बाल दिवस की बात हो और बच्चे ना हो ऐसा हो सकता है भला ?
तो चलिए इस बार मिलाते है मेरे गाँव के कुछ बच्चों से ।
वैसे तो ये बच्चे दिन भर मेरे दुआर पर खेलते रहते है पर इनका मेरे घर मे गृह प्रवेश मेरे और भाई के रहने पर ही होता है ।भाई ने कई बार इनको पढ़ाने की भी कोशिश की है ।
बस इनका मेरे घर की लगभग मालकीन बाबिया से नही बनता।करण दरवाज़े पर लगे फ़ुल खेल में तोड़ देना ,बाहर का नल खोल देना या फिर गंदे पैर घर में घुस जाना।
मेरे रहते ये कभी सत्यार्थ के साथ खेलने आते या फिर मुझे डाँस या गीत सुनाने।कभी -कभी ये टीवी देखने भी आतें।बाबिया भुनभुना कर टीवी बंद कर देती ,इन्हें भगाती तबतक मैं आ जाती।ऐसे में इनकी मुझसे अच्छी दोस्ती हो गई थी ।
इसी बीच मेरा जन्मदिन आया।बाबिया ने घर को बेलून से सजाया था ।भाई ने बेतिया से केक भेजा था ।बाबिया मुझे अगले कमरे से निकाल सजावट कर रही थी।ऐसे में मैं दरवाज़े की सीढ़ी पर बैठ बाहर खेलते बच्चों को देखने लगी।
रुखानी आकर मेरे पास बैठ गई।मैंने उससे पुछा ,रुखानी क्या तुमने कभी केक काटा है ? वो शर्माते हुए बोली ना ।
फिर मैंने उन सब खेलते बच्चों को बुलाया ।सबसे उनका जन्मदिन पुछा पर किसी को ठीक से उनका जन्मदिन नही मालूम था ।थे भी तो छोटे -छोटे ।कोई बोल रहा था फागुन मे तो कोई जेठ ,अगहन ।ऐसे में मैंने सोचा क्यों ना आज इन बच्चों से ही केक कटवाया जाय ।
अब सबका नाम लेकर तो बडेय सोंग गाने मे दिक़्क़त होती तो रुखानी जो सबसे बड़ी थी उसका ही नाम लिया मैंने।मेरी तो हँस -हँस के हालत ख़राब हो रही थी उनको केक पर टूटता देख कर ।
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