। अचानक उनमें जीवन आ जाती है। चमक भर जाती है...
सामने एक गुलाबी महिला उन बर्फ़ के फुहारों को रोंद रही है । उसके हाथ में लगाम है दो जीवों का...
यही तो है प्रकृति की देवी और उसके हाथ में है, “नर और मादा”
नए युग का प्रारंभ...
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