Sunday, 4 November 2018

मध्यस्थ (मुनि क्षमसागर जी ,फ़्रेंज काफ़्का )!!!

मैं परिवर्तन में जीता हूँ
और
मौत से बेहद डरता हूँ
यह सोचकर
कि शाश्वत में जीना-मरना
दोनो मुश्किल है।

खिड़की के पीछे से कोई कह रहा था ,खिड़की के इस पार इसपर  झुकी लता फूल बन मुस्कुराई और खिड़की के भीतर झाँक कर बोली ,
मुझे मौत में जीवन के फूल चुनना है
अभी मुरझाना टूटकर गिरना
और
अभी खिल जाना है
कल यहाँ आया था कौन ,कितना रहा
इससे क्या ?
मेरे जाने के बाद लोग आएँ
अर्थी सम्भाले
कंधा बदले
इससे पहले मुझे ख़ुद संभलना है
अभी तो मुझे संभल -संभल कर रोज -रोज जीना और रोज -रोज मरना है ।

खिड़की के भीतर से आई आवाज़ और खिड़की से लिपटी लता की बात सुन रही खंडहर दीवार में चुनी जर्जर खिड़की हवा से खड़खड़ा उठी ।उसकी खड़खड़ाहट से भीतर और बाहर के दोनो जीव उससे लिपट जाते है ।उन्हें डर है कि कहीं ये उनके मिलन का आख़िरी द्वार टूट ना जाय ।

खिड़की दोनो तरफ़ के भाव को बरसों से जानती है ।अपने कबजो के हिलते कील के सहारे चो-चर करती हुई कहती है
सजीव जीवों का काया पलट हो रहा है ।तुम्हें मालूम नही क्या

मरने की चाह हीं दरअसल समझ की शुरुआत का पहला संकेत है ।

तुम दोनो मेरे सहारे एक दूसरे को जाने कब से जीवन दे रहे हो फिर भी मौत का इंतज़ार ।किसकी मौत का इंतज़ार है तुम्हें ?
इस दीवार के एक भाग से जकड़ी मैं कब तक मध्यस्थ रहूँगी ?क्या मेरे बैग़ैर तुम नही मिल सकते ? कहीं मेरे  द्वारा बनी ये दूरी हीं तुम दोनो जीवन तो नही मान बैठे ?
तुम सारे कीड़े -मकोड़े ,संबंधो के बीच
पहले एक दीवार ख़ुद खड़ी करते हो
फिर उसमें एक खिड़की लगाते हो
पर ज़िन्दगी भर क़रीब रहकर भी
खुल कर कहाँ मिल पाते हो ।

खिड़की के भीतर से फिर आवाज़ आई ,हमारे चाहने से क्या होता है ?ब्रह्मांड आपनी तरफ़ सबको खींच रहा है काठ की  खिड़की ।हम चाहे या ना चाहे
जीवन में अलग रहते हुए भी हर जीव कहीं ना कही किसी से जुड़ना चाहता है
किसी भी समय ,परिस्थि ,मौसम ,अवस्था में ,ज़िम्मेदारियों के बावजूद हर आदमी कम से कम एक
स्नेहपूर्ण बाँहों की ओर खुलने वाली
खड़की चाहता है ।

खिड़की जीव के बात से ख़ुद पर इठला रही है ।इतनी ख़ुश कि अपने पल्लो को मानो पंख समझ उड़ जाना चाह रही है ।
एक अकेला कील जो अब तक खिड़की का प्राण बना था उसने खिड़की को मुक्त कर दिया ।हमेशा हमेशा के लिए ।
चर्रर्रर्र की आवाज़ के साथ जुदा होती खिड़की बोली ,
हे तड़पते जीवों मेरे अंदर और बाहर के सुनो ,मैं
गंतव्य यात्रा पर निकल चूकी हूँ।
बार -बार तुम पूछोगे कि कितना चलोगे ?कहाँ तक जाना है
मैं मुस्कुरा कर आगे बढ़ जाऊँगी
किससे कहूँ कि कहीं तो नही जाना
मुझे इस बार अपने तक आना है ।

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