Sunday 18 November 2018

मजनूँ और फ़्लॉरेंटीनो!!!

क्या कोई सारी उम्र किसी का इंतज़ार कर सकता है ? क्या कोई किसी से इतना प्रेम कर सकता है कि उसे अपने प्रेमी के अलावा कोई दिखता ही ना हो ? क्या ये बातें सिर्फ़ कहानियाँ  है या किसी ने इसे सच में जीया है ?
कई ऐसे सवाल आज की फ़िल्म के अंत के साथ फिर ज़िन्दा हो गए है । फ़िल्म थी इम्तियाज़ अली और साजिद अली की लैला मजनूँ।
इस फ़िल्म के साथ एक और अजीब बात मेरे साथ हो रही थी ।फ़िल्म को देखते -देखते मैं कई बार लव इन द टाइम आउफ़ कॉलरा मोड में चली जा रही थी ।कई बार लग रहा था कि मार्केज़ और इम्तियाज़ मिल कर कहानी लिख रहे थे ।हालाँकि पहली बार में मुझे लव इन द टाइम आउफ़ कॉलरा उतनी पसंद नही आई थी ।इसपर लिखा भी था ,पर इस बार फिर से पढ़ी तो कुछ अलग लगा ।पहली बार में किताब ना पसंद होने के कारण इस किताब के नायक की रूप रेखा और उसका कई बार औरतों ,विधवाओं ,प्रॉस्टिटूटऔर नाबालिग़ लड़की से सम्बंध बनाना फिर भी नायिका से झूठ कहना की वो वरजिन है ।मुझे ग़ुस्सा था झूठ क्यों बोला ? अगर इतना प्रेम था तो इतनी औरतों के पास क्यों गया ? जान ली ,एक बच्ची मर गई इस मैनियक के कारण ।

ख़ैर अब क्या सोचती हूँ वो बाद में ,अभी लैला मजनूँ के साथ चलिए ।इस फ़िल्म में भी नायक नायक जैसा नही लगता ।मैंने फ़िल्म के ट्रेलर को देख शतेश से कहा था बकवास फ़िल्म होगी ।पर पर पर फ़िल्म ओह क्या बनी है ,क्या लड़के ने काम किया है ,बहुत -बहुत सुंदर ।
नायक ख़ुद ही फ़िल्म में कहता है शक्ल अच्छी नही इसलिए जिम जाता हूँ ,कपड़े -जूते मेंटेंन करता हूँ ।आप कुछ देर के बाद ही नायक की शक्ल भूल कहानी में खो जाएँगे ।
इस फ़िल्म में भी नायक बिगड़ैल लड़का होता है पर लैला के मिलने के बाद सब बदल जाता है ।वो भी फ़्लॉरेंटीनो (किताब के नायक )की तरह नाईका पीछा करता रहता है ।नाईका के विवाह के बाद भी उसका इंतज़ार करता रहता है ।
हाँ मरखेज की किताब का नायक थोड़ा क्रूर भी कभी होता है ।उसे इंतज़ार होता है नाईका के पति के मरने की ।वही अपना मजनूँ कभी -कभी स्पिरिचूअल हो जाता है ।उसे दुःख  होता है लैला के पति के मरने पर ।

दोनो ही पात्र इंतज़ार में मानसिक बीमार जैसे हो जाते है ।एक औरतों की देह में प्रेम और शांति ढूँढता है तो दूसरा अपने आस पास लैला के होने के अहसास में डूबा रहता है ।शायद भारतीय प्रेम कहानी है तो इसे ऐसे ही दिखा सकते थे ।
जो भी हो पर दोनो ही नायक को प्रेम में मरना पसंद है ।अपनी प्रेमिका को भूलना इतना कठिन है कि एक 72 साल की उम्र में प्रेम का इंतज़ार कर रहा है और दूसरा चार साल की दूरी में अपनी प्रेमिका को हर वक़्त अपने क़रीब पाता है ।

आख़िर ऐसा क्या है इनके प्रेम में ? क्यों मृत्यु से शुरू होने वाली ये कहानियाँ जीवन तक जाती मालूम पड़ती है ।
क्यों मजनूँ लैला के इंतज़ार में बैठे अपने दोस्त से पूछता है -तुम्हें क्या लगता है कि वो आएगी ? दोस्त कहता है हाँ भाई ।
फिर मजनूँ हँसते हुए कहता कि -फिर मुझे क्यों लगता है कि वो नही आएगी ।
आशा -निराशा के बीच झूलता ये प्रेम कई बार तो लगता है कि दोनो के अहंकार से डूब गया जैसा देवदास में हुआ था ।प्रेम में इतना अहम कहाँ से आ जाता है ये भी समझना मेरी समझ से परे हो जाता है ।

ख़ैर दोनो कहानियों फ़िल्म और किताब से इस बार मुझे ये बात समझ आई कि प्रेम मन /आत्मा की तृप्ति है जहाँ देह सिर्फ़ देह रह जाती है ।कई बार होकर भी ये कई बार अधूरी रह सकती है तो कभी सिर्फ़ एक मुश्कान से पूरी मालूम होती है ।
मजनूँ सच में मजनूँ ही है कहता है -
तुम नज़र में रहो
ख़बर किसी को ना हो
आँखे बोले लब पे ख़ामोशी ।

उसे क्या इतनी भी ख़बर नही की खुदा की दी सबसे सच्ची चीज़ मनुष्य शरीर में आँखे हीं तो है ,वो क्या छुपा पायेंगी कुछ भी ।

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